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दशकों बाद दिल्ली को दहला देने और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बहुचर्चित यात्रा की चमक को धूमिल कर देने वाले साम्प्रदायिक दंगों ने मोदी सरकार को चिंतित कर दिया है. दो घटनाओं से इसके संकेत मिल रहे हैं.
हालांकि डोभाल पूर्व पुलिस अधिकारी हैं, लेकिन एनएसए जिस तरीके से सामने आए उससे बमुश्किल दिल्ली पुलिस कमिश्नर के मान-सम्मान की रक्षा और शांति की बहाली हो सकी है या फिर नेताओं की तरह उन्हें मरहम लगाने में सफलता मिली है.
डोभाल मोदी का बायां हाथ हैं तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह उनके दाहिने हाथ माने जाते हैं. सरकार में तीसरे सबसे अहम व्यक्ति का दिल्ली के हिंसा प्रभावित क्षेत्र में कमान संभालना शीर्ष स्तर की बेचैनी बताता है. वहीं मोदी के सहयोगी हाल में हुए दंगों के प्रभाव का नफा-नुकसान समझते हुए विश्लेषण करने में लगे हैं.
चिंता का दूसरा संकेत अमित शाह की जानबूझकर साध ली गई चुप्पी और उनका लो प्रोफाइल बने रहना है. एक ऐसी परिस्थिति में जब दिल्ली पुलिस, जिसे वो देखते हैं, वो जबरदस्त घातक अक्षमता और सह अपराधी की भूमिका में है. हालांकि लोकप्रियता को ध्यान में रखकर सावधानीपूर्वक की गईं कोशिशें (पीआर एक्सरसाइज) बताती है कि पर्दे के पीछे से शाह का पूरा नियंत्रण रहा है और डोभाल उनके साथ मिलकर काम करते रहे हैं. इस मुश्किल घड़ी में गृह मंत्री खुद को जनता की नजरों से दूर रख रहे हैं.
आमंत्रित लोग उनके भाषण का इंतजार कर रहे थे. उन्हें उम्मीद थी कि हाल के दंगों पर वह कुछ बोलेंगे.
बेशक शाह हमेशा के लिए नहीं छिप सकते. अगले हफ्ते संसद का बजट सत्र दोबारा शुरू होगा और यह देखना दिलचस्प होगा कि वह इस दौरान दिखते हैं या नहीं. कब वह अपना चेहरा दिखाएंगे? दिल्ली दंगों पर क्या वह कोई बयान देंगे? वह क्या कहेंगे? इन सवालों के जवाब इस मायने में अहम हैं कि इससे पता चलेगा कि सरकार की सोच, भविष्य की उसकी रणनीति और खुद अमित शाह की स्थिति लगातार दो सदमों के बाद क्या है. एक दिल्ली चुनाव में हार, जिसका उन्होंने नेतृत्व किया था और दूसरा राजधानी में हिंसा के दौरान पुलिस व्यवस्था का धराशायी हो जाना.
सरकार के लिए चिंता के कई कारण हैं. एक कारण जाहिर तौर पर साफ है कि ब्रैंड इंडिया छवि तहस-नहस हो रही है और इसका असर देश के लिए बेहद जरूरी विदेशी निवेश पर होगा, जो गिरती अर्थव्यवस्था में सुधार और विकास को तेज रफ्तार देने के लिए बहुत जरूरी है. ट्रंप की यात्रा को कवर करने के लिए दुनियाभर की मीडिया दिल्ली में मौजूद थी. हालांकि धूमधाम और तड़क-भड़क के साथ मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति और बाकी दुनिया को प्रभावित करने में सफल रहे, लेकिन दिल्ली के साम्प्रदायिक दंगे चर्चा का केंद्र बन गए.
यह उभरती शक्ति का प्रदर्शन नहीं था. जैसा कि पश्चिमी मीडिया के कुछ हिस्से ने जोर देकर बताया कि जहां ट्रंप के कदम पड़ रहे थे वहां से कुछ किलोमीटर दूर ही राजधानी के बीचो-बीच दंगे हो रहे थे और ऐसा लगा मानो समूचा देश अराजकता और सामाजिक अस्थिरता में फंसा हुआ हो.
यूएन, ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कंट्रीज, अमेरिका और यूरोप के राजनीतिज्ञों के बीच अल्पसंख्यकों की रक्षा नहीं कर पाने और इसके बजाए नागरिकता संशोधन कानून के जरिए उन्हें निशाना बनाने के लिए भारत की निंदा करने की होड़ दिखी.
पड़ोसी बांग्लादेश में ढाका यूनिवर्सिटी के छात्र सड़कों पर उतर आए और प्रधानमंत्री शेख हसीना से मांग करने लगे कि वे अपने पिता और देश के संस्थापक शेख मुजीबुर्ररहमान की जन्मशती के मौके पर 17 मार्च को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया गया न्योता रद्द कर दें.
पीएम मोदी के लिए निश्चित रूप से यह बात चिंताजनक है कि अपने शासनकाल के पहले दौर में जो अंतरराष्ट्रीय छवि और एक नेता के तौर पर अपनी स्वीकार्यता उन्होंने बनाई थी, उस पर पानी फिरता नजर आ रहा है.
उस देश में कौन निवेशक अपना पैसा लगाना चाहेगा जहां की राजधानी में अहम विदेशी राजकीय यात्रा के दौरान साम्प्रदायिक दंगे हों, जिसका प्रशासन तंत्र मानो ढह गया हो और जहां शासक की शह पर नफरत की राजनीति फल-फूल रही हो?
सरकार के मददगार और सलाहकार रास्ते तलाश रहे हैं कि किस तरीके से नुकसान को रोका जाए. कई विभाग खासकर जो मीडिया पर नजर रखते हैं, वे दैनिक बैठकों में आगे के कदमों को लेकर घबराए हुए हैं. बहरहाल अब तक कोई कार्य योजना सामने नहीं आ सकी है.
हालांकि सरकार की सबसे ज्यादा चिंता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए नुकसान और विदेशी निवेश पर पड़ने प्रभाव को लेकर दिखती है लेकिन सरकार के लिए बुद्धिमानी यह भी है कि वह घरेलू मोर्चों पर इसके प्रभावों को भी देखे.
मीडिया कॉलम और संपादकीय पन्नों पर जो विवेकपूर्ण आवाज हैं उनमें दिल्ली चुनावों के दौरान बीजेपी के नफरत भरे कटु अभियानों और हार के बाद हुए दंगों में दिख रहे सामाजिक बिखराव की चिंता झलक रही है.
ये आवाज या प्रमुख अखबारों के संपादकीय किसी भी मायने में चरमपंथी नहीं हैं जिन्होंने नागरिकता संशोधन कानून के विवादास्पद उपबंधों पर दोबारा विचार करने और नफरत फैलाने वाले समूहों पर नकेल कसने की अपील की है.
स्पष्ट तौर पर ओपिनियन बनाने वाले, प्रोफेशनल्स, कॉरपोरेट और शिक्षित मध्यम वर्ग चिंतित हैं कि देश ने दक्षिणपंथी रुख कर लिया है और इस वजह से सामाजिक उथल-पुथल तेज हो गई है. चुनावी नजरिए से संख्या में यह वर्ग बहुत महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन वे अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करते हैं, रोजगार सृजन करते हैं और सोच को दिशा देते हैं. जोखिम लेकर ही कोई सरकार इसे नजरअंदाज कर सकती है.
यह विचित्र बात है कि शीर्ष पर जो चिंता है वो नीचे की ओर दिखाई नहीं देती.
वे खास तौर पर बिहार में होने जा रहे अगले विधानसभा चुनाव को देख रहे हैं. बीजेपी के लिए इस चुनाव में जीत बहुत जरूरी है जो हाल के चुनावों में लगातार हार देखती रही है.
यह तबका महसूस करता है कि दलित-मुसलमानों का गठजोड़ जिसने दिल्ली में बीजेपी को भारी शिकस्त थी और जो चंद्रशेखर आजाद जैसे फायरब्रांड नेताओं के नेतृत्व में मजबूत हो रहा था, वो दिल्ली हिंसा में धराशायी हो गया है. महत्वपूर्ण यह भी है कि ज्यादातर दंगा प्रभावित इलाकों में बिहार और यूपी के पूर्वांचल से आए लोग रहते हैं. बीजेपी के तबकों में यह अहसास है कि बिहार में हिंदुत्व का संदेश पहले ही पहुंच चुका है.
(लेखिका दिल्ली में रहने वाली पत्रकार हैं. ये लेखिक के विचार हैं और इससे क्विंट का सरोकार नहीं है.)
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