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गिग वर्क या प्लेटफॉर्म वर्क अर्थव्यवस्था का भविष्य कहलाता है. कोविड-19 जैसी महामारी के बाद तो दुनिया भर में गिग वर्कर्स की संख्या लगातार तेजी से बढ़ी है. अमेरिका की फाइनांशियल फर्म पेओनियर के हिसाब से कोविड ने बेरोजगारी 35% बढ़ाई है. इसीलिए रोजगार बाजार में नए फ्रीलांसर्स की संख्या में 37% की बढ़ोतरी हुई है. साथ ही बढ़ी हैं, डिलीवरी एजेंट्स (Delivery Boy) की मुसीबतें. इसे कुछ आपबीतियों से समझा जा सकता है.
ऑर्डर लो. खाना उठाओ. कस्टमर की लोकेशन देखो. डिलिवरी करो. हर बैच पर 35 रुपए और हर ऑर्डर पर बीस रुपए. बेंगलुरू के अजहर का रोजाना का यही रूटीन है. पेट्रोल की कीमत 100 रुपए से ज्यादा है. दिन भर में 500 रुपए भी कमाई हो तो डेढ़ सौ रुपए तो पेट्रोल में लग जाते हैं. इस हिसाब से महीने में 10 हजार रुपए से ज्यादा की कमाई नहीं हो पाती. 2017 में हर ऑर्डर पर 50 रुपए मिलते थे. फिर वह 35 रुपए हुए. अब वीकडेज़ में 20 रुपए और वीकेंड्स पर 55 से 70 रुपए मिलते हैं. दिलचस्प यह है कि एप के बैकएंड का सिस्टम ऐसा होता है कि आप एक सीमा से ज्यादा कमा ही नहीं सकते.
कमाई में कटौती भी हो रही है. दिल्ली के विकास का पेमेंट पहले रेस्त्रां पहुंचने के साथ चालू हो जाता था. लेकिन अब रेस्त्रां वेट टाइम पे कॉम्पोनेंट में उसे शुरुआती चार पांच मिनट तक मुफ्त में इंतजार करना पड़ता है. वहीं अपनी लोगो वाली यूनिफॉर्म का पैसा भी चुकाना होता है. एक होती है, ऑनबोर्डिंग फी जोकि 1500 से 1800 के बीच है और इसमे रेन कोट भी शामिल होते हैं. यानी वर्दी का खर्चा भी अपनी जेब से.
चेन्नई के जॉर्ज के लिए वक्त की घड़ी तेजी से भागती रहती है. जितनी ज्यादा डिलिवरी करेगा, उतना इनसेंटिव मिलेगा. अगर रोज 20 से ज्यादा डिलिवरी हुई तो कुछ रुपए एक्सट्रा मिल सकते हैं. इस एक्स्ट्रा पैसे के लिए मोटरसाइकिल दौड़ानी पड़ती है. शाम के बाद एन्जाइटी बढ़ती जाती है. अभी पिछले महीने इंदौर के डिलिवरी एजेंट देवी लाल की मौत सड़क दुर्घटना में हुई है. चेन्नई में डिलिवरी वर्कर्स और सड़क दुर्घटनाओं पर विजयशंकरी नाम के रिसर्चर ने 173 फूड डिलिवरी वर्कर्स पर एक अध्ययन किया था. इसमें 56 किसी न किसी सड़क दुर्घटना का शिकार हुए थे. लेकिन कोई बीमा नहीं, तो कोई हर्जाना नहीं मिलता.
ऐप पर डिलिवरी एजेंट या ड्राइवर की कस्टमर रेंटिंग की जाती है. मुंबई का मुकुंद मोटरसाइकिल ड्राइवर है और इस रेंटिंग से काफी तनाव में भी रहता है. अक्सर रेटिंग से इनसेंटिव जुड़ा होता है. नतीजा होता है, रेस और शॉर्ट कट्स. कई बार बिना रुके काम करना. इससे थकान होती है, और रिस्की राइडिंग बिहेवियर. मेंटल स्ट्रेस अलग से होता है.
हैदराबाद का अली घर से ऐप पर लॉग इन नहीं कर सकता. अगर कर भी लेता है तो ऑर्डर नहीं मिलते. फिर वह हॉट जोन में जाता है तब कहीं ऑर्डर मिलने शुरू होते हैं. फिर ऑर्डर डिलिवर करने के बाद दोबारा दूसरे ऑर्डर को रिसीव करने लिए हॉट जोन में जाना पड़ता है. इसमें समय बहुत बर्बाद होता है. कई बार हॉट जोन की वजह से बारिश और धूप भी बर्दाश्त करनी पड़ती है.
गिग वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स के लिए सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 में कुछ प्रावधान हैं. वे जिस डिजिटल इंटरमीडियरी या मार्केट प्लेस के साथ काम करते हैं, उन्हें एग्रीगेटर कहा जाता है. मौजूदा कानून में एग्रीगेटर्स की लिस्ट में नौ कैटेगरी हैं, जैसे राइड शेयरिंग सेवाएं, खाद्य और किराना डिलिवरी सेवाएं, कंटेंट और मीडिया सेवाएं और ई-मार्केटप्लेस शामिल हैं.
केंद्र सरकार गिग वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स के लिए एक सोशल सिक्योरिटी फंड बनाएगी. इसके अलावा राज्य सरकारे दो श्रेणियो में उनका रजिस्ट्रेशन करेंगी.
असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सोशल वेल्फेयर बोर्ड बनाए जाएंगे जोकि गिग वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स के कल्याण के लिए भी काम करेंगे.
बोर्ड इन लोगों के लिए योजनाओं का सुझाव देंगे और उनकी निगरानी भी करेंगे. इसके लिए बोर्ड में गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स के लिए तीन प्रतिनिधि शामिल होंगे.
गिग वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स के लिए जो योजनाएं बनाई जाएंगी, उनकी फंडिंग केंद्र सरकार, राज्य सरकार और एग्रीगेटर्स करेंगे. इन एग्रीगेटर्स का योगदान कितना होगा, इसे सरकार तय करेगी. यह एग्रीगेटर के वार्षिक टर्नओवर का 1-2% के बीच होगा. हालांकि एग्रीगेटर गिग वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स को जो एमाउंट देता है, यह योगदान उसका अधिकतम 5% ही होगा.
यूनिवर्सल सोशल सिक्योरिटी नहीं है. इसका लाभ उठाने के लिए पात्रता के मानदंड ऐसे हैं कि बहुत से लोग इसका फायदा नहीं उठा पाएंगे, जैसे एक निश्चित आयु की सीमा. 2002 का राष्ट्रीय श्रम आयोग कह चुका है कि सामाजिक सुरक्षा कवरेज ऐसा होना चाहिए कि कोई कर्मचारी इससे छूट न जाए.
प्लेटफॉर्म वर्कर और गिग वर्कर की परिभाषा में ओवरलैपिंग है. कौन गिग वर्कर है, कौन प्लेटफॉर्म वर्कर- समझना मुश्किल है. मांग की जा रही है कि एग्रीगेटर्स के साथ काम करने वाले लोगों को एजेंट या कॉन्ट्रैक्टर की बजाय प्लेटफॉर्म वर्कर माना जाए.
एग्रीगेटर के योगदान का आकलन कैसे किया जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है. क्योंकि गिग वर्कर उनके साथ पूरे साल काम नहीं करते. मतलब काम के दिनों की संख्या का सोशल सिक्योरिटी पर क्या असर होगा, यह भी स्पष्ट नहीं है.
प्लेटफॉर्म वर्कर्स और गिग वर्कर्स के केंद्रीय डेटाबेस से डेटा राज्यों को शेयर किए जाएंगे लेकिन यह राइट टू प्राइवेसी के खिलाफ है.
आप एकजुट हो सकते हैं
जब श्रम कानूनों से छूट लेने के लिए कंपनियां लाखों रुपए खर्च कर रही हों तो आप उन कंपनियों को कैसे हरा सकते हैं? आप एकजुट हो सकते हैं. बड़ी बड़ी सल्तनतें एकता की ताकत के आगे धराशाई हो जाती हैं. इसकी एक मिसाल है, लंदन की फूड डिलिवरी कंपनी डेलिवरू (Deliveroo). कई साल पहले वह लंदन स्टॉक एक्सचेंज में सबसे बड़ा आईपीओ लेकर आई थी. इसका वैल्यूएशन 12 बिलियन डॉलर था. लेकिन वह दुनिया का सबसे ज्यादा प्रोटेस्टेड एप बेस्ड प्लेटफॉर्म था.
एक दूसरे से संपर्क कर सकते हैं
दुनिया भर के प्लेटफॉर्म वर्कर्स एक दूसरे से संपर्क कर रहे हैं. वे फोरम, ग्रुप चैट और वीडियो कॉल के जरिए एक से दूसरे देशों में अपना नेटवर्क बना रहे हैं. उबर के आईपीओ से ऐन पहले अलग-अलग देशों के एक्टिविस्ट्स ने एक साथ फाइनांशियल न्यूज ऑनलाइन पढ़ीं और उन्हें पता चला कि इसका स्टॉक समय से पहले एनाउंस किया जा रहा है. 2020 में 24 से ज्यादा देशों के गिग वर्कर्स मिले और उन्होंने इंटरनेशनल एलायंस ऑफ एप बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स (आईएएटीडब्ल्यू) बनाया. भारत में भी इंडियन फेडरेशन ऑफ एप बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स (आईएफएटी) और ऑल इंडिया गिग वर्कर्स यूनियन है.
व्यवस्था को जवाबदेह बना सकते हैं
अगर संगठन बनेगा तो प्रशासन की जवाबदेही भी तय होगी. ऐसा हुआ भी है. स्पेन में एक नया कानून लाया गया है जिसके तहत प्लेटफॉर्म कंपनियों को बताना होगा कि वे अपने वर्कर्स को मैनेज करने के लिए किस एल्गोरिदम का इस्तेमाल करती हैं. इसके अलावा यूके के सुप्रीम कोर्ट ने उबर ड्राइवर्स को वर्कर्स घोषित किया है, स्वतंत्र कॉन्ट्रैक्टर्स नहीं. फरवरी में इटली की अदालत ने फूड डिलिवरी कंपनियों को श्रम कानूनों का उल्लंघन करने पर 900 मिलियन डॉलर का जुर्माना चुकाने को कहा है.
सोशल मीडिया का सहारा ले सकते हैं
आज सोशल मीडिया एक ताकतवर टूल बन गया है. इसका इस्तेमाल मुंबई के एक शख्स ने बखूबी किया. उसने डिलिवरीभॉय (DeliveryBhoy) नाम का एक हैंडिल बनाया और उस पर अपनी रोजाना की कमाई के स्क्रीनशॉट्स शेयर करने शुरू कर दिए. फिर रोजाना खाना ऑर्डर करने वाले कस्टमर्स भी गिग वर्कर्स की हालत पर गुस्सा जताने लगे. जब किसी कस्टमर ने डिलिवरीभॉय से कहा कि इस समस्या का हल क्या है तो उसने जवाब दिया, आप तब तक के लिए ऐप डिलीट कर दीजिए, जब तक कि राइडर्स को बेस पे नहीं मिलती. सोशल मीडिया कम से कम आपको उनके हालात से रूबरू जरूर कराता है, और संवेदनशील भी बनाता है.
(आर्टिकल में प्लेटफॉर्म वर्कर्स के नाम बदल दिए गए हैं. वैसे नाम से क्या फर्क पड़ता है. डिलिवरी लेते समय उनके नाम कौन पूछता है)
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Published: 14 Sep 2021,03:56 PM IST