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भारतीय लोकतंत्र बीते सप्ताह भयानक मतिभ्रम से जूझता रहा. बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट बेहूदे ढंग से गिरफ्तार किए गए, सुप्रीम कोर्ट के जज नाराज हो गए, पुलिस के तेवर कुछ ज्यादा ही उग्र रहे, सत्ताधारी पार्टी के सूरमा कड़वाहट से भरे नजर आए, मुख्यधारा के समाचार माध्यम अपनी ओढ़ी हुई नींद से जागे, लिबरल यानी उदारवादी विचारों वाले लोग आंदोलन पर उतर आए और ट्रोल्स की दुष्टता और भी बढ़ गई. मौजूदा दौर के बिगड़े माहौल में भी ये सारा घटनाक्रम बेहद चौंकाने वाला रहा.
सुधा भारद्वाज: इंग्लैंड में शुरुआती शिक्षा हासिल करने के बाद कानपुर आईआटी से इंजीनियरिंग की डिग्री ली. उनकी मां, मशहूर अर्थशास्त्री कृष्णा भारद्वाज, ने जेएनयू में सेंटर फॉर इकनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग की स्थापना की थी. सुधा ने छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शंकर गुहा नियोगी के साथ काम करने के लिए अपनी अमेरिकी नागरिकता छोड़ दी. 1992 में नियोगी की हत्या के बाद उन्होंने दुर्ग के कॉलेज से कानून की डिग्री हासिल की और दुर्गम इलाकों की निचली अदालतों में आदिवासियों और दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने लगीं.
गौतम नवलखा: एक सम्मानित पत्रकार (इकनॉमिक एंक पोलिटिकल वीकली समेत कई पब्लिकेशन्स में लिखने वाले), लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. वो कश्मीर में सैनिक कार्रवाई के एक मुखर आलोचक हैं, खासकर बच्चों को अंधा बनाने वाले पैलेट गन के इस्तेमाल का वो विरोध करते रहे हैं.
वरनॉन गोंजाल्विस: एक एकैडमिक शख्सियत, जो मुंबई के एचआर कॉलेज में पढ़ा चुके हैं. 2007 में उन्हें एक "प्रमुख नक्सलवादी" होने और अपने घर में "विस्फोटक" रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. मुंबई की एक स्थानीय अदालत ने उन्हें UAPA (गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून) और आर्म्स एक्ट के तहत दोषी करार दिया था. 2013 में 17 मामलों में बरी किए जाने तक वो करीब 6 साल जेल में रहे.
अरुण फरेरा की कहानी भी गोंजाल्विस से काफी मिलती-जुलती है. मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज के पूर्व छात्र रहे अरुण को भी 2007 में "चोरी छिपे नक्सलवादी गतिविधियां" चलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. उनके खिलाफ राजद्रोह समेत 11 मामले दर्ज किए गए थे. 2011 में वो बरी तो हो गए लेकिन उन्हें जेल से बाहर आते ही फिर से गिरफ्तार कर लिया गया. बाद में उन्हें जमानत मिल गई.
वो जीवन भर राजनीतिक गिरफ्तारियों का सामना करते रहे हैं. सबसे पहले उन्हें 1973 में 'मीसा' के नाम से कुख्यात आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था कानून के तहत गिरफ्तार किया गया. इसके बाद 1975 में इमरजेंसी के दौरान वो फिर से गिरफ्तार किए गए.
1985 में उन्हें आंध्र प्रदेश सरकार का तख्तापलट करने की साजिश रचने के आरोप में एक बार फिर से गिरफ्तार किया गया. 1990 में छपी उनकी जेल डायरी "सहचारुलू" का अंग्रेजी अनुवाद "कैप्टिव इमेजिनेशन" के नाम से प्रकाशित है. आखिरकार 17 साल जेल में काटने के बाद 2003 में उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया गया. पिछले हफ्ते उनकी गिरफ्तारी का एक बेहद अफसोसनाक असर तब देखने को मिला, जब पुलिस ने हैदराबाद में उनकी बेटी और दामाद प्रोफेसर के सत्यनारायण के घर पर छापा मारा.
पुलिस ने बेटी से पूछा : "तुम्हारा पति दलित है, लेकिन तुम तो ब्राह्मण हो, फिर तुमने सिंदूर क्यों नहीं लगाया?" इतने ही बेहूदे सवाल प्रोफेसर से भी पूछे गए : "तुम माओ और मार्क्स से जुड़ी किताबें क्यों पढ़ते हो? ऐसा क्यों है कि तुम्हारे घर में फुले और अंबेडकर के फोटो तो लगे हैं, लेकिन किसी भगवान का कोई फोटो नहीं है?" पुलिस प्रोफेसर सत्यनारायण घर से वो तमाम कंप्यूटर हार्डडिस्क उठा ले गई, जिनमें उनका दो दशकों का साहित्यिक लेखन भरा था. दुर्भाग्य से वो उनका बैक-अप भी नहीं ले पाए.
इन तमाम जानेमाने बुद्धिजीवियों की पुणे पुलिस द्वारा सिलसिलेवार गिरफ्तारी तो मतिभ्रम यानी बौरायेपन की महज एक शुरुआत थी. पुलिस के पास दर्ज ओरिजिनल एफआईआर किसी तरह की पुलिस जांच पर आधारित नहीं थी, बल्कि वो एक दक्षिणपंथी कार्यकर्ता की तरफ से दर्ज कराई गई निजी शिकायत थी. उसमें इन पांच कथित "आरोपियों" में किसी एक का भी जिक्र तक नहीं था. इनमें से कोई भी शख्स उस बैठक में मौजूद नहीं था, जिसमें कथित तौर पर हिंसा भड़काने के लिए "एंटी-फासिस्ट फ्रंट" बनाने की साजिश रची गई थी. वैसे भी, ये सारी बातें 9 महीने पुरानी थीं. इनके विरोधियों का कहना है कि ये लोग प्रतिबंधित सीपीआई-माओवादी के "सक्रिय सदस्य" हैं, जो "पहले भी कई बार जेल भेजे जा चुके" हैं, लेकिन वो बड़ी चालाकी से ये तथ्य छिपा लेते हैं कि वो सभी आरोपों से बार-बार बरी भी होते रहे हैं !
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश इस बात से हैरान थे कि निचली अदालत के मजिस्ट्रेट्स ने उन मराठी दस्तावेजों के आधार पर गिरफ्तारी के आदेश कैसे दे दिए, जिन्हें वो समझते भी नहीं थे (और जिनका अंग्रेजी अनुवाद पुणे पुलिस ने कई हफ्तों का वक्त मिलने पर भी नहीं कराया था). सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सभी आरोपियों को पुलिस कस्टडी में नहीं, बल्कि उनके अपने घरों में ही नजरबंद रखा जाए.
लेकिन अब मतिभ्रम की ये बीमारी "आरोपियों" के घरों तक जा पहुंची. गौतम नवलखा और उनकी जीवनसाथी को रात में सोते समय बेडरूम का दरवाजा बंद करने से रोका गया. सुधा भारद्वाज को अपने घर में पांच महिला पुलिसकर्मियों को अपने साथ रहने की इजाजत देनी पड़ी. उन्हें बाजार से अंडे और सब्जियां जैसी "खुली चीजें" मंगाने से रोका गया; सिर्फ मैगी नूडल्स जैसे प्री-पैकेज्ड फूड लाने की छूट दी गई.
अगले ही दिन पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना के खिलाफ जाते हुए मीडिया ट्रायल शुरू कर दिया, जिसके तहत नेशनल टेलीविजन पर प्रसारित प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों को कुछ पत्र और दूसरे कथित "सबूत" दिखाए गए. सुधा भारद्वाज ने बड़ी मेहनत से अपने हाथ से लिखकर एक नोट तैयार किया, जिसमें उन्होंने अपने ऊपर लगाए गए हर आरोप का खंडन किया है, लेकिन पुलिस और प्रॉपगैंडा मीडिया का सर्कस बदस्तूर जारी रहा. ये बेतुकी बातों का फूहड़ प्रदर्शन था.
उस रात जब मैं सोने गया तो नींद में भी परेशान रहा. मैंने एक बुरा सपना देखा....
मेरी कार को बजरंग दल के युवा वॉलंटियर्स ने घेर लिया था, उनके गुस्से से तमतमाते चेहरे कार की विंडो से चिपके हुए थे, आंखें चमक रही थीं, नथुने फड़क रहे थे और विंडो के शीशे पर उनके घूंसे बरस रहे थे.
भीड़ : ऐ भ्रष्ट वामपंथी....तुम इतनी महंगी कार कैसे खरीद सकते हो?
मैं : वामपंथी ? हे भगवान, ये तुमसे किसने कह दिया ? मैं तो एक एंटरप्रेन्योर हूं. धन का सृजन मेरे लिए खुशी की बात है.
भीड़ : नहीं, हमारे सबसे बेहतरीन दक्षिणपंथी ट्रोल्स ट्विटर पर तुम्हें “गंदा वामपंथी” बताते हैं. उनकी बात हमारे लिए अंतिम सत्य है.
मैं : तुम जरूर कोई मजाक कर रहे हो. मैं कम्युनिज्म का घोर आलोचक हूं. मेरा मानना है कि वो एक विफल विचारधारा है. मैं ठीक से रेगुलेट किए गए फ्री मार्केट में यकीन रखता हूं. उद्योगों का गला घोंटने वाले सरकारी नियंत्रण से मुझे नफरत है. हमारी निजी जिंदगी में सरकार की दखलंदाजी मुझे सख्त नापसंद है. हां, मैं कमजोरों की रक्षा करने वाले मजबूत वेलफेयर स्टेट का जरूर हिमायती हूं. तुम वो लेख पढ़ो, जिसमें मैंने बताया है कि भारत की अर्थव्यवस्था को “अनमिक्स” करना क्यों जरूरी है. क्या इसमें तुम्हें किसी भी नजरिए से वामपंथी सिद्धांत दिखाई देता है?
भीड़ : ओह...बस भी करो..तुम एक “लिबटार्ड” हो...(ये गाली किसी ऐलान की तरह दी गई), हमने तुम्हारे लिबरल वीडियो देखे हैं, जिनमें मुसलमानों, समलैंगिकों का समर्थन किया गया है....
मैं : ओह...तो तुम मुझे इसलिए वामपंथी मानते हो, क्योंकि मैं एक लिबरल हूं? तुम दोनों को एक जैसा कैसे कह सकते हो? हां, मेरी सांस्कृतिक उदारता कुछ मामलों में वामपंथी विचारधारा से मिलती-जुलती हो सकती है, लेकिन याद रहे कि मैं उनकी आर्थिक सोच के बिलकुल खिलाफ हूं और उसे विकास विरोधी मानता हूं....
भीड़ (मेरी बात को रूखे ढंग से बीच में काटते हुए) : अगर तुम वामपंथ के इतना ही खिलाफ हो, तो तुम वामपंथी बुद्धिजीवियों के लेख क्यों प्रकाशित करते हो?
मैं : वो इसलिए क्योंकि मैं एक लिबरल हूं ! मैं तुमसे अहमत हो सकता हूं, लेकिन अपनी विचारधारा का बेरोकटोक प्रचार करने के तुम्हारे अधिकार का भी मैं पूरा समर्थन करूंगा. असहमत होने की आजादी तो लिबरलिज्म का बुनियादी उसूल है. एक समझदार संपादक होने के नाते, अपने विचारों को प्रकाशित करने के तुम्हारे अधिकार का मैं बचाव करूंगा, भले ही अपने लेखन में मैं उन विचारों की बेरहमी से धज्जियां उड़ा दूं. इसलिए, अगर तुम वाकई मुझे किसी एक “वाद” के खांचे में फिट करना ही चाहते हो, तो मैं एक “राइट ऑफ सेंटर लिबरल” हूं.
भीड़ : चुप कर बदमाश...”राइट” शब्द तो अपनी जुबान पर लाना भी मत...तुम हिंदू विरोधी हो. तुमने मुसलमानों को स्टॉक ऑप्शन दिए हैं.
मैं : बिलकुल दिए हैं. स्टॉक ऑप्शन मेरिट के आधार पर दिए जाते हैं, धर्म के आधार पर नहीं. मैंने जो सबसे पहला बिजनेस शुरू किया था, उसमें 5% हिस्सेदारी एक जानेमाने फिल्म-निर्माता और कैमरामैन को दी थी. अगर वो मुस्लिम थे, तो इससे क्या फर्क पड़ता है? जहां तक “हिंदू-विरोधी” होने की बात है, तुम ऐसा कैसे कह सकते हो ? पिछले 33 सालों के दौरान मैंने हर दिन हनुमान चालीसा का पाठ किया है. मैं हनुमान जी का पक्का भक्त हूं. हालांकि मैं ये भी मानता हूं कि अगर आपने जीवन में किसी भी धर्मग्रंथ का एक अक्षर भी नहीं पढ़ा, तो भी आप एक अच्छे हिंदू हो सकते हैं.
भीड़ (बढ़ते हुए गु्स्से के साथ) : होश में रहो मूर्ख...हमारे धर्मग्रंथों का अपमान मत करो...और तुम कभी किसी मंदिर में क्यों नहीं जाते? तुम नवरात्र में व्रत भी नहीं रखते, क्योंकि हमने तुम्हें उन पवित्र दिनों में भी हर तरह की अपवित्र चीजें खाते और पीते देखा है.
मैं : लेकिन ये कहां लिखा है कि मुझे अपनी धार्मिकता साबित करने के लिए किसी मंदिर में जाना ही होगा? किस धर्मग्रंथ में ऐसा लिखा है? भगवद्गीता में ? रामायण में ? खजुराहो मंदिर की दीवारों पर? ऐसा कहां लिखा है? मैं किसी मंदिर में इसलिए नहीं जाता क्योंकि एक शारीरिक परेशानी के कारण मैं जूते नहीं निकाल सकता. चूंकि मंदिर के पुजारी मुझे जूतों के साथ अंदर नहीं जाने देंगे, इसलिए मंदिर के गर्भ गृह में नहीं जाना ही मेरे लिए आसान विकल्प है....
और मैं ये भी बता दूं कि अगर मुझे शारीरिक परेशानी नहीं होती, तो भी शायद मैं कभी किसी मंदिर के भीतर नहीं गया होता. मुझे इसमें एतराज करने जैसी कोई बात नजर नहीं आती - अगर आपको किसी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या चर्च में जाना अच्छा लगता है, तो जरूर जाइए, और अगर अच्छा नहीं लगता, तो कोई परेशानी वाली बात नहीं. लेकिन मैं अपने भगवान से हर दिन प्रार्थना जरूर करता हूं. और हां, नवरात्र के दौरान मैं बड़ी खुशी से खाता-पीता हूं, क्योंकि मैं किसी कर्मकांड पर विश्वास नहीं करता. इसी तरह, मैं अपने विचार किसी पर थोपता भी नहीं हूं. मेरी मां, उन नौ दिनों में व्रत रखती हैं और मैं इसके लिए उनका सम्मान करता हूं. मैं व्रत या किसी तरह का परहेज नहीं रखता और उसके बावजूद वो मुझे बिना किसी शिकायत के प्यार करती हैं. हम दोनों लिबरल हैं.
भीड़ (जिसका पारा अब सातवें आसमान को छू रहा था) : तुम दिखावेबाज और गैर-धार्मिक हो; तुम “गैर-संस्कारी” बदमाश हो; तुम्हारी पत्नी ने शादी के बाद अपना नाम क्यों नहीं बदला?
मैं : तो, उसमें क्या गलत है ? उसकी अपनी शख्सियत और पहचान है, और उसकी इस बात पर मुझे गर्व है. यहां तक कि भगवान कृष्ण भी पुरुष और स्त्री के बीच पूरी समानता में यकीन रखते थे.…
भीड़ (जो अब तक पूरी तरह बेकाबू हो चुकी थी. उसने कार की विंडो तोड़कर मेरी और मेरे ड्राइवर की लिंचिंग शुरू कर दी थी) : क्या? तुम अब भगवान कृष्ण का अपमान कर रहे हो? तुम हनुमान जी का अपमान कर रहे हो? तुम भगवान राम को गाली दे रहे हो ? तुम्हें जिंदा रहने का कोई अधिकार नहीं है...ब्लडी अर्बन नक्सल....
मैं अचानक हड़बड़ाकर नींद से जागा तो पसीने से तरबतर हो चुका था, जैसे वो डरावने पंजे अब भी मेरी हड्डियों तक धंसकर मांस को शरीर से अलग देना चाहते हों. मुझे ये समझने में थोड़ा वक्त लग गया कि वो लिंचिंग असली नहीं थी और मैं एक डरावना सपना देख रहा था.
घबराहट दूर करने के लिए पानी पीते हुए उस भयानक रात के घनघोर अंधेरे में मैंने महसूस किया कि मेरा डरावना सपना एक मतिभ्रम था ! क्योंकि वो असल में कोई मतिभ्रम नहीं था. वो एक कड़वा सच था.
आज के भारत में, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप नास्तिक हैं या आस्तिक, कर्मयोगी हैं या कर्मकांडों का पालन करने वाले भक्त, वामपंथी हैं या लिबरल, व्रत रखने वाले हैं या मंदिर जाने वाले, या दोनों में कोई नहीं. अगर आप "उस भीड़" से सहमत नहीं हैं, तो भगवान ही आपकी रक्षा कर सकता है.
तब आप सिर्फ एक "अर्बन नक्सल" हैं.
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Published: 02 Sep 2018,02:40 PM IST