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हम इस फरवरी खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. हम यानी आम आदमी पार्टी (AAP) के मतदाता. हम AAP के मतदाता कभी नहीं थे. पर जिन फासिस्ट ताकतों को सत्ता से दूर रखने के लिए AAP को वोट दिया था, उसने पिछले दिनों बहुत निराश किया है. निराशा इस संशय से उपजी है कि क्या AAP, आम लोगों की पार्टी है. उसने दिल्ली के हालात पर कमोबेश चुप्पी साधी हुई है. उसके सभी बड़े नेता चुनाव से पहले बकायदा योजनाबद्ध तरीके से चुप रहे, अब भी यह कहने की हिम्मत नहीं दिखा रहे कि यह हिंसा और हमले स्वतःस्फूर्त नहीं. दिल्ली में जो गुंडई हो रही है, वह बकायदा योजनाबद्ध तरीके से की जा रही है.
दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले भी AAP चुप थी. देश के दूसरे हिस्सों की तरह राजधानी में भी जबरदस्त तरीके से सीएए, एनआरसी का विरोध हो रहा था. जामिया मिल्लिया इस्लामिया के भीतर पुलिस ने विद्यार्थियों के हाथ-पैर तोड़े. जेएनयू में खुलेआम हथियारबंद गिरोह ने लड़के-लड़कियों के सिर फोड़े. तबाही मचाई. शाहीन बाग समेत कई जगहों पर औरतें धरने पर बैठी रहीं. पर AAP ने रणनीतिक और राजनीतिक बाध्यता के कारण अपना पक्ष स्पष्ट नहीं किया.
पर पिछले तमाम चुनावों में साफ हुआ है कि जनता कई बार इसकी परवाह नहीं कि उसे रोजगार मिला है या नहीं, उसकी स्थिति सुधरी है या बदतर हुई है. लोग किन्हीं अन्य कारणों से भी किसी एक दल को सत्ता सौंपते हैं. पर AAP ने इन कारणों पर बात नहीं की. यही दुखद है. दुखद है कि AAP ने धर्मनिरपेक्षता का नाम नहीं लिया. बल्कि वह जताती रही कि वह अच्छे हिंदुओं की पार्टी है. पर क्या चुनावों की बहस सिर्फ अच्छे और बुरे हिंदू के बीच होनी चाहिए? क्योंकि चुनावी बहस सिर्फ उसी वक्त में कायम नहीं रहती. उसकी गूंज अगले पांच वर्षों में भी सुनाई देती है.
यही वजह है कि AAP के मतदाता के तौर पर हमें महसूस होता है कि हमारे साथ धोखा हुआ है. पिछले दो दिनों में दिल्ली सरकार की तरफ से ऐसा कोई ठोस प्रयास नहीं हुआ, जो यह साबित करे कि वह इस हिंसा के प्रति संवेदनशील है. उसके प्रवक्ता तमाम चैनलों पर दुहाई देते रहे कि सभी पक्षों को शांति और अमन कायम करना चाहिए.
बेशक, हम सब यह महसूस करते हैं और एक दूसरे से बोलते भी हैं. लेकिन अगर बड़े लोगों की जुबान से यह निकले तो तसल्ली होती है. भले बातूनीपन राजनीति का गुर है पर असली नेता सटीक बात करता है.
दिल्ली के नुमाइंदे पूछ सकते हैं कि हिंसा का सबसे ज्यादा ताकतवर हथियार किसके पास है? किसके पास वह संगठित ताकत है जो हिंसा कर सकती है. जब केंद्र में हुकूमत करने वाले दल के नेता पुलिस के सामने सड़कें खाली कराने की धमकी देते हों तो क्या यह पता लगाना मुश्किल है कि हिंसा का स्रोत कहां है. हम हताश हैं क्योंकि दिल्ली के दिल को जीतने का दावा करने वाले हिंसा को दोरफा मामले का रंग देने में मशगूल हैं. क्या ऐसा करने से उनकी जुबान का संतुलन लड़खड़ाता नहीं?
तकलीफ यही है कि AAP ने पिछले कई महीनों में लगातार चोर रास्ते खोजे हैं. पर उसे कायदे से जनता से संवाद करना चाहिए. घृणा की आग के बीच उसे दोनों समुदायों का विवेक जगाना चाहिए. उसे हिंदुओं से कहना चाहिए कि हिंसा किसी न्यायोचित ऐतिहासिक गुस्से की अभिव्यक्ति नहीं. उसे मुसलमानों से कहना चाहिए कि वे हिंदू भय के कारण शहर छोड़कर न जाएं.
यह उनका अपना शहर है. अगर AAP ऐसा नहीं करती तो कहना होगा कि चतुराई से हासिल की गई जीत, बेमानी होती है. 1922 की फरवरी में चौरा चौरी कांड के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को समाप्त कर दिया था. तब उन्होंने कहा था कि सिद्धांत को तिलांजलि देकर जीत हासिल करना कोई मायने नहीं रखता. क्या AAP राष्ट्रपिता के उस कथन को समझ पाएगी?
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Published: 27 Feb 2020,08:34 AM IST