ADVERTISEMENTREMOVE AD

अमूल्या को जेल: राजद्रोह कानून की आड़ में लोकतंत्र से हो रहा खेल

अंग्रेजी हुकूमत के समय 1870 में भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी में धारा 124ए जोड़कर राजद्रोह को अपराध बनाया गया था

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

जिस अमूल्या को राजद्रोह के मामले में न्यायिक हिरासत में भेजा गया है, वह पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही है. उसके दोस्तों ने अखबारों को बताया है कि अमूल्या फ्री स्पीच को लेकर बहुत संवेदनशील है. फ्री स्पीच और सेडिशन यानी राजद्रोह का परस्पर गहरा संबंध है. पिछले काफी समय से फ्री स्पीच को दबाने के लिए इस कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है. पर क्या दूसरे कई कानूनों की तरह सेडिशन के कानून को भी जन विरोधी कहा जा सकता है. जाहिर सी बात है, सवाल किसी व्यक्ति से हमदर्दी करने या उसका विरोध करने का नहीं, इंसाफ का है. साथ ही आज के संदर्भों में कानून की उपयोगिता का भी है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पुराना कानून क्यों न रद्द हो

सेडिशन या राजद्रोह का कानून बहुत पुराना है. अंग्रेजी हुकूमत के समय 1870 में भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी में धारा 124ए जोड़कर राजद्रोह को अपराध बनाया गया था. इसके अंतर्गत कोई जो भी बोले या लिखे गए शब्दों से, संकेतों से, या दूसरे तरीकों से घृणा या अवमानना पैदा करता है, या पैदा करने की कोशिश करता है, तो वह सजा का भागी होगा. दिलचस्प बात यह है कि भारत में इस कानून की नींव रखने वाले ब्रिटेन ने भी 2009 में अपने यहां राजद्रोह के कानून को खत्म कर दिया. ऐसा कई दूसरे कानूनों के साथ भी किया गया है. अप्रासंगिक होने वाले कानून रद्द किए गए हैं.

2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने एडल्ट्री को अपराध बनाने वाली आईपीसी की धारा 497 को असंवैधानिक करार दिया. समलैंगिकता को अपराध बनाने वाली धारा 377 खत्म हुई. पर राजद्रोह का कानून कायम है.

जो लोग इस कानून का विरोध करते हैं, उनकी सबसे बड़ी दलील यही है कि इसे अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता रहा है. ऐसे बहुत से लोग हैं, जिन पर राजद्रोह का मामला बनाया गया है. अमूल्या से पहले शरजील इमाम को गिरफ्तार किया गया. इससे पहले असमिया साहित्यकार डॉक्टर हिरेन गोहेन, पत्रकार मंजीत महंत और केएमएसएस नेता अखिल गोगोई के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया. मणिपुरी पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम पर भी सरकार के खिलाफ बयान देने पर राजद्रोह का मामला बनाया गया था. कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य पर कैंपस में देश को विखंडित करने वाले नारे लगाने का आरोप लगाकर राजद्रोह का मामला दर्ज हुआ.

0

लंबी न्यायिक प्रक्रिया ही असली सजा है

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2015 से अब तक राजद्रोह के कुल 191 मामले दर्ज हुए जिनमें से 43 मामलों में ट्रायल पूरे हुए और सिर्फ चार मामलों में दोष साबित किया जा सका. जैसा कि अंबेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली में लॉ प्रोफेसर और ऑल्टरवेटिव लॉ फोरम के संस्थापक लॉरेंस लियांग ने अपने आर्टिकल ‘सेडिशन एंड द स्टेटस ऑफ सबवर्सिव स्पीच इन इंडिया’ में कहा है, ‘राजद्रोह के अधिकतर मामलों में आरोपी के दोष को साबित करने पर ध्यान नहीं दिया जाता.

हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रकृति ऐसी है कि यह पूरी प्रक्रिया ही असल सजा साबित होती है.’ इसी से राजद्रोह का कानून जनविरोधी बन जाता होता है. ऐसा कानून जो जनता को यथास्थिति में रखने की कोशिश करता है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

लोकतंत्र में विरोध अपवाद नहीं, मानक और आदर्श होना चाहिए

सबसे पहले तो जिसे राजद्रोह कहा जाता है, वह देशद्रोह नहीं है. सेडिशन का असल मतलब राजद्रोह है- राज यानी सरकार की सत्ता. उसका विरोध करने वाले राजद्रोही कहलाते हैं पर सरकार का विरोध करना विपक्ष का मुख्य कार्य है. 1950 से पहले संविधान सभा में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जैसे कानून विशेषज्ञ और राजनेता ने इस धारा पर कहा था कि राजद्रोह को अपराध बनाने से तमाम मुश्किलें होंगी. जनतंत्र में कई दल होते हैं और सत्ता से बाहर रहने वाले दलों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे जनता में अभी की सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा करें और उसे संगठित करें. अगर विपक्ष यह काम नहीं करेगा और जनता के सामने सत्ताधारी दल की आलोचना नहीं करेगा तो जनतंत्र का क्या अर्थ यह जाएगा.

अभी हो यह रहा है कि सरकार राजद्रोह के मामलों के जरिए जनता के सामने यह विचार रख रही है कि उसका विरोध करना खराब है. इसे जन चेतना का हिस्सा बनाया जा रहा है. विरोध को अपवाद बनाने की कोशिश कर रही है. जबकि लोकतंत्र में यह एक मानक और आदर्श होना चाहिए. इसी विपक्ष के जरिए सत्ता बदलती है. वरना जनता हमेशा यथास्थिति में रहने को मजबूर होती है. और सत्ताधारी अपनी ताकत इकट्ठा और संगठित करता है.

हम इसे मशहूर इटैलियन वैज्ञानिक गैलीलियो गैलिली के उदाहरण से भी समझ सकते हैं. सत्रहवीं शताब्दी में जब गैलीलियो ने कहा कि सूर्य पृथ्वी की नहीं, पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है तो उसे चर्च के क्रोध का शिकार होना पड़ा. चर्च ने गैलीलियो को धार्मिक मान्यताओं का विरोधी बताया. उसे आजीवन गृह कैद यानी अपने घर में रहने की सजा दी गई. उन दिनों यूरोप में चर्च सबसे बड़ा भूस्वामी था, राजनीतिक गलियारों में उसकी तूती बोलती थी. गैलीलियो उसी का विरोध कर रहा था. इसीलिए यह सत्ताधारी के हित में है कि विरोध को समाप्त किया जाए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

राजद्रोह का कानून और अभिव्यक्ति की आजादी

विरोध को दबाना ही अभिव्यक्ति की आजादी को दबाना है. यहां अपने देश में ऐसे कितने ही मामले हुए हैं जब सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई दी है. बिहार के केदारनाथ सिंह मामले और दिल्ली के बलवंत सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बारे में अधिकतर लोग जानते ही हैं. तब सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कहा था कि राजद्रोह के मामले में लोगों को दंडित तभी किया जाएगा जब उनकी वजह से किसी तरह की हिंसा पैदा होती है. अभिव्यक्ति की आजादी के कई मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपी के पक्ष में फैसला सुनाया है. श्रेया सिंघल वाले मशहूर 66 ए फैसले में अदालत ने कहा था कि

एडवोकेसी यानी पक्ष समर्थन करने और उत्तेजना फैलाने में फर्क होता है. सिर्फ उत्तेजना फैलाने पर ही सजा दी जा सकती है. यूं जिस अमेरिका के प्रति हमारा असीम स्नेह जब-तब प्रदर्शित होता है, वहां की सुप्रीम कोर्ट भी 1969 में एक ऐतिहासिक फैसला सुना चुकी है. मशहूर ब्रैडेनबर्ग बनाम ओहायो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तब कहा था कि हिंसा को उकसाने वाली राजद्रोही किस्म की अभिव्यक्ति को भी अमेरिकी संविधान के प्रथम संशोधन के अंतर्गत तब तक संरक्षण प्राप्त है, जब तक वह निकटस्थ संकट का संकेत न दे. निकटस्थ यानी जल्द होने वाले संकट. अमेरिकी संविधान का प्रथम संशोधन अभिव्यक्ति की आजादी की बात करता है.

1933 में प्रेमचंद ने ‘जर्मनी का भविष्य’ नामक टिप्पणी में विपक्ष के खत्म होने पर चिंता जताई थी. उनका कहना था कि वर्गवादियों को जेल भेजकर, विरोधियों को पिटवाकर अगर चुनाव कराए जाएं और उसकी जीत का जश्न मनाया जाए तो यह राष्ट्रमत की विजय नहीं हो सकती. भले आप उस टिप्पणी को आज के समय पर लागू न करें, फिर भी प्रेमचंद इस बात पर ध्यान जरूर दिलाते हैं कि विपक्ष का जोर-जबरदस्ती सफाया करना अच्छा संकेत नहीं. वह अपने वक्त की दुनिया के आर-पार देख रहे थे. हमें भी अपने वक्त में वही तीखी निगाह रखनी चाहिए और बहस करनी चाहिए कि राजद्रोह का कानून क्या जनविरोधी है?

यह भी पढ़ें: ओवैसी की रैली में पाक के नारे लगाने वाली लड़की पर राजद्रोह केस

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×