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भारत को अपना पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिल गया है. बहु-प्रत्याशित परिणाम देखने को मिला, जिसमें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू ने यशवंत सिन्हा को हराया. सिन्हा को विपक्ष के एक वर्ग का समर्थन प्राप्त था. राष्ट्रपति चुनाव में जहां मुर्मू को 64 फीसदी वोट प्राप्त हुए वहीं सिन्हा के पक्ष में 36 फीसदी वोट पड़े. आंकड़ों को देखें तो मुर्मू निवर्तमान राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के वोट शेयर (65.65%) की तुलना में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाईं.
राष्ट्रपति चुनाव का जो परिणाम आया है वह विपक्षी एकता की कमजोरियों को दर्शाता है, क्योंकि झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) जैसी कुछ पार्टियों ने यूटर्न लेते हुए सिन्हा की बजाय मुर्मू को वोट दिया, जबकि इन पार्टियों ने पहले सिन्हा की उम्मीदवारी का समर्थन किया था. सिन्हा का नाम देने वाले यानी कि कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस (TMC) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) फेंस-सिटर्स यानी कि तटस्थ या किसी भी उम्मीदवार के प्रति अप्रतिबद्ध पार्टियों जैसे कुछ नाम तेलुगु देशम पार्टी (TDP), बहुजन समाज पार्टी (BSP), शिरोमणि अकाली दल (SAD), बीजू जनता दल (BJD) और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (YSRCP) से समर्थन जुटाने असमर्थ रहीं.
जहां एक तरफ एनडीए खेमे की तरफ से कोई क्रॉस वोटिंग नहीं हुई है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस, एसपी और एनसीपी के कुछ विधायकों ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी कि उन्होंने यशवंत सिन्हा के बजाय द्रौपदी मुर्मू को वोट दिया.
रिपोर्ट्स के मुताबिक तीसरे चरण के मतदान तक मुर्मू के लिए 17 सांसदों और 104 विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की थी.
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए जहां बीजेपी नए नेताओं को सामने लेकर आई, वहीं विपक्ष ने आजमाए हुए, परखे हुए और असफल उम्मीदवारों को मैदान पर उतारा.
क्रॉस वोटिंग की आशंका थी क्योंकि कई महिला सांसद/विधायक (खासतौर पर विपक्ष की टिकट पर जिन्होंने एसटी-आरक्षित सीटों पर जीत दर्ज की थी) इस दुविधा में फंस गईं कि किसे समर्थन दें. कुछ ऐसी ही उधेड़बुन उन राज्यों के कई मतदाताओं के बीच में भी थी जहां एसटी यानी अनुसूचित जनजाति की आबादी काफी ज्यादा है.
यह परिणाम विपक्षी एकता की कमजोरियों को उजागर करता है. क्षेत्रीय शासकों या क्षत्रपों के लिए क्षेत्रीय मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, जिसकी वजह से संयुक्त विपक्षी उम्मीदवारों की जीत लगभग असंभव हो जाती है.
बीजेपी ने एक महिला और आदिवासी उम्मीदवार की घोषणा की, जिसकी वजह से अधिकांश फेंस-सिटर्स के लिए उम्मीदवार का विरोध करना मुश्किल हो गया. ऐसे में रणनीतिक तौर पर विपक्ष यह देखने के लिए रुक सकता था कि बीजेपी अपने उम्मीदवार के तौर पर किसे सामने ला रही है और इसके बाद विपक्ष अपनी कार्यवाही को अंतिम रूप दे सकता था.
इस तरह, ऐसा करते हुए विपक्ष महिलाओं और आदिवासी मतदाताओं के नुकसान से बच सकता था, हो सकता है कि एक वर्ग को विपक्ष का यह रवैया पसंद न आए कि उन्होंने उसके समुदाय के उम्मीदवार के खिलाफ किसी को कैंडिडेट को खड़ा दिया. इस तथ्य के बावजूद कि बीजेपी ने विपक्ष से चर्चा के लिए और आम सहमति के उम्मीदवार को सुनिश्चित करने के लिए संपर्क नहीं किया, फिर भी मुर्मू का समर्थन करके विपक्ष को उच्च नैतिक आधार भी मिल सकता था.
4,809 सांसद और विधायक निर्वाचक मंडल में शामिल थे. वोटों का कुल मूल्य 10.86 लाख था. हालांकि 11 जगहें रिक्त थी और 44 सांसद/विधायक मतदान के दौरान अनुपस्थित थे. इसके बावजूद भी राष्ट्रपति चुनाव में 99.1 फीसदी के साथ भारी मतदान हुआ. वहीं रिक्तियों और अनुपस्थितियों की वजह से वोटों का कुल मूल्य घटकर 10.72 लाख हो गया था.
निर्वाचक मंडल की संख्या के आधार पर, मुर्मू को एनडीए की तरफ से 49.5 फीसदी मतदाताओं का समर्थन प्राप्त था. वहीं बीजेडी, वाईएसआरसीपी, शिवसेना, जेएमएम, टीडीपी, बीएसपी, शिरोमणि अकाली दल जैसी अन्य पार्टियों की मदद से उन्हें अन्य 11.5 फीसदी वोटरों का समर्थन प्राप्त था. इस प्रकार उन्हें 61.1 फीसदी वोटर्स का समर्थन प्राप्त था. वहीं दूसरी ओर ऐसी उम्मीद थी कि 38.9 फीसदी वोटर सिन्हा का समर्थन करेंगे. इनमें कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए गठबंधन और टीएमसी, समाजवादी पार्टी (एसपी), आम आदमी पार्टी (AAP), तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (सीपीआई-एम) जैसी बीजेपी / एनडीए विरोधी पार्टियां शामिल थीं.
राष्ट्रपति चुनाव के दौरान पार्टियों को व्हिप जारी करने की अनुमति नहीं होती है. इस चुनाव में सांसद/विधायक स्व-विवेक यानी कि अंतःकरण के आधार पर वोटिंग करने के लिए स्वतंत्र होते हैं. इसी वजह से आम तौर पर क्रॉस वोटिंग होती है. जीत के लिए संख्या बल न होने की वजह से सिन्हा ने खुले तौर पर सांसदों/विधायकों से लोकतंत्र को बचाने के लिए स्व-विवेक से वोट डालने का आग्रह किया था. जहां एक ओर एनडीए खेमे की तरफ से कोई क्रॉस-वोटिंग नहीं हुई, वहीं कांग्रेस (ओडिशा), एसपी (उत्तर प्रदेश) और एनसीपी (गुजरात और झारखंड) के कुछ विधायकों ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की थी कि उन्होंने सिन्हा के बजाय मुर्मू को अपना वोट दिया.
रिपोर्ट्स के मुताबिक तीसरे दौर के मतदान तक मुर्मू के लिए 17 सांसदों और 104 विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की थी. भारत के पहले आदिवासी राष्ट्रपति के लिए असम में 22, छत्तीसगढ़ में 6, झारखंड में 10, मध्य प्रदेश में 19, महाराष्ट्र में 16, गुजरात में 10, अरुणाचल में एक, बिहार में 6, गोवा में 4, हरियाणा में एक, हिमाचल में 3 विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की थी. इन वोटर्स द्वारा मुर्मू को चुनने की वजह से स्पष्ट तौर पर विपक्ष की गणित को विफल कर दिया.
क्रॉस वोटिंग की आशंका थी, क्योंकि कई महिला सांसद/विधायक (खासतौर पर विपक्ष की टिकट पर जिन्होंने एसटी-आरक्षित सीटों पर जीत दर्ज की थी) इस दुविधा में फंस गईं थीं कि वे किसका समर्थन करें. इसके साथ ही पूर्वोत्तर और अन्य राज्यों (जहां एसटी यानी अनुसूचित जनजाति की आबादी काफी ज्यादा है) जैसे झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और मध्य प्रदेश में विपक्ष के कुछ निर्वाचित प्रतिनिधियों से भी यह उम्मीद की गई थी कि वे मुर्मू का समर्थन करेंगे.
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए जहां बीजेपी नए नेताओं को सामने लेकर आई, वहीं विपक्ष ने आजमाए हुए, परखे हुए और असफल उम्मीदवारों को मैदान पर उतारा. जिस देश में 60 फीसदी आबादी 35 साल से कम उम्र की है, वहां विपक्ष राष्ट्रपति चुनाव में 84 वर्षीय शख्स को मैदान पर लेकर आया.
मुर्मू को 64 फीसदी वोट (+2.9 फीसदी) मिले, जबकि सिन्हा को 36 फीसदी वोट (-2.9 फीसदी) मिले. यह दर्शाता है कि निर्वाचक मंडल में 2.9% वोट लायक मतदाताओं ने मुर्मू के पक्ष में क्रॉस वोट किया.
बीजेपी को उम्मीद है कि मुर्मू को भारत का राष्ट्रपति बनाकर वह एसटी समुदाय के वोटों को और ज्यादा मजबूती से साधेगी. बीजेपी ने 2017 में राम नाथ कोविंद को राष्ट्रपति चुना, जोकि एससी समुदाय से थे. 2019 आम चुनावों में समुदाय के सपोर्ट की बात करें तो यह समर्थन बीजेपी के पक्ष में 10 फीसदी (2014 में 24% के मुकाबले 2019 में 34%) बढ़ गया.
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के मुताबिक 2019 के आम चुनाव में बीजेपी को एसटी से 38% समर्थन मिला था. वहीं अब मुर्मू को राष्ट्रपति के तौर पर नियुक्त करके बीजेपी को आधे रास्ते तक पहुंचने की उम्मीद है.
टीएमसी ने घोषणा की है कि वह इस चुनाव में वोट नहीं देगी और न ही कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन करेगी. इससे तेजी से साफ होता जा रहा है कि मोदी के विरोध (एंटी मोदी) में बनी विपक्षी 'एकता' एक मिथक है. क्षेत्रीय शासकों या क्षत्रपों के लिए क्षेत्रीय फैक्टर ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं, जिसकी वजह से ऐसे चुनावों में संयुक्त विपक्षी उम्मीदवारों के लिए जीत हासिल करना लगभग असंभव हो जाता है.
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