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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक ब्रैंड को स्थापित करने में दिल्ली यूनिवर्सिटी (डीयू) का बेमिसाल योगदान रहा है. 2014 की जबरदस्त चुनावी जीत के लिए उनकी रेस 6 फरवरी 2013 को डीयू के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से ही शुरू हुई थी.
कॉलेज का ऑडिटोरियम विकास के गुजरात मॉडल पर उनका भाषण सुनने के लिए बेकरार छात्रों से खचाखच भरा था. तमाम प्राइवेट टीवी चैनल देश भर में करोड़ों दर्शकों तक कार्यक्रम का लाइव प्रसारण करने को तैयार थे.
गुजरात के मुख्यमंत्री अपने इस कार्यक्रम से पहले काफी नर्वस लग रहे थे. लेकिन क्यों? वो इसलिए क्योंकि मोदी को अंग्रेजी में हाथ तंग होने को लेकर झिझक महसूस होती थी. उन्हें डर था कि कहीं दिल्ली के तेज-तर्रार और इलीट छात्र उनका मजाक न उड़ाने लगें. फिर भी उन्होंने करीब 75 मिनट तक हिंदी में जोश से भरा हुआ भाषण दिया-
उनका ये जोशीला भाषण ऐसे शब्दों से भरा था, जो भविष्य में उनके असाधारण चुनाव प्रचार के दौरान उनका ट्रेडमार्क बनने वाले थे: विकास (20 बार), चुनौती (16 बार), युवा (15 बार), ग्रोथ (12 बार) और मित्रों या दोस्तों (180 बार) !
भाषण के अंत में वहां मौजूद दो हजार छात्रों ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया, तालियों की कभी न थमने वाली गड़गड़ाहट सारे देश में गूंज रही थी. इस शानदार स्वागत से खुद मोदी भी सुखद आश्चर्य से भर गए थे. तभी एक बात उनके मन में कौंध गई : आशाओं, आकांक्षाओं, युवाओं और विकास, विकास और ज्यादा विकास- के मंत्र की इस लहर पर सवार होकर वो अगले साल पूरे देश की बाजी जीत सकते हैं. उनके समर्थकों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि वो हिंदी में बोलते हैं या अंग्रेजी में. उनकी राजनीतिक अपील गहरी है, दिखावटी नहीं. उसी दिन एक नए प्रधानमंत्री का जन्म हुआ. डीयू में.
इसके अलावा चार और वजहें भी हैं, जो डीयू को, और वहां जो कुछ होता है उसे, मोदी और बीजेपी के लिए अहम बना देती हैं :
ऊपर जिन वजहों का जिक्र हुआ है, उन पर गौर करें तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि DUSU चुनाव के वोट शेयर के आंकड़े देश के राजनीतिक मूड का महत्वपूर्ण संकेत दे सकते हैं.
हालांकि मैं ये भी मानता हूं कि सेफोलॉजी के लिहाज से इन चुनावों को कोई वैज्ञानिक सैंपल नहीं माना जा सकता, इसलिए इन आंकड़ों के आधार पर एनडीए या यूपीए की हार-जीत की भविष्यवाणी करना बेवकूफी भरा काम होगा. लेकिन क्या इन आंकड़ों से हम 2019 की चुनावी जंग के बारे में कुछ ठोस अनुमान लगा सकते हैं? बिलकुल !
अब आते हैं अगले महत्वपूर्ण सवाल पर:
यहां मैं आंकड़ों के उस विश्लेषण की याद दिलाना चाहूंगा, जो हमने दिसंबर 2017 के गुजरात चुनाव के बाद हुए उप-चुनावों के बारे में किया था. उप-चुनावों का वो आंकड़ा "हालात की वजह से अपने आप ही रैंडम" हो गया था, क्योंकि चुने हुए प्रतिनिधियों के निधन या उनके इस्तीफा देने में किसी सिस्टम आधारित पक्षपात की गुंजाइश ही नहीं होती.
ये हमारा "रियल वर्ल्ड सैंपल" है, जिसमें 15 राज्यों में फैले 10 संसदीय और 21 विधानसभा क्षेत्रों के 1.25 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं ने तकरीबन 19 राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों के लिए मतदान किया था.
दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्रसंघ के चुनावी आंकड़ों और उप-चुनाव में हुए मतदान के असली आंकड़े लगभग पूरी तरह एक जैसे हैं.
इन आंकड़ों को देखने के बाद हम काफी भरोसे के साथ कह सकते हैं कि देश भर में एनडीए के वोट 36 फीसद, यूपीए के वोट 32 फीसद, बीजेपी-विरोधी क्षेत्रीय दलों के वोट 14 फीसद और अन्य वोट 18 फीसदी के आसपास स्थिर हो रहे हैं.
लेकिन रुकिए....ऐसा विश्लेषण करने पर मोदी-समर्थक विशेषज्ञ मुझे हमेशा याद दिलाते हैं कि मैं एक महत्वपूर्ण (या अप्रत्याशित) पहलू की अनदेखी कर रहा हूं, और वो हैं खुद मोदी. उनकी दलील होती है (जिससे इनकार भी नहीं किया जा सकता) कि ये तमाम आंकड़े तब के हैं, जब मोदी खुद उम्मीदवार नहीं थे. वो जोर देकर कहते हैं, और ये बात तर्कसंगत भी है, कि मोदी में वो चुंबकीय आकर्षण है, जिसके चलते लोग सिर्फ उन्हें वोट देने के लिए घर से निकलते हैं. इसमें बीजेपी, आरएसएस या किसी और फैक्टर का कोई हाथ नहीं होता.
मैं ये दलील मानने को तैयार हूं. ये "मोदी इफेक्ट" है. यानी अगर मोदी खुद चुनाव मैदान में हैं, तो कई लोग उन्हें ही वोट देंगे, भले ही दूसरे चुनावों में वो गैर-बीजेपी पार्टियों को वोट दे चुके हों.
तो क्या कोई ऐसा उपाय है, जिससे हम इस "मोदी इफेक्ट" को नाप सकें? हां, इसका उपाय है:
मोदी से पहले बीजेपी को सबसे ज्यादा 25.59 फीसद वोट 1998 के आम चुनाव में मिले थे. तो चलिए इसे "कोर बीजेपी वोट" मान लेते हैं. अब मोदी के समर्थन में उदारता के साथ अनुमान लगाने के लिए (हां ट्रोल्स, हम ऐसा भी करते हैं!) ये भी मान लेते हैं कि इस "कोर बीजेपी वोट" में मोदी के आने तक कोई बढ़ोतरी नहीं हुई थी. 2014 में मोदी के आने के बाद बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर 31.34 फीसद वोट मिले थे. इसलिए हम कह सकते हैं कि मोदी ने सिर्फ अपने दम पर बीजेपी के वोट में 5.75 percentage points इजाफा किया.
चलिए अब मोदी के समर्थन में एक और उदारता भरा अनुमान लगाते हैं (हां ट्रोल्स, हम ऐसा दोबारा भी कर सकते हैं !) हम ये भी मान लेते हैं कि मोदी के असर वाले वोट अब भी 5.75 प्रतिशत हैं, हालांकि मोदी की अप्रूवल रेटिंग 2014 के 75 प्रतिशत से गिरकर 2018 में करीब 50-55 प्रतिशत रह गई है. आंकड़ों का विज्ञान कहता है कि हमें मोदी के प्रभाव वाले वोटों के प्रतिशत में करीब 4 फीसद की कटौती कर देनी चाहिए, लेकिन ट्रोल्स की भावनाओं का ख्याल रखते हुए हम इसे 5.75 प्रतिशत ही बनाए रखते हैं.
इन आंकड़ों के आधार पर हमारा अंतिम विश्लेषण कुछ ऐसा होगा :
तो इन हालात में जीत किसकी होगी ? जरा पता तो लगाइए.
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