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आर्थिक नीतियों के लिए यह बेवकूफियों का मौसम है. कुछ लोग कह सकते हैं कि मौसम तो पांच साल से ऐसा ही है. खैर जो भी हो, हमारे देश में इन दिनों कैसी आर्थिक सलाह दी जा रही है, उसका जायजा लेने का यह सही मौका है. इसके लिए यह भी देखना होगा कि देश में अर्थशास्त्री कैसे हैं. जैसे ही आप इस सवाल पर गौर करेंगे, हैरान रह जाएंगे.
हमारी समस्या यह है कि भारत में मैक्रो-इकनॉमिस्ट भरे पड़े हैं, जबकि माइक्रो-इकनॉमिस्टों की संख्या बहुत कम है. मैंने जेट एयरवेज के बंद होने और एविएशन बिजनेस के संदर्भ में कुछ हफ्ते पहले जो लेख लिखा था, उसमें भी इस ओर ध्यान दिलाया था. देश में सिर्फ तीन ट्रांसपोर्ट इकनॉमिस्ट हैं.
यह इकलौती समस्या नहीं है. इस पेशे को 40 साल पहले जब से ‘आंकड़ों के कीड़े’ ने काटा, तब से बहुत कम भारतीय अर्थशास्त्री इकनॉमिक थ्योरी या इकनॉमिक हिस्ट्री के जानने की गरज समझते हैं. जब भी इनकी बात होती है, वे हिकारत के साथ कहते हैं, ‘अरे, आंकड़े कहां हैं जनाब.’ कहने का मतलब यह है कि अगर आंकड़े नहीं हैं तो कोई अर्थशास्त्री बहुत दूर की नहीं सोच सकता.
परेशान करने वाली एक बात यह भी है कि 1970 के दशक के मध्य तक अर्थशास्त्र को लेकर जैसा विश्लेषण दिखता था, उसका आज नामोनिशान तक नहीं है. यह बात इसलिए भी चौंकाने वाली है क्योंकि अर्थशास्त्र के लिए ज्यादातर ‘नोबेल’ प्राइज सिद्धांतकारों को मिले हैं. अगर आप गहराई से पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि मैक्रो-इकनॉमिस्टों में भी ऐसे लोग गिने-चुने हैं, जिन्हें इकनॉमेट्रिक्स की ट्रेनिंग मिली है. बाकी तो बस सॉफ्टवेयर से काम चला रहे हैं.
नए वकील भी इन दिनों इसी फॉर्मूले पर चल रहे हैं. अगला नंबर शायद डॉक्टरों का हो. चार्टर्ड एकाउंटेंट्स तो बहुत पहले से सॉफ्टवेयर के भरोसे चल रहे हैं. यह दुखद कहानी यहीं खत्म नहीं होती. हमारे पास ऐसे अर्थशास्त्री भी नहीं हैं, जिनके पास लॉ और इकनॉमिक्स के बेहद असरदार क्षेत्र में स्पेशलाइजेशन हो. यह काम भी चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के भरोसे छोड़ दिया गया है, जो सिर्फ वित्त विधेयक में सिर खपाते हैं और फिर ‘आर्थिक-वित्तीय फतवे’ जारी करते हैं. जहां तक अर्थशास्त्र की छोटी बहन समाजशास्त्र की बात है, उसके हाल के बारे में तो सोचकर ही डर लगता है. देश के अर्थशास्त्री खुद पर सोशियोलॉजी जैसी ओछी चीज का दाग नहीं लगाना चाहते.
देश में फल-फूल रहा है तो सिर्फ मॉनिटरी यानी मौद्रिक अर्थशास्त्र. जब से भारत में विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) आना शुरू हुए, मौद्रिक अर्थशास्त्री ऐसे पनपे, जैसे केरल में केला पनपता है. इसके लिए सिर्फ आपको एक शब्द यानी यील्ड की जानकारी होनी चाहिए. बाकी तो सब आंकड़ों का मामला है. देश में फाइनेंशियल मार्केट्स को लेकर जितनी चर्चा होती है, उससे आपको भ्रम हो सकता है कि हम शायद वॉल स्ट्रीट के ‘तोप’ हैं. सरकारी घाटे को लेकर जितनी चर्चा होती है, उसे देखते हुए पब्लिक फाइनेंस स्पेशलिस्टों का नहीं होना भी हैरान करता है. मुझे संदेह है कि शायद हमारी यूनिवर्सिटी में पब्लिक फाइनेंस अब पढ़ाया भी नहीं जाता होगा. बस, हर इंसान शिद्दत से बजट का तिया-पांचा करने में व्यस्त है.
इंडस्ट्रियल इकनॉमिक्स भी एक क्षेत्र है, जिसे तीन दशक पहले देश के कुछ अर्थशास्त्रियों ने डेवलप करने की कोशिश की थी. इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला. इसके लिए आंकड़ों की कमी नहीं थी, लेकिन जितने श्रम और धीरज की जरूरत थी, शायद उसकी कमी रह गई. इसका असर यह हुआ कि देश की औद्योगिक नीति इंटेलेक्चुअल खालीपन के बीच नेताओं और नौकरशाह बनाने लगे. दिलचस्प बात यह है कि इन लोगों के पास बायोलॉजी, जूलॉजी और जियोलॉजी की डिग्रियां होती हैं.
कृषि क्षेत्र के पर्याप्त आंकड़े हैं, इसलिए वे भी ज्ञान बघारने से नहीं चूकते और मिनिमम सपोर्ट प्राइस (एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य) को लेकर सबसे ज्यादा हो-हल्ला करते हैं. अंतराष्ट्रीय व्यापार में भी यही स्थिति है. इसके आंकड़े दुनिया जुटाती है और हमारे ‘छोकरे’ इस आधार पर बड़ी-बड़ी छोड़ते हैं, जबकि उन्हें इंडस्ट्रियल इकनॉमिक्स का क, ख, ग... तक नहीं पता होता. मुझे लगता है कि अगर आप अच्छे ट्रेड इकनॉमिस्ट बनना चाहते हैं तो कम से कम इंडस्ट्रियल इकनॉमिक्स की जानकारी तो होनी ही चाहिए.
सस्टेनेबिलिटी और एनवायरमेंट इकनॉमिक्स की बात तो रहने ही दीजिए. अव्वल तो इन्हें पढ़ाया ही बहुत कम जगहों पर जाता है. इनके बहुत कम जानकार हैं, जो काम की बातें करते हैं और जिनका इस्तेमाल स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर हो सकता है. किसी भी सेमिनार में जाइए और आपको वही चेहरे कार्बन एमिशन पर ज्ञान उड़ेलते हुए दिख जाएंगे.
क्या आप जानते हैं कि कितनी यूनिवर्सिटी अर्बन इकनॉमिक्स पढ़ाती हैं? आप कितने अर्थशास्त्रियों को जानते हैं, जिनके पास इस फील्ड में स्पेशलाइजेशन है? भारत में बेतरतीब शहरीकरण हो रहा है. इसलिए हमें इन अर्थशास्त्रियों की वैसे ही जरूरत है, जैसे सूअरों को कीचड़ की जरूरत होती है.
इन क्षेत्रों में जो रिसर्च छप रही है, उसे देखकर भी आपको पता चल जाएगा कि जानकारों की कमी किस हद तक है.
आखिर देश में ऐसे दो या तीन जर्नल्स ही क्यों हैं, जिनमें ऐसी रिसर्च को प्रकाशित कराना ठीक माना जाता है. यही कारण है कि ‘इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ हमारी यूनिवर्सिटी का मान्य विकल्प बन गई है. इन सबका नतीजा यह है कि हमें एनआरआई अर्थशास्त्रियों को ‘इंपोर्ट’ करना पड़ता है. इनमें इक्का-दुक्का को छोड़ दें तो बाकी साधारण योग्यता रखते हैं. यह चाइनीज प्रॉडक्ट्स खरीदने जैसा है, लेकिन याद रखिए कि उसमें जर्मन इंजीनियरिंग का इस्तेमाल नहीं हुआ है.
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Published: 09 May 2019,12:09 PM IST