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दुनिया भर में बढ़ती मनी लॉन्ड्रिंग (Money Laundering) से जुड़ी गतिविधियों की रोकथाम के लिए साल 2002 में धन शोधन और हवाला कानून (PMLA) आया. इस कानून के जरिए भारत ने अपने अंतरर्राष्ट्रीय दायित्व को भी निभाया. 1990 और 1998 में संयुक्त राष्ट्र (UN) महासभा की तरफ से एक डिक्लेरेशन और वैश्विक एक्शन प्लान लाया गया था, इसी क्रम में ये भारत की तरफ से बनाया गया कानून था.
मूल रूप से तो UN का ये प्रोग्राम अवैध ड्रग तस्करी और नशीली दवाओं के दुरुपयोग के रोकथाम के लिए लाया गया था पर इसके कुछ विशेष प्रस्तावों में धनशोधन को लेकर कानून बनाने से जुड़े संकल्प थे.
कानून का शुरुआती रूप इसके वर्तमान स्वरूप की तुलना में काफी अलग था. फिर संशोधन होने शुरू हुए. सबसे बड़े संशोधन 2012 और 2019 में हुए. इन संशोधनों ने वक्त के साथ PMLA को अत्यधिक कठोर, दमनकारी और ऐसा बना दिया जिसके दुरुपयोग की संभावना बढ़ गई.
अधिनियम कुछ ऐसा है कि यह प्रवर्तन निदेशालय (ED) को बुनियादी नागरिक स्वतंत्रता के लिए या सुरक्षा उपायों को दरकिनार करने की अनुमति देता है. नतीजा ये होता है कि इससे वास्तविक व्यवसायों और संस्थानों के कामकाज को भी ठप किया जा सकता है.
सीधे शब्दों में 'मनी लॉन्ड्रिंग' अर्थ नाजायज धन या अवैध/नाजायज स्रोतों से प्राप्त धन को वैध बनाना होता है. ऐसे धन को वैध फाइनेंशियल सिस्टम में डालकर इसे व्हाइट मनी में बदला जाता है.
हालांकि, PMLA कानून में अपराध की परिभाषा को बेहद व्यापक बना दिया गया है. इसका उद्देश्य मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़े किसी भी व्यक्ति या कंपनी को पकड़ने और मुकदमा चलाने का है, जो अवैध पैसे को व्हाइट मनी में बदलने की कोशिश करता है.
अब, PMLA की अनुसूची में बताए गए अपराध के अस्तित्व और कथित कमीशन के बिना मनी लॉन्ड्रिंग स्वतंत्र रूप से नहीं हो सकती. इसे "अनुसूची में शामिल अपराध" कहा जाता है. इस अनुसूची के तहत कई अपराधों को शामिल किया गया है. कुछ ऐसे अपराध भी शामिल किए गए हैं, जिनका कहीं ना कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उद्देश्य है PMLA को अधिनियमित करना.
अनुसूची में कई ऐसे अपराध भी शामिल हैं, जो कानून के मूल उद्देश्य के लिहाज से बिल्कुल अप्रासंगिक हैं. जैसे वायु और जल प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण, वन्यजीवन सहित कई पर्यावरण कानूनों के तहत अपराध संरक्षण अधिनियम, जैविक विविधता अधिनियम. इन सभी अपराधों का उस उद्देश्य से कोई संबंध नहीं, जिनके लिए ये कानून बनाया गया था.
ED उन सभी असीमित शक्तियों का उपयोग करती है, जो उसे अधिनियम के जरिए दी गई हैं. मामले की शुरुआत से ही ऐसा होने लगता है. भले ही मामला किसी अनुसूचित अपराध के संबंध में सिर्फ आरोप से शुरू हुआ हो, ED किसी भी आरोपी की अचल और चल संपत्तियों, बैंक खातों आदि को कुर्क और जब्त कर सकती है.
अब ये आरोपी कोई व्यक्ति हो सकता है, कोई कंपनी या फिर कोई वित्तीय इकाई. आरोपी से महज संबंध रखने वाले किसी शख्स पर भी ये कार्रवाई हो सकती है.
ED को इन सभी ताकतों का इस्तेमाल करने के लिए सिर्फ एक चीज की जरूरत है. वह ये कि अगर विभाग के किसी अधिकारी को 'उचित विश्वास' है कि कुर्क की जाने वाली संपत्ति का श्रोत गलत है. भले ही ट्रायल के माध्यम से अब तक अपराध साबित ना हुआ हो. कानून में इसे 'रीजनेबल बिलीफ' यानी 'उचित विश्वास' का नाम दिया गया है.
कुर्की की शक्तियां एक अर्ध-न्यायिक संस्था के सत्यापन पर टिकी हैं, जिसे 'निर्णायक प्राधिकारी' कहा जाता है. इसकी अध्यक्षता केंद्र सरकार की तरफ से नियुक्त किए गए रिटायर्ड अधिकारी करते हैं. अक्सर ये अधिकारी ED के फैसलों की पुष्टि के लिए रबर स्टांप के रूप में काम करते दिखते हैं.
अटैचमेंट मुकदमे के आखिर तक चलता रहता है, जिसे खत्म होने में कई साल लग सकते हैं. पीड़ित को अपील करने का अधिकार है. हालांकि, ऐसे अटैचमेंट और सहायक आदेशों के बड़ी संख्या में होने के कारण यह एक लंबी, कठिन और महंगी प्रक्रिया बन जाती है.
इसके अलावा, PMLA के तहत गिरफ्तार आरोपी को जमानत देने पर कानूनी रोक है. जबकि भारत में सामान्य कानून के मुताबिक जमानत नियम है और इसकी अस्वीकृति अपवाद है (मुख्य सिद्धांत के कारण कि एक आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक कि उसका अपराध सिद्ध न हो जाए). एक PMLA के तहत गिरफ्तार व्यक्ति को जमानत पर तभी रिहा किया जा सकता है, जब वह साबित करता है कि वह प्रथम दृष्टया अपराध का दोषी नहीं है. ये इस कानून का बहुत ही कठिन और बोझिल पहलू है.
ED के हाथ में एक और बड़ा हथियार है, PMLA की धारा 50 के तहत किसी भी शख्स को समन जारी करने और पूछताछ करने का अधिकार. बिना ये स्पष्ट किए कि वो इस वक्त आरोपी है या फिर गवाह. यही नहीं, इसमें शामिल है उन्हें जुर्माने के डर से जवाब देने के लिए बाध्य करना.
यही नहीं, इस प्रक्रिया के दौरान ED अधिकारियों की तरफ से रिकॉर्ड किए गए बयानों को सबूत के तौर पर स्वीकार किया जाता है. सबूतों से जुड़े भारत के कानून 'इंडियन एविडेंस एक्ट' के बिल्कुल उलट, जो कहता है कि पुलिस के दर्ज किए गए बयानों को सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
माननीय सुप्रीम कोर्ट भी ED से सहमत लगता है. कोर्ट ने माना है कि ED अफसर पुलिस अधिकारी नहीं हैं और इसलिए उन्हें दिए गए बयान को सबूत के तौर पर पेश करने से नहीं रोका जाएगा.
लेखक सम्मानपूर्वक इस तर्क से असहमत हैं क्योंकि ED अधिकारी पुलिस अधिकारियों से अलग नहीं हैं. खासकर तब से जब से वो जांच, गिरफ्तारी, रिमांड, संपत्ति और व्यक्ति की खोज, जब्ती आदि की समान शक्तियों का उपयोग पुलिस अधिकारियों की तरह ही करते हैं.
ऐसे बयानों को अदालतों की तरफ से खासकर जमानत की अपील पर फैसला देते वक्त सीमित महत्व दिया जाना चाहिए. क्योंकि उस दौरान किसी आरोपी के लिए ऐसी सामग्री प्राप्त करना और प्रस्तुत करना असंभव होगा जो उसे दोषमुक्त कर दे. जमानत से इनकार करने और स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए ऐसे बयानों का उपयोग समस्या को बढ़ा देता है और जमानत हासिल करने के आरोपी के प्रयासों को विफल कर देता है.
दुर्भाग्य से, व्यापक रूप से यह धारणा बन गई है कि इस अधिनियम का उपयोग राजनीतिक फायदे के लिए, विपक्ष को चुप कराने और वैध व्यवसायों और संस्थानों को गलत तरीके से निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है. अब जिस तरह से चीजें चल रही हैं, प्रक्रिया अपने आप में ही सजा बन गई है.
हालांकि, इस बात पर जोर देना भी जरूरी है कि ईडी ने वास्तविक मनी लॉन्ड्रिंग मामलों में कुछ अच्छे काम किए हैं. ऐसे मामलों में राजनीतिक प्रतिशोध की भावना रखना गलत होगा, जहां विपक्ष के राजनेताओं पर मुकदमा चलाया जाता है.
पर बड़े पैमाने पर ऐसे लोगों पर मुकदमा चलाए जाने की प्रवृत्ति को भी नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता, जो कि किसी खास पार्टी के विरोधी हैं.
ED जैसी संस्था, जिसे इतना महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया है. जब यह माना जाता है कि वे राजनीतिक प्रतिशोध लेने के लिए अनिच्छा से ही सही, उपकरण बन गए हैं, तो उनका मजाक उड़ना स्वाभाविक है. यह संस्थान की पवित्रता को नष्ट कर देता है, साथ ही वास्तविक मामलों में इसके अत्यंत सक्षम अधिकारियों की तरफ से किए गए अच्छे कामों को धूमिल कर देता है.
अधिनियम में शामिल 'उचित विश्वास' शब्द को सख्ती से सटीक और कार्रवाई योग्य सामग्री पर आधारित माना जाना चाहिए. इसे काल्पनिक या कल्पना की छलांग लगाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. ये तुरंत अदालतों की सख्त जांच के अधीन होना चाहिए, जिससे जांच हो सके कि कहीं किसी व्यक्ति को स्वतंत्रता से वंचित तो नहीं किया जा रहा या उसपर जबरदस्ती कोई कार्रवाई शुरू तो नहीं की जा रही है.
इसके अलावा यह अपेक्षा की जाती है कि अदालतों के फैसले, खासकर उच्च न्यायालयों के,स्पष्ट और सुसंगत हों. विशेष रूप से वे फैसले जो किसी व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता से जुड़े हैं.
(अभीर दत्त अपराधिक मामलों के वकील हैं, जो दिल्ली में प्रैक्टिस करते हैं. उनके पास PMLA के अंतर्गत आने वाले मुकदमों का खासा अनुभव है. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं. द क्विंट और क्विंट हिंदी ना तो इनके समर्थन में है ना ही जवाबदेह)
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