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चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक करार देकर सुप्रीम कोर्ट ने वोटरों को उनका हक दिया है

Electoral Bonds SC Verdict: कोर्ट ने सूचना के अधिकार और निजता के अधिकार के बीच एक प्रत्यक्ष संघर्ष का समाधान कर दिया है.

विश्वजीत भट्टाचार्य
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक करार देकर सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को उनका हक दिया है</p></div>
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चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक करार देकर सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को उनका हक दिया है

(फोटो: क्विंट)

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भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय (SC) की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 15 फरवरी 2024 को सर्वसम्मति से इलेक्टोरल बॉन्ड (Electoral Bonds) स्कीम को असंवैधानिक घोषित करते हुए रद्द कर दिया है. ये स्कीम भारत सरकार द्वारा 2 जनवरी 2018 को लागू की गई थी.

शीर्ष अदालत के निर्देश हैं:

  • भारतीय स्टेट बैंक (SBI) तुरंत इलेक्टोरल बॉन्ड (EB) जारी करना बंद कर देगा.

  • SBI 12 अप्रैल 2019 से 15 फरवरी 2024 के बीच जारी सभी इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी, दानदाताओं और दान लेने वालों के नामों के साथ 6 मार्च 2024 तक भारतीय चुनाव आयोग (ECI) को देगा.

  • ECI 13 मार्च 2024 तक अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर पूरी जानकारी प्रकाशित करेगा.

  • 15 दिन की वैधता समय के भीतर बिना भुनाए EB को दानदाताओं के बैंक खाते में वापस कर दिया जाएगा

यह एक ऐतिहासिक फैसला है. 13 मार्च को अपारदर्शी इलेक्टोरल बॉन्ड पारदर्शिता हासिल कर लेंगे. पूरी दुनिया इस ब्योरे को देखेगी और यह फैसला निस्संदेह चुनावी प्रक्रिया को और साफ-सुथरा बनाएगा.

2019 से अब तक इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक दलों द्वारा लगभग 15,000 करोड़ रुपये जुटाए गए हैं. राजनीतिक दलों ने इन फंडों के साथ क्या किया है, यह एक दिन जांच का विषय हो सकता है. जैसा कि अन्य बातों के अलावा माननीय न्यायमूर्ति संजीव खन्ना द्वारा लिखित सहमतिपूर्ण निर्णय पैराग्राफ 46 (पेज 37) [रनिंग पेज 195] में व्यक्त किया गया है:

"...जैसा कि धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 के तहत परिभाषित किया गया है, किसी चीज के बदले में राजनीतिक योगदान को मनी लॉन्ड्रिंग माना जा सकता है, पहचान छुपाकर, पॉलिसी यह सुनिश्चित करती है कि किसी चीज के बदले में या अवैध संबंध के कारण मनी लॉन्ड्रिंग जनता की नजरों से बच जाए...

कौन जानता है कि EB के माध्यम से एकत्रित धन का कितना हिस्सा अपराध से आया है?

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सुप्रीम कोर्ट ने पूरी योजना को रद्द करते हुए कानून में सभी संशोधनों को भी रद्द कर दिया है, जिसे लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29सी (1), कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 182 (3), आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13ए (बी) और भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1943 की धारा 31 (3) के तहत लाया गया था. इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन माना गया है.

ये प्रावधान इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से धन स्वीकार करने वाले किसी भी राजनीतिक दल के लिए सारी अपारदर्शिता लेकर आए.

उदाहरण के लिए, खातों के हिसाब-किताब की आवश्यकता खत्म कर दी गई थी; व्यक्तिगत दाताओं के नाम का खुलासा नहीं हो सकता था, राजनीतिक फंडिंग की ऊपरी सीमा हटा दी गई; और SBI को धारक को देय मांग वचन पत्र (बॉन्ड) जारी करने की अनुमति दी गई थी, जो RBI अधिनियम, 1934 के तहत भारतीय रिजर्व बैंक का विशेष एकाधिकार है. ये संशोधन संविधान के अनुच्छेद 110 के तहत वित्त विधेयक, 2017 के माध्यम से अधिनियमित किए गए थे.

अब सुप्रीम कोर्ट की बदौलत, भारतीय वोटरों को वह मिल गया है जो उनके हिस्से का बकाया था. अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सूचना का अधिकार अब सर्वोच्च हो गया है. यह अधिकार निजता के अधिकार से आगे आ गया है. यानी, चुनाव के लिए किसे चंदा देना है, इसके बारे में डोनर की गोपनीयता (यह अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत आता है) से बढ़कर किसी वोटर की सूचना पाने का अधिकार है.

भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने अपने प्रमुख फैसले में (माननीय न्यायमूर्ति बी आर गवई, माननीय न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और माननीय न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की ओर से भी) निम्नलिखित शब्दों में चिंता व्यक्त की:

“…क्या हम लोकतंत्र बने रहेंगे अगर निर्वाचित लोग जरूरतमंदों की पुकार पर ध्यान नहीं देंगे?ऊपर हमने पैसे और राजनीति के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित किया है जहां हमने राजनीति में प्रवेश, चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लिए पैसे के महत्व को समझाया है, ऐसी स्थिति में हमें खुद से पूछना चाहिए कि क्या निर्वाचित लोग वास्तव में मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होंगे अगर बहुत पैसे वाली कंपनियां पार्टियों के साथ किसी चीज के बदले कुछ देने की व्यवस्था में जुड़ती हैं और उन्हें असीमित मात्रा में योगदान करने की अनुमति है…”

इसलिए, कोर्ट ने अनुच्छेद 19(1)(ए) और अनुच्छेद 21 के बीच स्पष्ट संघर्ष का समाधान कर दिया है. वोटर को मिलने वाला सूचना का अधिकार चंदा देने वाले के अपनी पहचान का खुलासा न करने के अधिकार से बढ़कर है.

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड पर यहां तक कहा:

"... यहां तक ​​कि विद्वान सॉलिसिटर जनरल ने भी सुनवाई के दौरान इस बात से इनकार नहीं किया कि कॉर्पोरेट चंदा उसके बदले में लाभ प्राप्त करने के लिए दिया जाता है."

इस फैसले ने भारत की चुनावी राजनीति को ऑक्सीजन दिया है. इलेक्टोरल बॉन्ड योजना में गुमनाम रहकर असीमित चंदा देना, वो भी बिना किसी जवाबदेही या जांच के विशेष रूप से हानिकारक था.

लेकिन आज के फैसले को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट की महिमा आज अपनी पूरी भव्यता के साथ चमक रही है.

(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील और भारत के पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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