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आज कल एक नया सवाल फेंका जाता है कि तुम तब कहां थे. अंग्रेजी में कहते हैं - व्हाटअबाउटरी (whataboutery) .भारत में आपातकाल (Emergency) की बरसी के मौके पर मैं भी सोचता हूं कि बता दूं कि तब मैं कहां था, तब मैंने क्या किया और मुझे क्या क्या कष्ट सहने पड़े.
तब मैं स्कूल में था. तब के बिहार का कस्बा साहिबगंज जो अब झारखंड में है. परिवार कारोबारी था. मैं सबसे छोटा था और बड़े भाई मशक्कत करते और पढ़ाई भी. मंझले भइया सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता वाले काम भी करते. जेपी आंदोलन के दिन थे. किशोरावस्था में ये आंदोलन पूरे देश को लोकतंत्र और राजनीति की नई पाठशाला बन गया था कई बड़ी बातें हम अन्यथा न सीख पाते, वो सीखने को मिलीं.
जब इमरजेंसी लगी तब मैं पहली बार मुंबई घूमने गया हुआ था. इस शहर का खुलापन मुझे गिरफ्त में ले रहा था कि एक अर्जेंट ट्रंक कॉल ने नशा तोड़ा, घर वापस आओ. भैया की गिरफ्तारी का वारंट निकला है. वारंट छोटामोटा नहीं था, डिफेंस इंडिया रूल ( DIR) के तहत निकला था जिसमें जमानत के आसार कम थे. यानी मीसा कानून का छोटा भाई. इत्तफाक से अपना बड़ा भाई किसी काम से उस दिन भागलपुर गया हुआ था तो गिरफ्तारी से बचने के लिए भाई साहिबगंज से फरार ही रहा.
लेकिन ये “इमरजेंसी” मेरे लिए रोमांचक थी. परिजनों ने तय किया कि मिट्ठू फ्लाइट पकड़ के कोलकाता जाएगा. छह हजार रुपये का इंडियन एयरलाइंस का टिकट लिया, पहली बार फ्लाइट ली. मुंबई में शोले फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का अरमान पूरा नहीं हुआ था तो कोलकाता में थर्ड डे शोले देखी फिर पहुंचा साहिबगंज.
शहर में परिजन, पड़ोसी और मित्र सब की सलाहों और मदद की भरमार थी - पर सब चुपके चुपके. किसी ने टाउन इंस्पेक्टर से परिचय कराया. नए नए आए थे. मेरी ड्यूटी लगी कि उनसे नियमित मिलने जाना है, व्हिस्की के शौकीन हैं. बोतल छिपा के ले जाना है और डाक बंगले के साइड वाले दरवाजे से लगी खिड़की पर रख देना है. डायरेक्ट टू किचन. व्हिस्की की निरंतर सप्लाई चलती रही और इंस्पेक्टर साहब वारंट की तामील टलवाते रहे. हफ्तों ऐसा चला.
इमरजेंसी लगने के ठीक पहले जयप्रकाश आंदोलन काफी तेज हो चुका था. शहर के कई पुराने कांग्रेसी भी इस आंदोलन को समर्थन देने लगे थे. तब एक एक्टिविटी होती थी अपनी गिरफ्तारी देना. तरह-तरह के शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के आयोजन होते रहते थे. मैं भी या तो इन्हें देखने निकल पड़ता या किसी जुलूस में शामिल हो जाता. मेरा भी भी बड़ा मन था कि अपनी गिरफ्तारी दे दूं. वो दिन आया भी. पर कम्बख्त उम्र आड़े आ गई.
जेल छोटी थी और गिरफ्तार लोग काफी थे. जब सब लोग जेल पहुंचे तो जेल के बाहर ही खुली जेल जैसा कैंप बना दिया गया, जहां इन गिरफ्तार लोगों को एक दिन रहना था. रहना क्या था पिकनिक थी. मैं वहां पहुंच गया. उस समूह में शामिल होने से किसी ने नहीं रोका. मैंने अपने मन को समझा लिया कि मैं भी गिरफ्तार हो चुका हूं.
इस समूह के लिए वहीं पर खाना बनाने का इंतजाम हमारे शहर की सुपरिचित बुजुर्ग महिला नेता शारदा देवी देख रही थीं. पुरानी कट्टर कांग्रेसी नेता थीं लेकिन वो जेपी आंदोलन में एक नागरिक के रूप में अपनी भूमिका बदल चुकी थीं. हमेशा खादी की साड़ी पहनतीं और ललाट पर मोटी लाल बिंदी लगातीं. उस दिन उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर खाना खिलाया तो फिर मेरे मन में पक्का हो ही गया कि मैं आंदोलनकारी बन गया हूं. शारदा देवी मेरे लिए आंदोलन का फेस बनकर आज भी जीवंत हैं.
उस दौर से जुड़ी एक और बात याद आ गई- कॉलेज के हम कुछ दोस्त कश्मीर घूमने निकले तो दिल्ली दर्शन भी किया. तब दिल्ली ऐसी सुरक्षा छावनी नहीं थी. हम बिना अपॉइंटमेंट के विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से भी मिल आए.उस दिन उन्होंने शर्ट पैंट पहनी थी. उनके हाथों मथुरा के पेड़े भी खाए
तो मैं तब कहां था और अब कहां खड़ा हूं?
वहीं.
हम नामालूम नाचीज लोग तब भी लोकतंत्र की तरफ खड़े थे. आज भी लोकतंत्र की तरफ ही खड़े हैं.
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Published: 26 Jun 2021,02:31 PM IST