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ये बात अब शायद ही किसी से छिपी है कि अंग्रेजी लिखने-पढ़ने और बोलने की काबिलियत किस तरह गरीबी से मुक्ति का पासपोर्ट बन चुकी है. ऊपर जिन खबरों का हवाला दिया गया है वे सिर्फ यह बताने के लिए हैं कि तरक्की के लिए किसी भी तरह अंग्रेजी को अपनाने की तड़प कितनी तेज हुई है.
इन्फोसिस के मौजूदा को-चेयरमैन नंदन नीलेकनी ने दस साल पहले लिखी अपनी एक किताब ‘इमेजिनिंग इंडिया’ में अंग्रेजी को एक अदृश्य करियर भाषा कहा था. लेकिन अब कुछ भी अदृश्य नहीं है. सब कुछ साफ दिख रहा है. खास कर उन लोगों को जो भारत जैसे भारी गैर बराबरी वाले देश में आर्थिक और सामाजिक तौर पर निचले पायदान पर मौजूद हैं.
नीलेकनी ने अपनी इस किताब में बताया था किस तरह अंग्रेजी जानने वाले युवाओं की बदौलत भारत रातों-रात बीपीओ सेक्टर और फिर उसके बाद सॉफ्टवेयर में एक बड़ी ताकत बन गया. इन युवाओं ने देश में बड़ा मीडिल क्लास तैयार कर दिया.
यह लेखक खुद उस दौर का गवाह रहा है जब अंग्रेजी के बूते आर्थिक तौर पर कमजोर बैकग्राउंड वाले लाखों युवाओं ने खुद को इस लायक बना लिया था कि महानगरों में लाखों के फ्लैट खरीद सकें.
अंग्रेजी के रास्ते तरक्की के पायदान पर चढ़ने का सिलसिला अब भी जारी है. हाल में ह्यूमन रिसोर्सेज और एम्प्लॉयमेंट सर्विसेज मुहैया कराने वाली कंपनी टीमलीज के संस्थापक मनीष सभरवाल ने उदाहरण देकर इसकी तसदीक की.
इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कह, ‘ दिल्ली के मार्केट में अंग्रेजी न जानने वाला यूपी के किसी युवा की लेबर मार्केट में पैकर या लोडर के तौर पर दस हजार से शुरुआत होती है. लेकिन नॉर्थईस्ट के अंग्रेजी जानने वाले युवक की शुरुआत किसी दफ्तर में फ्रंट ऑफिस संभालने या किसी मॉल में कस्टमर रिलेशनशिप एक्जीक्यूटिव से हो सकती है. यह प्रोफाइल उसका वेतन सीधे 18 से 20 हजार रुपये कर देता है.’
सभरवाल का कहना है कि भारत की इकनॉमी तेजी से सर्विस सेक्टर की ओर झुकती जा रही है और इसमें अंग्रेजी का रोल और बड़ा हो जाता है. इस सेक्टर में कम्यूनिकेशन स्किल, मैन टु मैन इंटरएक्शन और कंप्यूटर एप्लीकेशन का इस्तेमाल ज्यादा होता है. इसलिए अंग्रेजी का महत्व बढ़ जाता है.
अंग्रेजी सिर्फ आर्थिक आजादी और तरक्की का ही रास्ता नहीं है. यह भारतीय समाज में मौजूद जाति और वर्ग की खाइयां भी पाट देती है. अंग्रेजी बोलने वाले किसी दलित से कोई उसकी जाति पूछने की हिम्मत नहीं करता. अंग्रेजीदां माहौल में काम करने वाले लोगों की जाति और सामाजिक स्थिति की पड़ताल बहुत कम होती है.
अंग्रेजी से लैस सामाजिक तौर पर निचले पायदान से आने वाले युवाओं के सशक्तिकरण के लिए इससे बड़ा औजार और क्या हो सकता है.
मशहूर दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने दस साल पहले यूपी के लखीमपुर जिले के एक गांव में अंग्रेजी देवी का मंदिर बनवाया था और उसकी प्राण प्रतिष्ठा लॉर्ड मैकाले के जन्मदिन पर किया था. लॉर्ड मैकाले भारत में अंग्रेजी मीडियम में शिक्षा के जनक माने जाते हैं.
इस देश में दलितों के सबसे बड़े आइकन भीमराव अंबेडकर ने अंग्रेजी को शेरनी का दूध कहा था. उन्होंने दलितों से अपनाने को कहा था. इस अंग्रेजी ने खुद अंबेडकर को मजबूत किया था. और अब भी यह उस हर उस शख्स को मजबूत बना रही है जो आर्थिक और सामाजिक तौर पर खुद को एक कमजोर जमीन पर खड़ा पाता है.
बहरहाल, देश में एजुकेशन, लेबर मार्केट, सोशल और इकनॉमिक मोबिलिटी के बीच के सूत्र के तौर पर अंग्रेजी की भूमिका पर एक बार फिर गौर कीजिये. आपको आंध्र-तमिलनाडु के बॉर्डर के गांव के उन स्कूली बच्चों की छटपटाहट का मर्म समझ में आ जाएगा, जो अपने अंग्रेजी टीचर को किसी भी कीमत पर खुद से दूर नहीं जाने देना चाहते थे.
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Published: 25 Jun 2018,08:31 PM IST