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किसानों द्वारा शुरु किए गए विरोध प्रदर्शन (Farmers Protest) के एक साल बाद आखिरकार केन्द्र सरकार ने तीनों कृषि कानूनों (Farm Laws) को रद्द कर दिया है. केंद्र सरकार द्वारा इस मामले पर अपने पैर वापस खींचना हमें दिखाता है कि अच्छे उद्देश्य को पूरा करने वाले और बहुत जरूरी लगने वाले कानून भी विश्वास की कमी के चलते संदेह के दायरे में आ जाते हैं.
पिछले साल जून में जब कोविड महामारी के चलते आवजाही और सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध लगाए गए थे उसी दौरान केंद्र सरकार ने एग्री ट्रेडिंग, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और स्टॉक होल्डिंग पर आधारित तीन कृषि कानूनों को अध्यादेश द्वारा लागू कर दिया था. सरकार ने पिछले साल सितंबर में संसदीय बहस या पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी के रेफरेंस के बिना ही इन कानूनों को लाने का फैसला किया था. सरकार जो कहती है ('सबका साथ, सबका विकास') उसके विपरीत जाकर उन्होंने कानून को पारित करने में जो जल्दबादी दिखाई, उसी ने उनकी नीयत को संदेह के दायरे में ला दिया.
जिन सुधारों की मांग किसानों द्वारा की जा रही थी, उनकी वैधता कानून वापस होने से कम नहीं हो सकती है. उत्तर-पश्चिम के वे किसान जो कृषि आंदोलन की सफलता का आज जश्न मना रहे हैं वही किसान फिर से उसी मुद्दों पर वापस जाएंगे. कानूनों को निरस्त या रद्द करने के बजाय उनमें सुधार करने की आवश्यकता है. अगर प्रधानमंत्री ने प्रधान सेवक की तरह काम किया होता और प्रदर्शन कर रहे किसानों से संपर्क बनाने का काम किया होता तो शायद इन कानूनों को बचाया जा सकता था.
लंबे समय से रेग्यूलेटेट मंडी सिस्टम में बदलाव की अवश्यकता पर जोर दिया रहा है. इसके पक्ष में एक नहीं कई दल अपना समर्थन दे चुके हैं. चूंकि एग्रीकल्चर मार्केटिंग या कृषि विपणन राज्य का विषय है, इसलिए 2003 में केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को पारित करने के लिए एक मॉडल विधेयक पेश किया. कुछ लिमिटेशन और अपवादों के साथ अधिकांश राज्य इससे सहमत हुए. इसके परिणाम स्वरूप 2010 में मनमोहन सिंह सरकार में कृषि मंत्री, शरद पवार ने कृषि विपणन यानी एग्रीकल्चर मार्केटिंग को कैसे मुक्त किया जा सकता है, इस पर सलाह देने के लिए राज्य के कृषि मंत्रियों की एक समिति का गठन किया था. इस समिति की अध्यक्षता महाराष्ट्र के सहकारिता मंत्री हर्षवर्धन पाटिल ने की थी, जिन्होंने 2019 में BJP का दामन थामने के लिए कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था.
इस समिति ने जनवरी 2013 में अपनी एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी जिसमें कहा गया था कि कृषि व्यापार (एग्रीकल्चर ट्रेड) के लिए रेग्युलेटेड बाजार बाधक बन गए हैं क्योंकि लाइसेंस प्राप्त करने के लिए कमीशन एजेंटों के पास दुकानें या गोदाम होना आवश्यक था. इनमें से कई मंडियों के पास आंगन (यार्ड) के लिए सीमित जगह थी, जिसकी वजह से वे अपने गोदाम का विस्तार करने में असमर्थ थीं. समिति ने यह भी कहा था कि ट्रेडर्स (व्यापारी) और कमीशन एजेंट (दलाल) खुद को एसोसिएशन (संघ) के तौर पर स्थापित कर लेते हैं और नए लोगों को इस क्षेत्र में आने नहीं देते है.
कमीशन एजेंट्स ये नहीं चाहते कि किसी भी प्रकार का बदलाव हो. वे छोटे-मोटे काम से ही मोटी कमाई कर लेते हैं. उदाहरण के तौर पर इस साल की शुरुआत में खरीदे गए गेहूं से पंजाब के आढ़तियों को 652 करोड़ रुपये का कमीशन मिला है. मंडी बोर्ड को राजनेताओं ने अपने नियंत्रण में ले रखा है. अधिकारियों से मिलीभगत करके वे सेस (उपकर) द्वारा जुटाए गए पैसों पर भी कब्जा कर लेते हैं. यही वजह है कि मंडी बोर्ड के चुनाव बहुत ही जोर-शोर के साथ लड़े जाते हैं.
स्थिति यह है कि मंडी यार्ड के बाहर भी यदि उनके 'अधिसूचित क्षेत्र' जो एक ब्लॉक या जिला हो सकता है, में कृषि व्यापार किया जाता है तो ये सेस और लेवी वसूलते हैं. पंजाब में 3 प्रतिशत मंडी उपकर (सेस) और 3 प्रतिशत ग्रामीण विकास शुल्क लगाया जाता है.
तीन कानूनों के लागू होने के बाद पंजाब सरकार ने वसूलने वाले शुल्क (लेवी) में कटौती कर दी, इससे उन संगठित लोगों को नुकसान पहुंचा जो सेस से बच नहीं सकते हैं.
पंजाब और हरियााणा के वे किसान जो राशन की दुकानों से वितरित होने वाले गेहूं और सामान्य चावल का ज्यादातर उत्पादन करते हैं वे इन शुल्कों या कमीशन एजेंट के 2.5 प्रतिशत शुल्क से प्रभावित नहीं होते हैं क्योंकि ये खर्च खरीद एजेंसी भारतीय खाद्य निगम द्वारा वहन किए जाते हैं. फिर वे भले ही फूड सब्सिडी बिल को बढ़ा-चढाकर प्रस्तुत करें.
निरस्त किए गए तीन कृषि कानूनों में से एक ने मंडी परिसर के बाहर सेस मुक्त व्यापार की अनुमति दी थी. विरोध कर रहे किसानों का मानना था कि अगर व्यापार मंडी से बाहर चला गया, तो मंडियों को आर्थिक नुकसान होगा और वे बर्बाद हो जाएंगी. उन्हें संदेह था कि इन कानूनों का व्यापक प्रभाव पड़ेगा. उन्हें इस बात का डर था कि सरकार अगले चरण में गेहूं और चावल की खरीद में कटौती कर सकती है. उनका डर जायज था क्योंकि गेहूं और चावल की खरीदी जरूरत से ज्यादा की जाती है और यह खरीद पंजाब व हरियाणा के पक्ष में रहती है. इस साल पंजाब में जितना गेहूं उत्पादित हुआ उसका 72 प्रतिशत खरीद लिया गया वहीं उत्तर प्रदेश में खरीद का यह आंकड़ा महज 10 प्रतिशत ही था.
मंडियों के बाहर सेस-फ्री ट्रेडिंग का असर यह हुआ कि वाकई में व्यापार मंडी से बाहर होने लगे. देश भर की मंडियों के राजस्व में गिरावट देखी गई है. मंडियों में हम उपज का मूल्य मिल सकता है. मंडियां सभी प्रकार की उपज के खरीददारों के लिए एक मीटिंग स्थल के तौर पर होती हैं. मंडियों के बिना छोटे किसानों को अपनी देखभाल खुद ही करनी होगी. मंडियों के नेटवर्क में सुधार करने की जरूरत है, फीस और लेवी शुल्क में कमी होनी चाहिए. किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए अलग-अलग प्लेटफार्म्स को चुनने का विकल्प देना चाहिए. इस प्रतिस्पर्धा भरे माहौल में कुछ मंडिया खत्म भी हो सकती हैं, लेकिन नीतिगत तौर पर मंडियों को खत्म करने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए.
उत्पादन लागत बढ़ने के बावजूद भी पंजाब और हरियाणा के किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर गेहूं और चावल की गारंटीकृत खरीद से स्थिर आमदनी हो जाती है. इसकी वजह से वहां लैंड लीज मार्केट खूब फल-फूल रहा है.
सरकार को इन वैकल्पिक फसलों की गारंटीकृत खरीद या किसानों को प्रति एकड़ प्रोत्साहन के साथ इस बदलाव में सहायता करनी होगी. उसे किसानों को मुफ्त बिजली देना भी बंद करना होगा.
आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन को बरकरार रखने की जरूरत है. इसमें कहा गया है कि विशेष परिस्थितियों जैसे यदि खराब होने वाली वस्तुओं की कीमतें पिछले पांच वर्षों के औसत से दोगुनी हो जाती हैं या खराब न होने वाली वस्तुओं की कीमतें उस स्तर से 50% ऊपर बढ़ जाती हैं तब ही स्टॉक लिमिट और निर्यात पर प्रतिबंध लगाया जाएगा. लेकिन संसद में तीन कानूनों को मंजूरी मिलने से कुछ दिन पहले ही सरकार ने पिछले साल 14 सितंबर को प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया और इस कानून की सुधारवादी साख को धूमिल कर दिया. मनमाने निर्यात प्रतिबंधों और स्टॉक की कमी से एक्सपोर्ट मार्केट में भारत की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा है. बंपर उत्पादन के बावजूद भी किसानों को पैसों का नुकसान होता है. लेकिन वहीं जब कमी होती है और कीमतें बढ़ती हैं तो उन्हें इसकी भरपाई करने की अनुमति नहीं होती है.
कृषि कानूनों के विवादों को सुलझाने के लिए जो व्यवस्था की गई थी उसमें खामियां थीं. राज्य के राजस्व विभागों को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई थी, इस विभाग के पास पहले ही ढेर सारा काम रहता है, ये भ्रष्ट होते हैं और किसानों को इस पर भरोसा नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट कमेटी के सदस्य और महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन के पूर्व अध्यक्ष अनिल घनवत के अनुसार कृषि को ज्यादा मार्केट रिफॉर्म की जरूरत है. उनका कहना है कि कृषि व्यापार को नियंत्रण मुक्त किया जाना चाहिए. निर्यात या आयात पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए. वे आगे कहते हैं कि विकसित देशों में कृषि पर सब्सिडी दी जाती है. भले ही सब्सिडी 'मार्केट-डिस्टॉर्टिंग' न हो, लेकिन वहां किसानों को समर्थन दिया जाता है. भारत को भी ऐसी व्यवस्था की ओर बढ़ना होगा. इनपुट (जैसे कि बिजली-पानी आदि में ) पर सब्सिडी देने या समर्थन मूल्य प्रदान करने की बजाय, किसानों की आय में सहायता प्रदान की जानी चाहिए.
भारत में एग्रीकल्चर लैंड मार्केट्स भी सीमित हैं. किसान अपनी जमीन केवल अन्य किसानों को ही बेच सकता है. वैध होने पर भी पट्टे पर देना संभव नहीं है.
यदि पारिस्थितिक तंत्र (इको सिस्टम) आधारित तरीके से सुधारों को लागू नहीं किया गया तो इससे भारतीय किसानों को नुकसान होगा. किसानों ने अब तक इनपुट-इंटेंसिव एग्रीकल्चर पर काम किया है यानी यहां खेती में खाद, पानी, बिजली आदि काफी ज्यादा मात्रा में खर्च किए जाते हैं, ऐसे में उन्हें क्लाइमेट-स्मार्ट फार्मिंग की ओर जाना होगा.
घनत्व आगे कहते हैं कि ''आंदोलन की जीत हुई, किसान हार गए''. सरकार की नियंत्रणवादी मानसिकता, वैचारिक दृष्टिहीनता और हाल ही में खुद के लिए खोदे गए गड्ढे को देखते हुए व्यापक कृषि सुधारों के जल्द ही अमल में आने की संभावना नहीं है.
(विवियन फर्नांडीस वरिष्ठ पत्रकार हैं और स्मार्ट इंडियन एग्रीकल्चर नामक वेबसाइट संचालित करते हैं. वह ट्विटर पर @VVNFernandes पर उपलब्ध हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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