advertisement
राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर पंजाब में 1984 और 1992 के बीच किसानों के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से लेकर सोशल मीडिया पर दक्षिण पंथी और कुछ न्यूज चैनल, कई लोगों ने केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के जारी प्रदर्शन में खालिस्तानियों के शामिल होने का आरोप लगाया है. इसके समर्थन में जो सबूत दिए जा रहे हैं वो कुछ प्रदर्शनकारियों के जरनैल सिंह भिंडरावाले के पोस्टर लेकर चलने और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या को लेकर एक प्रदर्शनकारी की टिप्पणी है.
लेकिन इस आंदोलन को चलाने वाले किसानों के 30 संगठन ही हैं. यही 30 संगठन आंदोलन के बारे में सारे बड़े फैसले ले रहे हैं सरकार से बात करने से लेकर भीड़ इकट्ठा करने तक के सारे फैसले. और इनमें से किसी भी संगठन या उनके वरिष्ठ सदस्य ने आंदोलन के दौरान भिंडरावाले के समर्थन में एक भी शब्द नहीं कहा है.
इसके बावजूद, आंदोलन के चारों ओर खालिस्तान का हौआ खड़ा किया जा रहा है, जिससे ये सवाल उठता है कि- बेशक, प्रदर्शन को अवैध ठहराने के अलावा इसका उद्देश्य क्या है?
यहां एक बहुत की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक समानता है-1978 और 1984 के बीच भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) के विरोध प्रदर्शन और कैसे ऑपरेशन ब्लू स्टार और उसके बाद की सरकार की कार्रवाई से पंजाब में किसानों की लामबंदी को नुकसान पहुंचा.
हरित क्रांति किसानों के लिए समृद्धि और अपनी तरह की खास चुनौती लेकर आई. इसका एक बड़ा राजनीतिक परिणाम वामपंथ समर्थक किसान यूनियनों का दरकिनार होना और भारतीय किसान यूनियन का उभरना था जिसमें अपेक्षाकृत अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवालों के किसानों का दबदबा था और जो 1970 के दशक के अंतिम वर्षों में किसानों के विरोध प्रदर्शन के पीछे प्रेरणा शक्ति थे.
किसानों की राजनीति भी एक राजनीतिक विकल्प से एक दबाव समूह में बदल गई जो किसी भी राजनीतिक पार्टी का विरोध या समझौता करने को तैयार थी.
10 मई 1984 को, बीकेयू ने चंडीगढ़ में पंजाब राज भवन का घेराव किया और ये एक हफ़्ते तक चला. केंद्र में इसको लेकर घबराहट शुरू हो गई थी. चूंकि प्रदर्शन करने वाले किसान मुख्य रूप जाट सिख हैं, इसलिए इस समुदाय के मुख्य राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में शिरोमणि अकाली दल ने भी अक्सर ऐसे आंदोलनों का समर्थन किया है.
23 मई को अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचंद सिंह लोंगोवाल ने अगले चरण में फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया से अनाज की बिक्री रोकने का एलान किया. पंजाब के भारत के अनाज का कटोरा होने के कारण, इसका असर ये होता कि देश के कई हिस्सों में अनाज की आपूर्ति रुक जाती. कई लोगों का कहना है कि उस समय की सरकार ने असंतुष्ट किसानों के इस एलान को सौदेबाजी की रणनीति के बदले एक सुरक्षा के खतरे के तौर पर देखा.
उस समय की सरकार ने बल्कि अनुचित तरीके से किसानों के विरोध प्रदर्शनों को अलग कर नहीं बल्कि बड़ी “पंजाब समस्या” का हिस्सा मान कर देखा.
ये भी उस समय हुआ जब इंदिरा गांधी सरकार की जरनैल सिंह भिंडरावाले के साथ बातचीत टूट चुकी थी. लोंगोवाल के एलान के सिर्फ 11 दिन बाद, 3 जून को सरकार ने पंजाब में सेना भेज दी. इसके कारण बीकेयू का प्रदर्शन अचानक ही बंद हो गया क्योंकि सभी बड़े राजनीतिक आयोजनों पर पाबंदी लगा दी थी.
दो दिन बाद, सरकार ने ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू कर दिया, सेना को हरमिंदर साहिब परिसर में भेजा गया जहां भिंडरावाले और उसके समर्थक हथियारों के साथ जुटे हुए थे.
सिखों के सबसे पवित्र स्थानों-हरमिंदर साहिब के साथ इसके सर्वोच्च अस्थायी संस्था अकाल तख्त की सीट पर सेना का ऑपरेशन सिखों के लिए एक दर्दनाक घटना थी.
इसका किसानों पर एक और अतिरिक्त और महत्वपूर्ण परिणाम था-राजनीतिक लामबंदी पर पाबंदी आठ साल यानी 1992 तक जारी रही जिसके कारण पंजाब में किसान यूनियनें कमजोर हुई.
1984 और 1992 के बीच जो हुआ वो दिखाता है कि कैसे राष्ट्रीय सुरक्षा का इस्तेमाल एक समुदाय की किसी भी रूप में राजनीतिक लामबंदी को तोड़ने के लिए किया गया था चाहे वो पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष मांग जैसे किसानों की समस्या के लिए थी.
मौजूदा विरोध-प्रदर्शनों को लेकर खड़ा किया जा रहा खालिस्तान का हौआ उसी उद्देश्य को पूरा करता है-किसानों की जायज मांगों को नहीं मानना और उनके विरोध-प्रदर्शन के अधिकार पर निशाना साधना.
अगर अतीत किसी तरह का संकेत है तो ये विरोध-प्रदर्शन करने वालों पर कार्रवाई का एक बहाना भी दे सकता है. उस अर्थ में, प्रदर्शनकारियों को राष्ट्र विरोधी के रूप में दिखाना, भीमा कोरेगांव और एंटी सीएए विरोध प्रदर्शनों के दौरान सरकार ने जो किया उसके अनुरूप होगा.
विरोध-प्रदर्शनों को खालिस्तानी के तौर पर पेश करना सहयोगी और समर्थकों से पंजाबी प्रदर्शनकारियों को अलग करने की दिशा में भी काम करेगा.
ये कोई संयोग नहीं है कि “खालिस्तानी” होने का आरोप हरियाणा के मुख्यमंत्री एमएल खट्टर ने लगाया है. इसे पंजाब और हरियाणा के किसानों के बीच फूट डालने की कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है.
ये आरोप कांग्रेस और आम आदमी पार्टी जैसी पार्टियों के लिए भी खुलकर प्रदर्शनकारियों के समर्थन में आने में मुश्किल खड़ी कर सकता है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 01 Dec 2020,04:39 PM IST