advertisement
कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की मांग लेकर किसानों का दिल्ली में प्रदर्शन जारी है. किसानों को डर है कि नए कृषि कानूनों से एमएसपी व्यवस्था पर संकट आ सकती है और मंडी व्यवस्था पर भी चोट पहुंच सकती है. लेकिन किसान आंदोनल को लेकर लोगों के मन में कई सवाल हैं. जैसे कि किसान आंदोलन पंजाब और हरियाणा के ही किसान क्यों कर रहे हैं? क्या सिर्फ कृषि कानूनों की वजह से किसान नाराज हैं? किसानों की मोदी सरकार के प्रति नाराजगी के और क्या कारण हैं? और अगर किसानों और सरकार के बीच समझौते की बात आती है तो कैसे बात बन सकती है?
मोदी सरकार ने कृषि कानूनों को लेकर ये जताने की कोशिश की कि ये कानून उनके मौलिक विचार थे. लेकिन यहां पर ये जानना अहम है कि इस कानून का विचार इस सरकार ने पहली बार नहीं किया है बल्कि इन तीनों सुधारों की सिफारिश 1990 में वीपी सिंह की सरकार में की गई थी. तब चौधरी देवीलाल उपप्रधानमंत्री और कृषि मंत्री थे. 26 जुलाई 1990 को एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने इस सुधारों की सिफारिश की थी. तब मंडियों की संख्या बढ़ाने की भी सिफारिश दी गई थी. इसमें एमएसपी और कॉन्ट्रैक्ट पर खेती कराने को लेकर सुधार लागू कराने की सिफारिश भी दी गई थी.
इन नए कानूनों से फायदा तो होगा लेकिन अगर कुछ दूसरी व्यवस्थाएं ठीक नहीं की गईं, तो फायदा होने की जगह नुकसान होने की ज्यादा गुंजाइश है. किसान इसी बात को लेकर चिंतित हैं. मेरा मत ये है कि दूसरी व्यवस्थाएं ठीक कर दी जाएं तो किसानों को इसका लाभ होगा. लेकिन अगर वो व्यवस्था ठीक नहीं की गई तो किसानों पर इसके बहुत ही विपरीत प्रभाव हो सकते हैं.
हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ये आंदोलन इसलिए ज्यादा प्रबल है क्योंकि एमएसपी प्रक्रिया के सबसे ज्यादा लाभार्थी हरियाणा और पंजाब के किसान ही थे. ऐतिहासिक रूप से भी पंजाब के किसान खेती से जुड़े मुद्दों के प्रति सजग रहे हैं. किसानों के ज्यादातर आंदोलन इन्हीं इलाकों में होते रहे हैं. मंडी समितियों से लेकर एमएसपी वगैरह की कवायद यहीं से शुरू हुई है. अब यहां के किसानों को इस एमएसपी की व्यवस्था पर संकट खड़ा होता हुआ दिख रहा है. दूसरे राज्यों में किसान इतना ज्यादा संगठित, प्रगतिशील और उग्र आंदोलन के लिए आगे नहीं आते. लेकिन अब दूसरे राज्यों के किसानों को भी इस मुद्दे की गंभीरता को समझना चाहिए और अपनी आने वाली पीढ़ी के भले के लिए इस आंदोलन का हिस्सा होना चाहिए.
जब मोदी सरकार 2014 में सरकार में आई थी तो उन्होंने वादा किया था कि वो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों, जिसमें खेती की लागत का 50% जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाना था, को लागू करेगी. बीजेपी ने सरकार में आने के लिए किसानों से ये सबसे बड़ा वादा किया था. साढ़े चार साल तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया. 2019 में लोकसभा चुनाव के नजदीक आने के पहले सरकार ने ऐलान कर दिया कि हमने डेढ़ गुना मूल्य का ऐलान कर दिया है. किसान को सरकार की इस हेराफेरी से झटका लगा. स्वामीनाथन आयोग ने सिफारिश की थी कि किसानों की C2 लागत पर 50% जोड़कर एमएसपी तय किया जाए. लेकिन इस सरकार ने A2+ फैमिली लेबर पर 50% जोड़कर दावा कर दिया कि आयोग की सिफारिशें मान ली गई हैं. सरकार के इस तरह के रवैए से किसानों और सरकार के बीच अविश्वास की खाई बड़ी हुई है.
न्यूनतम समर्थन मूल्य को किसान का संवैधानिक अधिकार बनाया जाए.
कृषि मूल्य और लागत आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर स्वायत्त आयोग बनाया जाए.
संविदा खेती से उपजने वाले विवादों के लिए अगल ट्राइब्यूनल की व्यवस्था हो.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)