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राज्यों की मदद करने की केंद्र सरकार की वित्तीय क्षमता कमजोर पड़ती जा रही है?

केंद्र सरकार की अपनी खराब राजस्व संग्रह क्षमता एक बड़ा मुद्दा है.

दीपांशु मोहन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण. तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक है.</p></div>
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केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण. तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक है.

(फोटो: PTI)

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वित्त मंत्रालय (Ministry of Finance) की तरफ से हाल में किए एक ट्वीट में बताया गया है कि केंद्र सरकार (Central Government) ने जून में राज्य सरकारों को टैक्स हिस्सेदारी (tax devolution) की तीसरी किस्त के रूप में 59,140 करोड़ रुपये की सामान्य मासिक हिस्सेदारी के बजाय 1,18,280 करोड़ रुपये दिए हैं. केंद्र-राज्य बंटवारे के मासिक आंकड़े भ्रामक संकेत दे सकते हैं, यह देखते हुए कि हाल के सालों में टैक्स रेवेन्यू वसूलने और राज्यों को वादा किया हिस्सा बांटने में केंद्र सरकार की वित्तीय क्षमता किस तरह अस्थिर रही है.

इंफोस्फीयर (InfoSphere), सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (CNES), ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में हमारी शोध टीम ने हाल ही में केंद्र-राज्य राज कोषीय संबंधों को और ज्यादा गहराई से परखते हुए एक अध्ययन पूरा किया. वित्त मंत्रालय की तरफ से साझा की गई फैक्टशीट ने केंद्र से राज्य सरकारों को टैक्स हिस्सेदारी के बंटवारे पर सरकारी स्रोतों से तैयार उपलब्ध डेटा (2019 से) का अध्ययन करते हुए हमारी टीम ने एक और पड़ताल की.

अध्ययन से क्या नतीजे निकले?

ग्राफ-1 वर्ष 2019 से केंद्र सरकार की तरफ से राज्य सरकारों को बांटी गई कुल शुद्ध टैक्स हस्तांतरण आय (करोड़ रुपये में) के बारे में बताता है. हमारी लिस्ट में इसमें से केंद्र शासित प्रदेशों (UTs) को बाहर रखा गया है.

ग्राफ-1: 2019 से 2024 तक टैक्स बंटवारा

सोर्स: लेखक

ग्राफ-2: केंद्र से राज्य को कुल टैक्स बंटवारा

सोर्स: लेखक

ग्राफ-2 वर्ष-दर-वर्ष आधार पर केंद्र से टैक्स-हस्तांतरण का समग्र-ट्रेंड बताता है. यह पिछले कुछ सालों में केंद्र सरकार की राजकोषीय राजस्व क्षमता का आइना है. महामारी वर्ष (2020-21) सरकारी खजाने के लिए कठिन दौर था और इसके चलते केंद्र से राज्यों को सबसे कम टैक्स हस्तांतरण रहा.

इसके नतीजे में इसने हेल्थ केयर के साथ महामारी के चलते सिर पर आन पड़े खर्चों को पूरा करने के लिए ज्यादा राज्यों को बड़े पैमाने पर उधार लेने के साथ-साथ ‘उधारी के उपायों’ का सहारा लेने के लिए मजबूर किया. नतीजतन, उनके राजकोषीय घाटा-कर्ज में बढ़ोत्तरी देखी गई. जैसा कि पहले बताया गया था, मौजूदा समय में विपक्षी दलों द्वारा शासित कुछ राज्यों की कर्ज लेने की शक्ति को केंद्र सरकार द्वारा मनमाने ढंग से सीमित किए जाने के सबूत बढ़ रहे हैं. ज्यादातर राज्यों के वित्त मंत्रियों ने इस पर अपनी आपत्ति को आधिकारिक रूप से दर्ज कराया. है.

बिहार, यूपी को केंद्र से सबसे ज्यादा टैक्स-बंटवारे का हिस्सा मिलता है

नीचे दिए गए ग्राफ-3 और ग्राफ-4 केंद्र से राज्यों को टैक्स हस्तांतरण में कुछ विपक्ष-शासित बनाम बीजेपी-शासित राज्यों का ‘चुनिंदा’ रुख दिखाता है.

ग्राफ-3: गैर-बीजेपी शासित राज्यों में कर बंटवारा

सोर्स: लेखक

ग्राफ-4: बीजेपी शासित राज्यों में कर बंटवारा

सोर्स: लेखक

बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य अभी भी कर-बंटवारे का ज्यादातर हिस्सा केंद्र से हासिल करते हैं, खासकर उनकी स्थानिक, आबादी का स्वरूप और सामाजिक-आर्थिक जरूरतों की वजह से.

हरियाणा, पंजाब, केरल जैसे राज्यों में पिछले पांच सालों में अपने कर-हिस्सेदारी में खास बढ़ोत्तरी नहीं देखी गई है. यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह सभी राज्य इन सालों में अपने सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) के स्तर में गिरावट के साथ- जो कि महामारी के बाद से बिगड़ रहा है- किस तरह अपनी सबसे खराब राजकोषीय हालत से गुजरे हैं. ऐसे में केंद्र से ज्यादा मददगार, खराब वित्तीय हालत में मदद के रुख की जरूरत थी.

इसके अलावा तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों में भी वास्तविक हिस्सेदारी बंटवारे में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है, भले ही तमिलनाडु जैसे राज्य- अपनी मजबूत GSDP स्थिति को देखते हुए- केंद्र सरकार के टैक्स-राजस्व में काफी ज्यादा योगदान करते हैं.

केंद्र सरकार के टैक्स-आधारित बंटवारे में मध्यम से दीर्घकालिक राजकोषीय-नीति में दूरदृष्टि की कमी से इस सवाल पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है. केंद्र सरकार की क्या भूमिका है, जिसको कानून और संवैधानिक प्रावधानों द्वारा ज्यादा राजकोषीय ताकत सौंपी गई है और टैक्स-आधारित राजस्व संसाधनों को बढ़ाने और खर्च करने का विवेक किस तरह खर्च के जरिये राज्यों की मदद करने में काम आता है?
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तीन स्पष्ट जरूरी शर्तें

हम इन तौर-तरीकों में मोटे तौर पर जो देखते हैं, उस पर तीन व्यापक, स्पष्ट शर्तें लगाई गई हैं:

  • राज्यों को उनकी जरूरत के हिसाब से देने की बात आती है तो केंद्र सरकार ने सिर्फ यथास्थिति बनाए रखी है; उसने किसी खास राज्य को उसकी कल्याणकारी या विकास जरूरतों और राजस्व जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से ज्यादा टैक्स राजस्व हस्तांतरित नहीं किया है, या ज्यादा टैक्स राजस्व हस्तांतरित करने का इंतजाम नहीं किया है. बीजेपी-शासित और गैर-बीजेपी-शासित दोनों राज्यों के लिए बंटवारे के उपलब्ध आंकड़े राज्यों में असंतुलित विकास पैटर्न का एक अफसोसनाक पहलू दिखते हैं, जो बदलावों को समझने के बजाय अतीत की परंपरा को ही आगे बढ़ाता है. यह अगले बिंदु में और ज्यादा फिक्र पैदा करने वाला सवाल उठाता है.

  • यह बताता है कि मोदी की अगुवाई में केंद्र सरकार (पिछले कुछ वर्षों से, हमारे आंकड़े के हिसाब से 2019 के बाद) राज्यों को, जिन्हें विकास और कल्याण के कामों के लिए ज्यादा राजस्व की जरूरत है, मदद देने में अपनी वित्तीय क्षमता में धीरे-धीरे कमी लाई है. इस तथ्य का आगे चलकर राज्यों पर शासन करने वाले राजनीतिक दलों से बहुत कम लेना-देना है, लेकिन समय के साथ, बड़ा मुद्दा केंद्र सरकार की अपनी खराब राजस्व संग्रह क्षमता का बन गया है (यानी राजस्व एकत्र करने में विफल होना, जिसे केंद्र सरकार अपने केंद्रीय बजट अनुमान में बताती है).

  • सरकारी आंकड़ों की खराब क्वालिटी की वजह से किसी के लिए भी पिछले कुछ सालों में राज्यों के लिए केंद्र सरकार द्वारा दिए गए टैक्स-बंटवारे से होने वाले संभावित लाभ या हानि का कारगर ढंग से विश्लेषण करना बेहद मुश्किल हो जाता है. ऐसा लगता है कि मौजूदा प्रशासन ने ‘अच्छे’ डेटा एकत्र न करने के लिए अपनी तरफ से पूरी मेहनत की है, जो दीर्घ अवधि के फायदे के लिए नीति को मजबूत करने के लिए राजकोषीय चुनौतियों/संभावनाओं का पता लगाने में मदद कर सकता था.

आर्थिक रूप से कमजोर सरकार

यह, ‘आर्थिक रूप से कमजोर’ और ‘असुरक्षित’ सरकार की एक पक्की निशानी है, जो ‘अच्छे विकास प्रदर्शन’ के बजाय ‘इंडिया शाइनिंग के आंकड़ों’ पर भरोसा करते हुए केवल बयानबाजी के इर्द-गिर्द खड़े किए आर्थिक ‘आशावाद’ के खोखले दावों को पेश कर संतुष्ट है.’ औद्योगिक रूप से कहीं अधिक विकसित और विकास के ऊंचे पायदान पर खड़े देशों ने ‘अच्छा विकास प्रदर्शन’ दिखाया है, लेकिन भारत अपनी बुनियाद के नीचे एक ‘खामोश वित्तीय संकट’ और ‘खराब मैक्रोइकॉनॉमिक फंडामेंटल’ का शिकार है.

यह एक ऐसी अर्थव्यवस्था का संकेत देते हैं, जो संरचनात्मक कमजोरी से पैदा स्थायी पतन की ओर बढ़ रही है, जिसमें कोई भी केंद्र सरकार राज्यों के लिए (वित्तीय रूप से) बहुत कम कर पाने की हालत में होगी, भले ही वो और ज्यादा करना चाहे (यह मानते हुए कि उसकी ऐसा करने की ख्वाहिश होगी ).

(दीपांशु मोहन अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (CNES), जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के निदेशक हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इसके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

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