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2000 रु के नोट की ‘नोटबंदी’: असंवेदनशील नीति का एक और उदाहरण, टाइमिंग से संकेत?

RBI के ऐलान को इसके पॉलिटिकल इकोनॉमी पर पड़ने वाले असर के संदर्भ में देखा जाना चाहिए

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भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने अचानक से 2000 रुपये के नोट को तत्काल प्रभाव से चलन से वापस लेने का ऐलान किया. हालांकि यह नोट अभी लीगल टेंडर रहेगा यानि इसके बदले दूसरे नोट लिए जा सकते हैं और 30 सितंबर तक बैंक इसे जमा करेगा. बैंक से आप 2000 रुपए की नोट के बदले इतनी ही कीमत के दूसरे नोट ले सकते हैं.

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हालांकि रोजाना 20,000 रुपये तक ही नोट बदले जाएंगे या जमा किया जा सकता है.

RBI ने कहा है कि पहले से ही 2000 रुपए के नोट सर्कुलेशन में कम हो गए थे. अगर 2000 रुपए के टोटल नोट के सर्कुलेशन को देखें तो यह 31 मार्च, 2018 को अपने पीक पर था. उस वक्त यानि 31 मार्च 2018 को 6.73 लाख करोड़ सर्कुलेशन में था (कुल 37.3 % ), जबकि 31 मार्च 2023 तक आते आते यह सिर्फ 3.62 लाख करोड़ रह गया था यानि सिर्फ 10.8 %. RBI ने यह भी कहा है कि " 2000 रुपये के नोट को लाने का जो मकसद था वो पूरा हो गया.

नीति और नीयत पर सवाल ?

जिन लोगों को अभी भी 2016 की नोटबंदी की खौफनाक यादें हैं जब एक झटके में 500 रुपये और 1000 रुपये के नोटों पर पाबंदी लगा दी गई थी जो उस वक्त बाजार में 80 फीसदी तक सर्कुलेशन में थे, तो उसकी तुलना में RBI का यह ऐलान लोगों को सैद्धांतिक रूप से समय और विकल्प मुहैया कराने वाला है. अपने नोटों को बैंक में जमा करने या बदली करने के लिए उनके पास वक्त होगा.

लेकिन जरा सोचिए उन लोगों या फर्मों के बारे में जो कैश पर ज्यादा निर्भर रहते हैं .. और जिनके पास 2000 रुपए के लाखों नोट हैं (देश के अनऑर्गेनाइज्ड इकोनॉमी में मजदूरों को पेमेंट करने और रोज की पूंजी जुटाने के लिए अभी भी कैश पर निर्भरता है) उनका क्या होगा .. उन्हें सिर्फ अपने पैसे को जमा करने या उसके बदले पैसे लेने के लिए बार बार बैंकों का चक्कर काटना होगा.

उनके पास सिर्फ 130 दिन होंगे और उन्हें रोजाना कई बार बैंक जाकर पैसे जमा कराने होंगे. कई लोगों को तो सिर्फ इस काम के लिए ही कई लोगों को लगाना होगा. रियल एस्टेट या प्रॉपर्टी रिलेटेड ट्रांजैक्शन में जहां अभी भी कैश का ज्यादा काम होता है निश्चित तौर पर उनकी परेशानी बढ़ने वाली है.( ऐसे 50 परसेंट से ज्यादा बिजनेस अभी भी कैश में चलते हैं ) .

मुझे लगता है कि यह घोषणा रियल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन बिजनेस सेक्टर और दूसरे कैश पर निर्भर सेक्टर को प्रभावित करने वाली है. अभी इकोनॉमी पहले से ही ‘जॉबलेस-कम निवेश’ वाली ग्रोथ के हालात में हैं और ऐसे में यह पॉलिसी डिसीजन इकोनॉमी की सेहत के लिए कैसे ठीक हो सकता है ?

इसके अलावा, कहीं न कहीं, 2000 रुपये के नोटों के विनिमय/जमा के लिए 20,000 रुपये की रोजाना की सीमा से ऐसा लगता है कि 2000 रुपये की बड़ी राशि रखने वाले खाताधारकों के पैसे बैंक में जमा करवाकर उनपर 'निगरानी' का इरादा भी हो सकता है. यह विशेष रूप से कुछ बिजनेस, व्यक्तियों, या राजनीतिक विपक्ष को लक्षित करने के लिए केंद्रीकृत एजेंसियों (मोदी-शाह डबल इंजन ) को लीड (मौका) दे सकता है.

इसलिए, भले ही सैद्धांतिक तौर पर और कागजों में यह सब ठीक लग सकता है और यह एक छोटा मोटा "RBI मॉनेटरी पॉलिसी उपाय" है, लेकिन इस घोषणा को इसकी टाइमिंग और पॉलिटिकल इकोनॉमी के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. वहीं इसके मायने भी निकलेंगे.

यह घोषणा कर्नाटक चुनाव परिणामों (जहां बीजेपी ने खराब प्रदर्शन किया) के कुछ दिनों बाद की गई और शुक्रवार को जब फाइनेंशियल मार्केट्स बंद हो गए तब इसे नोटिफाई किया गया ताकि इसका जो तुरन्त बाजार में पैनिक या स्पिलओवर होता उससे बचा जाए.

2000 रुपये के नोटों को बदलने/जमा करने की समय सीमा भी 30 सितंबर रखी गई है, जो कई राज्य-विधानसभा चुनावों से सिर्फ दो महीने दूर है (राजनीतिक या चुनावी वजहों का पर्याप्त कारणों को देखने के बाद RBI को ऐसा करने के लिए कहा गया होगा). मैंने पहले तर्क दिया है कि कैसे नोटबंदी की घोषणा के समय में भी यूपी चुनावों को ध्यान में रखा गया था. इस कदम को आर्थिक नीति के उपाय से अधिक राजनीतिक कार्रवाई के रूप में देखा गया था.

यहां तक कि इस काम को पूरा करने को लेकर सरकारों की क्षमता पर भी गंभीर सवाल और चिंताएं हैं. पहले से ही काम के बोझ तले दबे सरकारी बैंक और इसकी अफसरशाही के लिए जब इस तरह की कोई केंद्रीकृत घोषणाएं होती हैं तब परेशानी और ज्यादा बढ़ जाती है.

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नतीजों की परवाह किए बिना नीतियां बनाना

मोदी सरकार की पॉलिटकल इकोनॉमी और उसके संस्थागत कामकाज पर हाल के दिनों में विस्तार से चर्चा की गई है (इस लेखक ने बौद्धिक दिवालिएपन के माहौल के बारे में दलीलें दी हैं और विस्तार से बताया है जो लोग मौजूदा सरकार की नीति बनाने में सलाह मशविरा देते हैं . ऐसा लगता है कि सरकार के पास व्यापक आर्थिक या राजकोषीय दृष्टि को लेकर शायद ही कोई सामंजस्य या सफाई है.

इसे हाल ही के एक दूसरे उदाहरण से भी समझें.

कुछ दिनों पहले ही वित्त मंत्रालय ने 1 जुलाई से विदेशों में सभी अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट कार्ड से लेनदेन पर 20% TCS (टैक्स कलेक्टेड एट सोर्स) शुल्क की घोषणा की थी. सरकार ने कहा कि यह निर्णय भारतीय रिजर्व बैंक के परामर्श से लिया गया था. मंगलवार रात को इसे नोटिफाई किया गया. यह कदम निश्चित रूप से 'कार्ड जारी करने वाले बैंकों और उपभोक्ताओं दोनों पर ‘बोझ' डालने वाला था.

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट कार्ड से ट्रांजैक्शन की कर-निगरानी की प्रशासनिक लागत 'संभव नहीं' हो सकती है. इसलिए ये फिजूल और बिना सोचे समझे उठाया गया कदम लगता है. सिर्फ कुछ टैक्स हासिल करने से ज्यादा इस स्कीम के ऐलान का भी कोई मतलब नहीं बनता था.

घोषणा के आते ही स्वाभाविक तौर पर हंगामा खड़ा होना था. सोशल मीडिया पर और दूसरे माध्यमों में इसकी कड़ी खिंचाई हुई .. हालांकि शुरू में तो सरकार ने नरमी दिखाने या झुकने से मना कर दिया और सफाई भी जारी की लेकिन बाद में जब मसला धीमा पड़ता नहीं दिखा तो आखिरकार कुछ कदम उठाए गए. सरकार ने फिर ऐलान किया . "किसी भी उलझनों या प्रक्रियात्मक अस्पष्टता से बचने के लिए, यह निर्णय लिया गया है कि अब कोई भी व्यक्ति अपने अंतरराष्ट्रीय डेबिट या क्रेडिट कार्ड का उपयोग करके 7 लाख तक के भुगतान कर सकता है और यह 7 लाख तक का ट्रांजैक्शन LRS के दायरे में नहीं आएगा इसलिए इस पर कोई TCS भी नहीं लगेगा. "

क्या सरकार इस सब पर घोषणा करने से पहले नहीं सोच सकती थी और जनता को परेशान होने से बचा सकती थी ?

यह इकलौता मामला भी नहीं है. मौजूदा सरकार जो नीतिगत फैसले लेती है उसमें किसी भी गंभीर रूप से चिंतनशील फीडबैक लूप की जगह नहीं है और यहां तक कि अपनी ही पिछली गलतियों से सीखने की गुंजाइश भी नहीं रखी हुई है.

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2016 में नोटबंदी, जैसे तैसे GST लाना, IBC (दिवाला एवं दिवालियापन संहिता) के खराब कार्यान्वयन, CAA-NRC की शुरुआत, 'कृषि कानून'- जिसकी वजह से देश बड़ा जन आंदोलन शुरु हुआ. हाल के दशक, श्रम कानूनों के 'संहिताकरण' आदि सभी मौजूदा सरकार की पॉलिटिकल इकोनॉमी में चिंताजनक प्रवृत्ति का संकेत देते हैं. इसमें सबकुछ केंद्रीकृत है. रिजल्ट क्या होगा इसकी फिक्र नहीं है. एडहॉक और बिना विशेषज्ञों से परामर्श (या सलाह लेने) लिए ही पॉलिसी एनाउंस कर देते हैं. इसके अलावा जो फैसले लेते हैं उनमें अगर कुछ गलतियां होती हैं तो उनसे सबक लेने के लिए कोई श्वेत पत्र भी सामने नहीं रखते.

भलाई सोचकर पॉलिसी बनाने का एप्रोच नहीं

पॉलिसी बनाने में उस पॉलिसी का क्या असर होगा इसका ख्याल रखने वाला जो नजरिया होता है उसमें सभी तरह की प्रक्रियाओं का ध्यान रखा जाता है और सभी पार्टियों से सलाह-मशविरा किया जाता है ताकि जो फाइनल आउटकम होगा उसके बारे में पहले से ही एक तैयारी रहे .. लेकिन पिछले 9 साल में हमने सरकार से इस तरह की कोई कार्रवाई नहीं देखी है. लोगों के हित में क्या है और उसके पीछे का तर्क क्या है इस पर कोई चर्चा या सलाह –मशविरा नहीं है. .

जब कोई किसी पॉलिसी को बनाने से पहले इससे होने वाले असर या अच्छाई की फिक्र करता है तो इस मेथड में सभी से विचार विर्मश किया जाता है. जो प्रक्रियाएं अपनाई जाएगी उसको लेकर पूरा नोट तैयार कर लिया जाता है. पब्लिक के लिए कोई भी अच्छी पॉलिसी बनाने का डिजाइन ही यही होता है और जो इस मेथड को फॉलो करता है वो बढ़िया पब्लिक पॉलिसी लेकर आता है.

  • वहीं फेयर दी फॉरवर्ड मतलब... सिर्फ आगे बढ़ो और भलाई-बुराई की फिक्र किए बिना पॉलिसी बनाने में पॉलिसी से पब्लिक पर क्या असर होगा इसकी चिंता बिल्कुल नहीं होती है... अक्सर खराब तरह से बनाई गई कोई पॉलिसी या फिर कानून इसकी बानगी होती है. इसमें इकोनॉमिक इफिशिएंसी को मैक्सिमाइज करने की कोशिश होती है लेकिन इसका अपना सोशल कॉस्ट होता है और इसका नतीजा होता है कि इस तरह की नीतियां अक्सर नाकाम ही हो जाती हैं.

  • अगर हम नोटबंदी और GST को लागू किए जाने की पूरी प्रक्रिया को देखें तो साफ हो जाता है कि ये नीतिगत फैसले नतीजों की परवाह किए बगैर लिए गए. सरकार इनके पालन के वक्त असंवेदनशील बनी रही और इस वजह से पब्लिक ने इसका खामियाजा भुगता.

दुर्भाग्यवश अब हम चुनावी साल में जाने वाले हैं. 2024 जैसे जैसे करीब आएगा... बिना सोचे समझे असंवेदनशील तरीके से कई पॉलिसी की घोषणा हो सकती है. ये नीतियां अक्सर चुनावी या सियासी मकसदों के लिए होंगी ना कि किसी आर्थिक भलाई के लिए. भारत में पॉलिसी बनाने की प्रक्रिया और क्राफ्ट को बदलने की जरूरत है और इसे आर्थिक फायदे के इर्दगिर्द बनाया जाना चाहिए और इसका फायदा सबको मिलना चाहिए.

(दीपांशु मोहन अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (CNES), जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज (जेएसएलएच), ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के निदेशक हैं. यह एक विचार लेख है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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