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सरकारों का दिल ठंडा होता है. हमारे देश में हर 30 मिनट में एक किसान (Farmers) आत्महत्या करता है. आइए जानते हैं आखिर प्रधानमंत्री ने कृषि कानूनों (Farm Laws) को निरस्त करने की घोषणा क्यों की हैं? यहां हम आपको उन्हीं कुछ वजहों के बारे में बता रहे हैं कि आखिर आंदोलन के 1 साल बाद ये कदम क्यों उठाया गया...
पहला- दिल्ली कोई दुर्ग या गढ़ नहीं वो एक पिंजरा या जेल है. दिल्ली की ओर जाने वाली सड़कों पर जो कील ठोकी गईं, वो इतिहास में जिंदा रहेंगी. ऊंचे दरवाजे और ऊंची-ऊंची दीवारें दिल्ली की विशेषता हैं. इस प्रकार शक्तिशाली और प्रभावशाली असहायों को उनकी दृष्टि से और उनकी पहुंच से बाहर रखते हैं. हालांकि, इस बार चीजें अलग थीं. विरोध प्रदर्शनों ने दिल्ली के अंदर शक्तिशाली लोगों को बंदी बना लिया. इस बार जिन्हें बाहर रखा गया था, वो शक्तिहीन नहीं थे बल्कि जिन्हें अंदर रखा गया था वो शक्तिशाली थे.
लखीमपुर खीरी जैसी घटनाओं ने सरकार की किसान विरोधी छवि को मजबूत ही किया है. 65 प्रतिशत ग्रामीण और कृषि पर निर्भर देश में किसान विरोधी सरकारें काम नहीं कर पा रही हैं.
दूसरा- आमतौर पर ये विचार हम सबके बीच मौजूद है कि संसद में बड़े बहुमत वाली सरकार कोई भी कानून बना सकती है. इसके साथ ही सरकार का 'एजेंडा' चुनाव के दौरान घोषणापत्र और अभियान के रूप में पहले से ही लोगों के सामने होता है. ये माना जाता है कि किसी राजनीतिक दल के समर्थन में 'वोट' भी सरसरी तौर पर उसके एजेंडे की पुष्टि करता है. किसानों के विरोध ने इस विचारधारा के साथ-साथ लोगों के नाम पर अपने "एजेंडे" को आगे बढ़ाने वाली सरकारों की वैधता पर गंभीरता से सवाल उठाया है.
यह एक महत्वपूर्ण क्षण है, क्योंकि इसे इस सरकार द्वारा किए गए अन्य विवादास्पद फैसलों पर लागू किया जा सकता है, जिसके कारण व्यापक विरोध भी हुआ है.
नागरिकों ने दिखाया है कि उनके पास उन पर थोपे गए कानूनों को सुधारने की शक्ति और धैर्य है.
तीसरा - कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा राजनीतिक उद्देश्यों यानी चुनावी वजहों खासकर पंजाब और उत्तर प्रदेश के संबंध में हो सकती है. इन दोनों राज्यों का प्रतिनिधित्व सिंघु, टिकरी और गाजीपुर के विरोध स्थलों पर किया जाता है. दिल्ली से लौट रहे किसान अपने साथ सत्ता के द्वारों के बाहर कतार में लगने की यादें लेकर आए हैं. हर ग्रामीण ने अपने भाई-बहनों के साथ दुर्व्यवहार की कहानियां सुनी हैं यहां आपको ये भी पता होना चाहिए कि हर ग्रामीण वोटर यानी मतदाता भी है. उसे मतदान करने का अधिकार है.
किसानों के खिलाफ बार-बार लाठीचार्ज और पानी की बौछारों का इस्तेमाल किया गया, जिसमें कई गंभीर रूप से घायल भी हुए. हिंसा के ऐसे कृत्यों के लिए सरकार को शीघ्रता से कार्य करने के लिए प्रेरित करना चाहिए था.
चौथा- किसानों का विरोध लगातार, सम्मानजनक और निःस्वार्थ रहा है. किसानों ने राजनीति को एक मंच देने से इनकार कर दिया और जानबूझकर गैर-राजनीतिक बने रहने का फैसला किया. यहां तक कि उन्होंने ऐसे लोगों से भी किनारा कर लिया, जिन्होंने किसानों के विरोध को वैचारिक दृष्टिकोण देने की कोशिश की. किसान संघों और प्रदर्शनकारियों को विभाजित करने का कोई भी प्रयास उसी कारण से विफल रहा.
पांचवां - हाल के वर्षों में मध्यम वर्ग यानी मिडिल क्लास आबादी का सबसे कम मूल्यांकन वाला हिस्सा रहा है. करदाताओं को ऐसी राजनीति से रूबरू कराया गया है जो मनोरंजक है, लेकिन खाली है. पिछले एक वर्ष में किसानों को राष्ट्र-विरोधी के रूप में चित्रित किया गया है, विरोध प्रदर्शनों को देश की एकता और विकास के लिए खतरा माना जाता है. अपने खुद के उद्देश्यों में व्यस्त मध्यम वर्ग से किसानों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होने की उम्मीद की गई थी.
ये सच से बहुत दूर है, किसानों की लड़ाई के दौरान मध्यम वर्ग उनके साथ खड़ा रहा है. जैसा कि इस लेखक ने पहले कहा है कि कृषि का निगमीकरण, खाद्य उपलब्धता और बढ़ती कीमतें मध्यम वर्ग के मुद्दे हैं. किसी भी सरकार की नीतियों और लोकप्रियता की परीक्षा आम लोगों की रसोई में होती है. पेट्रोल की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी के अलावा यह सरकार इस परीक्षा में भी फेल हो रही है.
अंत में, कृषि कानूनों को निरस्त करने की सरकार की घोषणा अगले चुनावों के बारे में उसकी चिंता को दर्शाती है. हालांकि, ये विरोध की लोकतांत्रिक ताकत को भी प्रदर्शित करता है और इसे भविष्य की चुनावी गणना और विधायी निर्णयों में ध्यान में रखा जाना चाहिए.
(डॉ कोटा नीलिमा एक लेखक, रिसर्चर और इंस्टीट्यूट ऑफ परसेप्शन स्टडीज की डायरेक्टर हैं. वो ग्रामीण इलाकों और किसानों की आत्महत्या पर लिखती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @KotaNeelima है. ये एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट इनका समर्थन नहीं करता और ना इनके लिए जिम्मेदार है.)
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Published: 19 Nov 2021,09:54 PM IST