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किसानों की चिंता या कुछ और? कृषि कानूनों पर क्यों झुकी मोदी सरकार, जानिए 4 कारण

1 साल से ज्यादा चले किसान आंदोलन के बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर दिया है.

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भारत
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पीएम नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने 19 नवंबर को तीनों कृषि कानूनों (Farm Laws) को वापस लेने का ऐलान किया है. किसानों के लंबे आंदोलन के बाद आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा. अब बड़ा सवाल है कि 1 साल से चल रहे किसानों के आंदोलन दौरान दबाव में नहीं आने वाली मोदी सरकार ने अचानक इसे वापस लेने का ऐलान कैसे कर दिया? आखिर कृषि कानूनों को ऐतिहासिक बताने वाली सरकार किसानों के आगे झुक कैसे गई?

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डटे किसान तो पीछे हटी सरकार

कृषि कानूनों को लेकर किसानों का आंदोलन 1 साल से ज्यादा वक्त से चल रहा है. सरकार को उम्मीद थी कि आंदोलनकारी किसान कुछ दिनों तक प्रदर्शन करने के बाद कोई हल ना निकलता देख वापस लौट जाएंगे. लेकिन ठंड, गर्मी, बरसात की परवाह किए बिना किसान दिल्ली की सीमीओं पर डटे रहे.

इस आंदोलन में शामिल किसान हार मानने को तैयार नहीं थे. 600 से ज्यादा किसानों की मौत और तमाम दिक्कतों के बाद भी आंदोलन पर असर नहीं पड़ा और यह चलता रहा. हालांकि कुछ मौके ऐसे जरूर आए, जब आंदोलन कमजोर होता दिखा. चाहे 26 जनवरी की हिंसा हो, राकेश टिकैत के भावुक होने का पल हो, कोरोना की दूसरी लहर हो या फिर निहंगों के द्वारा एक युवक की हत्या का मामला, जब भी लगता कि आंदोलन अब शायद आगे ना बढ़ पाए, तभी यह और मजबूती के साथ खड़ा हुआ.
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आंदोलनकारी अपने इरादे के इतने पक्के थे यह इस बात से समझा जा सकता है कि जब फसल बुआई के वक्त पुरुष खेतों में वापस लौटते तो महिलाएं दिल्ली बॉर्डर पर आंदोलन की कमान संभालती थीं. बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं सभी वर्ग ने आंदोलन में हिस्सा लिया. केंद्र सरकार कोअब तक शायद यह अंदाजा हो गया था कृषि कानून वापस लिए बिना किसान आंदोलन खत्म नहीं करेंगे.

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चुनावी फैक्टर

उत्तर प्रदेश

इस आंदोलन के खत्म होन की सबसे बड़ी वजह चुनावों के माना जा रहा है. अगले साल की शुरुआत में 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. इनमें पंजाब, यूपी, उत्तराखंड भी शामिल हैं. यूपी में चुनाव बीजेपी के लिए काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहीं से दिल्ली की राजनीतिक रास्ता खुलता है. पश्चिमी यूपी के किसानों ने कृषि कानूनों का भारी विरोध किया है. किसान नेता राकेश टिकैत पश्चिमी यूपी से ही आते हैं, उनका सबसे ज्यादा प्रभाव यूपी और हरियाणा में ही माना जाता है.

शुरुआत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज्यादातर किसानों ने खुद को आंदोलन से अलग किया हुआ था, लेकिन धीरे-धीरे सबको जोड़ा गया. खासकर गाजीपुर में राकेश टिकैत के भावुक होने के बाद पश्चिमी यूपी के किसान एकजुट होते दिखे, कृषि कानूनों के विरोध में कई महापंचायतों का भी आयोजन हुआ.

कृषि कानूनों के कारण इस इलाके में बीजेपी का नेताओं का भारी विरोध शुरू हो गया. किसान नेताओं ने बीजेपी नेताओं के बहिष्कार करने का ऐलान तक कर दिया. कई जगहों पर केंद्रीय मंत्रियों, विधायकों, सांसदों को किसानों ने घेरना शुरू किया, कई बार मारपीट तक की स्थिति आ गई.
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सी-वोटर एबीपी के एक हालिया सर्वे में यूपी में बीजेपी को पिछली बार के मुकाबले 100 से ज्यादा सीटों के नुकसान का अनुमान जताया गया है. इस सर्वे में पार्टी अपने बूते बहुमत तो साबित कर ले रही है, लेकिन 213-221 सीटों पर ही सिमट जा रही है. जाहिर से सर्वे के नतीजों ने पार्टी की चिंताएं बढ़ाई होंगी, ऐसे में यूपी चुनाव में बीजेपी किसी भी तरह का रिस्क लेने से बच रही है.

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पंजाब

पंजाब शुरुआत से इस आंदोलन का केंद्र रहा है, किसान आंदोलन में शामिल होने वाले सबसे ज्यादा किसान इसी राज्य से हैं. पंजाब में भी अगले साल की शुरुआत में भी विधानसभा चुनाव होने हैं. पुरानी सहयोगी शिरोमणी अकाली दल कृषि कानूनों के मुद्दे पर बीजेपी और एनडीए से अलग हो चुकी है. पंजाब में बीजेपी की स्थिति ज्यादा मजबूत कभी नहीं रही, लेकिन आंदोलन की वजह से वह पंजाब में पहले से भी ज्यादा कमजोर हो गई है.

पंजाब में भी बीजेपी नेताओं के साथ भारी विरोध हो रहा है, कुछ जगहों पर तो बीजेपी नेताओं से मारपीट की भी खबरें आईं. एक सर्वे में अनुमान जताया गया है कि पंजाब विधानसभा चुनाव में शायद पार्टी का खाता भी ना खुले.

जब पंजाब की कोई भी पार्टी बीजेपी के साथ दिखने से बच रही है, ऐस वक्त में पूर्व सीएम अमरिंदर सिंह ने अपनी पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस का बीजेपी के साथ गठबंधन का ऐलान किया. हालांकि उन्होंने इसके लिए शर्त रखी कि किसान आंदोलन का समाधान निकाला जाए. कृषि कानूनों को वापस लेने को इसी कवायद का हिस्सा माना जा रहा है.
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हरियाणा

इसके अलावा हरियाणा में भी कृषि कानूनों को लेकर किसानों में भारी नाराजगी है. पंजाब के बाद कृषि कानूनों का सबसे ज्यादा विरोध हरियाणा में ही हो रहा है. किसानों के साथ-साथ सहयोगी जननायक जनता पार्टी ने भी बीजेपी पर इन कानूनों के लेकर दबाव बनाया हुआ था. बीजेपी नेताओं को हरियाणा में किसानों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा. कई जगहों पर तो मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का कार्यक्रम भी आंदोलनकारियों ने बाधित किया.

उत्तर प्रदेश से सटे उत्तराखंड के इलाकों के किसान भी कृषि कानूनों का विरोध कर रहे है. चुनावी साल में पहाड़ी राज्य में बीजेपी किसान आंदोलन की वजह से कोई नुकसान उठाए से बचना चाह रही है.
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लीगल फैक्टर

सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल 12 जनवरी को कृषि कानूनों को लागू करने पर रोक लगा दी थी, कोर्ट ने मामले के समाधान के लिए एक 3 सदस्यीय कमिटी का भी गठन किया है. सभी स्टेकहोल्डर्स से बातचीत के बाद इस कमिटी ने इसी साल मार्च में अपनी रिपोर्ट कोर्ट को सौंप दी है, हालांकि 6 महीने से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया है.

मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. माना जा रहा है कि कृषि कानूनों के लागू होने पर रोक के बाद सरकार के पास इस मामले खोने के लिए ज्यादा कुछ बचा नहीं था, साथ ही डर ये भी था कि अगर कोर्ट ने किसानों के पक्ष में फैसला दिया तो फजीहत और होगी. ये भी कानूनों के वापस लेने की बड़ी वजह माना जा रहा है.

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लखीमपुर खीरी कांड बना टर्निंग प्वाइंट

3 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी में किसानों पर गाड़ी चढ़ाने और उसके बाद हुई हिंसा में 8 लोगों की मौत हो गई. पूरी घटना का मुख्य आरोपी केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी का बेटा आशीष मिश्र है. इस घटना के बाद से ही केंद्र सरकार बैकफुट पर आ गई. पूरे प्रकरण में बीजेपी को लेकर एक नकारात्मक संदेश आम लोगों में गया.

मामले में आशीष मिश्र समेत 13 लोगों को पुलिस न अब तक गिरफ्तार किया है. सुप्रीम कोर्ट की निगारनी में मामले की जांच एसआईटी कर रही है. लखीमपुर खीरी की घटना के बाद केंद्र सरकार को शायद ऐहसास हुआ कि अगर पार्टी की छवि को हुए नुकसान की भरपाई करनी है तो कृषि कानूनों को वापस लेने के अलावा उसके पास कोई और चारा नहीं है.

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