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भारतीय वोटर की अक्लमंदी पर सवाल न उठाएं, वो 'रेवड़ी' के झांसे में वोट नहीं करता

'मुफ्त की रेवड़ी' कुछ नहीं है, यह आपकी दाहिनी जेब से पैसे निकालकर बाईं जेब में डालने जैसा है.

अमिताभ तिवारी
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>भारतीय वोटर की अक्लमंदी पर सवाल न उठाएं, वो 'रेवड़ी' के झांसे में वोट नहीं करता</p></div>
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भारतीय वोटर की अक्लमंदी पर सवाल न उठाएं, वो 'रेवड़ी' के झांसे में वोट नहीं करता

(फोटो- क्विंट हिन्दी)

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रेवड़ी (Revdi) भारत की एक लोकप्रिय मिठाई है और आजकल सुर्खियों में है. क्योंकि यह सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) और विपक्ष के बीच विवाद का विषय बन गई है. शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) से हुई जिन्होंने ‘रेवड़ी’ कल्चर या ‘मुफ्त के मलीदे’ को देश के लिए खतरनाक बताया और कहा कि लंबे समय में इसके आर्थिक नतीजे घातक हो सकते हैं.

यह अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (AAP) पर सीधा हमला था जिसने अपने चुनावी वादों में लोगों को कथित रूप से ‘मुफ्त सैगातों’ का लालच दिया है.

आज जब कांग्रेस पतन की ओर है, बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि आने वाले दिनों में AAP बीजेपी के लिए खतरा बन सकती है. यह सिर्फ एक क्षेत्रीय पार्टी है जिसकी दो राज्यों में सरकार है.

मोदी के जवाब में केजरीवाल ने परेशान होकर पलटवार किया और कहा कि दिल्ली सरकार की मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और बिजली मुफ्त की सौगात नहीं है, बल्कि यह भारत को दुनिया का ‘नंबर वन’ देश बनाने की कोशिश है.

  • भारतीय वोटर्स स्मार्ट हैं. इसलिए ‘मुफ्त के मलीदे’ और वोटर्स के बर्ताव के बीच संबंध बनाकर उनकी अक्लमंदी पर सवाल न उठाएं.

  • आज राजनीति में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण ज्यादातर राजनीतिक दल मुफ्त सौगातों का ऐलान करते हैं. इसलिए उनका असर लगभग शून्य हो सकता है.

  • अगर मुफ्त की सौगातें चुनावी मुद्दा होता तो कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में 200 से ज्यादा सीटें मिलतीं क्योंकि वहां उसने ‘आसमान से चांद सितारे तोड़ लाने’ (जैसे स्कूटर, औरतों को नकद, पेंशन वगैरह) का वादा किया था.

  • तमिलनाडु में सरकार हर पांच साल बाद बदलती है जोकि इस बात का संकेत हो सकता है कि मुफ्त की सौगात का बहुत असर नहीं होता.

  • किसी को मुफ्त सौगात मिले, इसके लिए जनता से ही ज्यादा टैक्स लिए जाते हैं, या दूसरे जरियों से पैसा जुटाया जाता है. यह आपकी दाहिनी जेब से पैसे निकालकर अपनी बाईं जेब में डालने जैसा है.

  • हालांकि बहस का मकसद राजनीतिक दलों की जवाबदेही बढ़ाना होना चाहिए. घोषणापत्र में जब पार्टियां ऐसे मुफ्त उपहारों का वादा करती हैं, तो उन्हें अनिवार्य रूप से यह बताना चाहिए कि वे उनके लिए पैसा कहां से जुटाएंगी.

भारतीय वोटर्स को बेअक्ल न समझें

बीजेपी के दिल्ली स्टेट यूनिट के नेता और सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय ने अदालत में एक याचिका दायर की है. इस याचिका में अदालत से कहा गया है कि वह चुनाव आयोग को निर्देश दे कि वह चुनाव से पहले बेतुके ढंग से वादे करने या मुफ्त सौगात बांटने वाले दलों का पंजीकरण रद्द करे.

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को निर्देश दिया है कि वह एक पैनल बनाए. उस पैनल में वित्त और कानून मंत्रालय, नीति आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक, राजनैतिक दल और चुनाव आयोग के सदस्य हों. वे इस मुद्दे पर चर्चा करें और कुछ रचनात्मक सिफारिशें करें. चूंकि संसद प्रभावी तरह से इस मुद्दे को नहीं सुलझा सकती.

हालांकि चुनाव आयोग ने अदालत के इस फैसले का स्वागत किया है कि एक एक्सपर्ट पैनल बनाया जाए लेकिन उसका हिस्सा बनने से इनकार किया है. जबकि मुफ्त की सौगात वाली संस्कृति पर बहुत शोर शराबा हुआ और कहा गया कि उसका वोटर्स पर असर होता है, लेकिन असल बात यह है कि ऐसे वादों और चुनावी नतीजों का कोई सीधा संबंध नहीं होता.

इसलिए, याचिका और अदालत के निर्देश जिस बुनियादी सोच पर आधारित हैं कि मुफ्त की सौगातें वोटर्स को प्रभावित करती हैं, पूरी तरह से सही नहीं हो सकते. भारतीय वोटर्स स्मार्ट हैं. इसलिए ‘मुफ्त के मलीदे’ और वोटर्स के बर्ताव के बीच संबंध बनाकर उनकी अक्लमंदी पर सवाल न उठाएं.

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आज राजनीति में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण ज्यादातर राजनीतिक दल मुफ्त सौगातों का ऐलान करते हैं. इसलिए उनका असर लगभग शून्य हो सकता है. यह मान लेना गलत है कि AAP ने दिल्ली और पंजाब चुनावों में जीत हासिल की तो उसका कारण 'मुफ्त सौगातें' हैं.

अगर मुफ्त की सौगातें चुनावी मुद्दा होता तो कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में 200 से ज्यादा सीटें मिलतीं क्योंकि वहां उसने ‘आसमान से चांद सितारे तोड़ लाने’ (जैसे स्कूटर, औरतों को नकद, पेंशन वगैरह) का वादा किया था.

मुफ्त की सौगत, असल में, क्या होती हैं?

मुफ्त की सौगात का चलन तमिलनाडु में शुरू हुआ था, जहां बड़े राजनैतिक दल वोटर्स को बहुत कुछ तोहफे में देने का वादा करते थे. जैसे टेलीविजन सेट्स और वॉशिंग मशीन और मिक्सर ग्राइंडर भी. लेकिन तमिलनाडु में सरकार हर पांच साल बाद बदलती है जोकि इस बात का संकेत हो सकता है कि मुफ्त की सौगात का बहुत असर नहीं होता.

हमें यह भी बताने की जरूरत है कि ‘मुफ्त की सौगात’ किसे कहते हैं. परिभाषा के लिहाज से, मुफ्त की सौगात या फ्रीबी वह होती है जिसकी कीमत नहीं चुकानी पड़ती. इसलिए मुफ्त बिजली, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा, तकनीकी तौर पर फ्रीबी कहला सकती हैं. इसमें कुछ योजनाएं भी शामिल हो सकती हैं, जैसे मोहल्ला क्लिनिक और आयुष्मान भारत भी. क्या पीएम किसान निधि या उज्ज्वला योजना के तहत सिलिंडर देना भी फ्रीबी है? तकनीकी रूप से, हां. और इस परिभाषा के तहत मनरेगा भुगतान ‘फ्रीबी’ नहीं हैं क्योंकि लोगों को प्रॉजेक्ट्स में काम करने पर पैसा मिलता है.

हालांकि भारत एक वेल्फेयर स्टेट है. हम अमीरों पर टैक्स लगाते हैं और गरीबों को पैसे देते हैं. गरीब वर्गों को उनके उत्थान के लिए सहारे की जरूरत है. तो, एक राज्य पिरामिड के निचले हिस्से में मौजूद लोगों को मुफ्त की सौगात या सब्सिडी के बिना कैसे मदद कर सकता है?

मुफ्त की सौगात की आलोचना करने वालों का कहना है कि इससे राज्य की वित्तीय सेहत को नुकसान पहुंच सकता है. लेकिन राज्य के बजट में मुफ्त तोहफों के हिस्से बहुत बड़ी राशि नहीं आती. राज्यों की वित्तीय स्थिति को इस बात से नुकसान पहुंच रहा है कि जीएसटी के दौर में राज्यों की राजस्व जुटाने की क्षमता प्रभावित हो रही है. इसके अलावा राज्यों की वित्तीय स्थिति खराब होने के लिए धन का कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार और लीकेज बहुत बड़ा कारण हैं.

मुफ्त की सौगात, मुफ्त में नहीं मिलती

मैं नहीं मानता कि समाज के सभी तबकों को मुफ्त की सौगात मिलनी चाहिए. आपको कोई भी चीज मुफ्त मिले, इसके लिए आर्थिक मानदंड का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. और जो लोग स्वास्थ्य, बिजली और शिक्षा का भुगतान करने के काबिल हैं, उन्हें यह सब मुफ्त में नहीं दिया जाना चाहिए.

दुनिया में कहीं भी मुफ्त लंच नहीं मिलता. कोई न कोई उसकी कीमत जरूर चुकाता है. किसी को मुफ्त सौगात मिले, इसके लिए जनता से ही ज्यादा टैक्स लिए जाते हैं, या दूसरे जरियों से पैसा जुटाया जाता है. यह आपकी दाहिनी जेब से पैसे निकालकर अपनी बाईं जेब में डालने जैसा है.

हालांकि बहस का मकसद राजनीतिक दलों की जवाबदेही बढ़ाना होना चाहिए. घोषणापत्र में जब पार्टियां ऐसे मुफ्त उपहारों का वादा करती हैं, तो उन्हें अनिवार्य रूप से यह बताना चाहिए कि वे उनके लिए पैसा कहां से जुटाएंगी. अगर इसमें यह ब्यौरा भी हो कि अगले पांच साल के बजट और क्रेडिट रेटिंग पर इसका असर क्या होगा, तो इससे लोगों को अपना विकल्प चुनने और पारदर्शिता बढ़ाने में भी मदद मिलेगी.

(लेखक एक स्वतंत्र राजनीतिक टिप्पणीकार हैं और उनका ट्विटर हैंडिल @politicalbaaba है. यह एक ओपिनियन पीस है. यह लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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