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रेवड़ी राजनीति पर मोदी का विपक्ष पर प्रहार, लेकिन BJP सरकारें क्या कर रही हैं?

'कल्याणकारी शासन’ सामाजिक और आर्थिक दशा सुधारने में मददगार है. इसे सिर्फ फ्री की रेवड़ी कहकर खारिज नहीं किया जा सकता

दीपांशु मोहन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>रेवड़ी राजनीति के लिए मोदी का विपक्ष पर प्रहार, लेकिन BJP सरकारें क्या कर रही हैं ?</p></div>
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रेवड़ी राजनीति के लिए मोदी का विपक्ष पर प्रहार, लेकिन BJP सरकारें क्या कर रही हैं ?

(फोटो- पीटीआई)

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कुछ हफ्ते पहले भारतीय जनता पार्टी (BJP) के राजनीतिक विरोधियों पर निशाना साधते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने लोगों को (विशेष रूप से युवा) "रेवड़ी संस्कृति" से आगाह किया. उन्होंने इसे देश के विकास और भलाई के लिए "बहुत खतरनाक" बताया. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा,

आज हमारे देश में मुफ्त रेवड़ी (मिठाई) बांटकर वोट बटोरने का प्रयास किया जा रहा है. यह रेवड़ी संस्कृति देश के विकास के लिए बेहद खतरनाक है. देश के लोगों को खासकर युवाओं को इस रेवड़ी संस्कृति से सावधान रहने की जरूरत है. जो लोग रेवड़ियां बांटने में यकीन रखते हैं वो आपके लिए एक्सप्रेस-वे, एयरपोर्ट या डिफेंस कॉरिडोर नहीं बनाएंगे. रेवड़ी संस्कृति बांटने वालों को लगता है कि वो मुफ्त रेवड़ी बांटकर जनता को खरीद सकते हैं. हमें मिलकर इस सोच को हराने की जरूरत है.

आम आदमी पार्टी (AAP) के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री पर पलटवार करने में देर नहीं की. उन्होंने कहा कि,

मुझ पर आरोप लग रहे हैं कि केजरीवाल मुफ्त रेवड़ी बांट रहे हैं. मेरे साथ बदसलूकी की जा रही है और मेरा मजाक उड़ाया जा रहा है. मैं देश के लोगों से पूछना चाहता हूं कि मैं क्या गलत कर रहा हूं? मैं दिल्ली में गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों के बच्चों को मुफ्त और अच्छी शिक्षा दे रहा हूं. मैं लोगों से पूछना चाहता हूं कि क्या मैं मुफ्त रेवड़ी बांट रहा हूं या देश की नींव रख रहा हूं?

दिल्ली का ‘AAP मॉडल’ बनाम यूपी की 'डबल इंजन सरकार'

दिल्ली में (बहु-शासन प्रणाली, विधायी और कार्यकारी शक्तियों के साफ बंटवारे के बाद भी) बेहतर फिस्कल मैनेजमेंट किया जाना और इसका इस्तेमाल बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की सुविधा देने पर पहले भी बहुत बातें हुई हैं. अब यह एक स्थापित तथ्य है कि दिल्ली में सरकार ने फिस्कल मैनजमेंट दुरुस्त करके यहां पर लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार किया है.

दिल्ली के AAP के कामकाज का जो मॉडल है उसमें बुनियादी सुविधाओं को दुरुस्त करने की बहुत कोशिशें हुई हैं. चाहें वो हेल्थकेयर हो या शिक्षा, या पोषण या फिर पीने का साफ पानी. जहां गुणवत्ता और अफॉर्डेबिलिटी का ध्यान इसमें रखा गया है, वहीं इसमें फोकस लोगों की जिंदगी को बेहतर करके अपने मानव संसाधन को भी अच्छा बनाया गया. चलिए जरा कुछ उदाहरणों पर नजर डालते हैं.

  1. ‘आप’ की सरकार ने अपने पहले बजट में शिक्षा के लिए सरकारी आवंटन में 106 % बढ़ाने की घोषणा की. इससे दिल्ली भर के सरकारी स्कूलों को 8,000 से अधिक नई कक्षाएं बनाने की इजाजत दी गई और 12,000 से अधिक कक्षाओं को नई सुविधाओं (प्रयोगशालाओं, कॉन्फ्रेंस सुविधाओं) से लैस किया गया है.

  2. शिक्षकों और कर्मचारियों के प्रदर्शन को बेहतर करने के लिए इस बात की कोशिशें की गई. सिंगापुर के राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान में 200 से अधिक शिक्षकों को भेजने की पहल हुई ताकि दिल्ली के स्कूलों की पढ़ाई लिखाई बेहतर हो सके.

  3. इसी तरह अगर AAP की मोहल्ला क्लीनिक वाली स्कीम को देखें तो लगता है कि ये उन लोगों के लिए काफी फायदेमंद साबित हुई है जहां मरीज का भर्ती होना जरूरी नहीं था और वो महंगा इलाज कराने में सक्षम नहीं थे. दिल्ली में 300 से ज्यादा मोहल्ला क्लीनिक और 212 लैब टेस्ट हैं जहां जेनेरिक दवाइयां मुफ्त दी जाती हैं और टेस्ट के भी पैसे नहीं लगते.

  4. पूरी दिल्ली में सरकारी स्कूलों में शिक्षा और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की बेहतर गुणवत्ता ने 'व्याहारिक विकल्प' के रूप में आप की सकारात्मक छवि बनाई है. इससे हाल ही में पंजाब में विपक्षी पार्टी रही AAP को सरकार बनाने में भी मदद मिली.

जहां बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच बढ़ाने के मामले में आप ने दिल्ली में अच्छा प्रदर्शन किया, वहीं उत्तर प्रदेश की 'डबल इंजन सरकार' (योगी-मोदी गठबंधन), अपनी खराब वित्तीय स्थिति और उच्च ऋण अनुपात के साथ कोई भी दमदार सुधार करने में फेल रही है. शिक्षा, स्वास्थ्य और नौकरी के मौके पैदा करने में राज्य का रिपोर्ट कार्ड अच्छा नहीं है.
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मानव संसाधन उतना ही अहम जितना रोड, फ्लाईओवर

कुछ लोग तर्क रख सकते हैं किसी राज्य की GDP से ज्यादा अगर कर्ज बढ़ जाए और खासकर कोविड जैसे हालात हों तो सामाजिक-आर्थिक विकास पर सरकार के हाथ खर्च करने को लेकर बंधे होते हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्य अगर इन हालात में ज्यादा अपना खर्च बढ़ाते हैं तो उन पर नई मुश्किलें आ सकती हैं. क्योंकि सरकार अपनी पूंजी तभी ज्यादा खर्च कर सकती हैं जब उस पर उन्हें रिटर्न ज्यादा आए.

नीचे के आंकड़ा बताते हैं कि पंजाब, राजस्थान, केरल, पश्चिम बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्य बहुत ज्यादा कर्ज के बोझ तले दबे हैं. देश के आधे राज्य जितना खर्च करते हैं उससे ज्यादा तो ये 10 राज्य खर्च कर देते हैं. दूसरे भी कई सूचकांक से इन राज्यों के रिस्क के बारे में पता चलता है. उनका ग्रॉस फिस्कल डेफिसिट और ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट का रेश्यो 2021-22 में 3% से ज्यादा था.

ये रेवेन्यू डेफिसिट से अलग हुआ घाटा है, इसमें सिर्फ उत्तर प्रदेश और झारखंड शामिल नहीं है. इससे भी ज्यादा इन 8 राज्यों में इंटरेस्ट पेमेंट टू रेवेन्यू रिसीप्ट यानि IP-RR रेश्यो (जिससे राज्यों के रेवेन्यू पर कर्ज के बोझ का पता चलता है ) 10 फीसदी से ज्यादा था.

और हां यह सही है कि ज्यादा कर्ज किसी भी सरकार को सामाजिक सुविधा जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी की गारंटी पर खर्च करने से रोकती है. लेकिन इस बात को देखना चाहिए कि मानव संसाधन पर खर्च करना, सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारी निभाना किसी सरकार के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि रेलवे, रोडवे, बिल्डिंग बनाने जैसे इंफ्रा प्रोजेक्ट पर खर्च करना.

हालांकि किसी प्रोजेक्ट को शुरू करने में आने वाले खर्च और उसके नतीजों के सूचकांक पर फिस्कल आकंड़ों की पारर्दशिता और जवाबदेही पर कई सवाल हैं लेकिन यह जानना बहुत मुश्किल है कि बजट में कहां पर किसी प्रोजेक्ट को शुरू करने पर पैसा खर्च किया जाता है और कहां पर हकीकत में पैसे ट्रांसफर किए जाते हैं.

फिर भी, सामाजिक सेक्टर पर पैसा खर्च करना राज्यों के लिए जरूरी है चाहें वो राज्य कमजोर फिस्कल कैपिसिटी वाले ही क्यों ना हों..ये कीन्स मॉडल है. इसमें कमजोर फिस्कल होने के बाद भी अगर राज्य अपने खर्चे सोशल सेक्टर पर बढ़ाता है तो इससे डिमांड बढ़ती है और इसका मल्टीप्लाइर इफेक्ट से ग्रोथ में मदद मिलती है.

सामाजिक विकास पर खर्च का चुनावी फायदा !

मैंने पहले भी डेटा के जरिए इन चीजों का विश्लेषण कर तर्क दिया था कि दिल्ली में AAP का 'कल्याणकारी शासन' मॉडल क्यों महत्वपूर्ण है ?

आंकड़ों से पता चलता है कि सामाजिक और आर्थिक विकास पर खर्च पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और केरल में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (LDF) के शासन में भी दिखता है. ये बीजेपी के खिलाफ एक वैकल्पिक 'क्षेत्रीय' विरोध की ताकत बनी . BJP ने सामाजिक कल्याण पर अपने खर्च काफी घटा दिया है, जैसा कि यूपी के मामले में देखा गया है.

यूपी की दयनीय दशा

सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज CNES ने साल 2021 का एक्सेस इक्विलिटी इंडेक्स (AEI) डाटा को देखा. इससे ये पता चला कि कैसे दिल्ली (जहां कई मल्टी पार्टी शासन है ) पश्चिम बंगाल, केरल, यहां तक कि गोवा और सिक्किम भी यूपी की तुलना में सामाजिक और आर्थिक रैकिंग में बेहतर हैं. राज्यों के प्रदर्शन को लेकर 0.67-0.23 की रेंज वाली तीन कैटेगेरी तैयार की गई. जो 0.33 से कम थे वो ‘एस्पिरेंट’ राज्य थे जो 0.42-0.33 के बीच थे वो अचीवर्स और जो 0.42 के ऊपर थे वो फ्रंट रनर्स थे. बिहार, यूपी, झारखंड, असम, ओडिशा, और मध्य प्रदेश सभी एस्पिरेंट की कैटेगरी में आते हैं जहां सामाजिक-आर्थिक विकास पर लगातार कदम उठाए जाने की जरूरत है.

महाराष्ट्र, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, मणिपुर और मेघालय जैसे राज्य अचीवर्स की कैटेगरी में आते हैं. इन राज्यों में सामाजिक-आर्थिक सुविधाएं ज्यादा हैं और इन्हें अभी और ज्यादा प्रयास करना चाहिए ताकि वो अगली कैटेगरी में पहुंच पाएं.

वहीं गोवा, सिक्किम, तमिलनाडु , केरल और हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, पंजाब , मिजोरम और कर्नाटक फ्रंट रनर हैं जो अपने राज्य के लोगों के लिए बेहतर सामाजिक और आर्थिक सुविधाएं मुहैया करा रहे हैं.

यहां पर भी दिल्ली फ्रंट रनर बना था जिसे इंडेक्स पर 0.49 का स्कोर मिला वहीं उत्तर प्रदेश सबसे निचले पायदान पर था जिसका स्कोर 0.28 फीसदी था.

इस प्रकार योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार की हालिया चुनावी जीत के बावजूद, उत्तर प्रदेश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति की वास्तविकता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में बीजेपी की अग्निपथ योजना के विरोध में हाल ही में युवाओं ने निराशा, बेरोजगारी, नौकरी के कम मौके और खराब सामाजिक विकास के खिलाफ जो गुस्सा जताया वो कई वजह से चिंताजनक है.

(दीपांशु मोहन सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज, जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर और डायरेक्टर हैं. वह अर्थशास्त्र विभाग, कार्लटन यूनिवर्सिटी, ओटावा, कनाडा में अर्थशास्त्र के विजिटिंग प्रोफेसर हैं. यह एक राय है. इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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