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कुछ दिन पहले जब मैं नोएडा के डीएलएफ मॉल की चकाचौंध के बीच कैफे कॉफी डे के बंद पड़े आउटलेट के सामने से गुजर रहा था तो मेरे दिमाग में बॉब डिलेन का वह उदास गाना बज रहा था-
कम गैदर ‘राउंड फ्रेंड्स एंड आईविल टेल यू ए टेल
ऑफ वेन द रेड आयन पिट्स रैन अ प्लेंटी
बट द कार्डबोर्ड-फिल्ड विंडोज एंड ओल्ड मेन ऑन द बेंचेज़
टेल यू नाऊ दैड द होल टाउन इज एंप्टी
(आओ दोस्तों, मैं तुम्हें वह कहानी सुनाऊं, जब लाल लोहे की ये खाइयां लोगों से भरी होती थीं, लेकिन अब गत्तों से भरी खिड़कियां और बेंच पर बैठे बुजुर्ग बताएंगे कि वह पूरा कस्बा खाली है)
जोन बिएज की दर्दभरी आवाज में डिलन के इस गाने में उस कस्बे की कहानी कही गई थी जहां लौह अयस्क की खानें थीं लेकिन अब उस कस्बे के बुरे दिन चल रहे हैं. कभी लोगों से लबालब भरे, कॉफी की खुशबू वाले कैफे कॉफी डे की हालत भी वैसी ही महसूस हुई. बंद पड़े आउटलेट के फर्नीचर पर लाल रंग का लोगो अब भी चमक रहा था लेकिन बाकी सब सुनसान था. उसकी कुछ ही दूर पर कोस्टा कॉफी का आउटलेट अच्छा कारोबार कर रहा था.
सीसीडी कभी विश्व फलक पर बड़े सपनों की उड़ान का दूसरा नाम था. मैं खुद से पूछता हूं कि क्या कर्ज में डूबने के बाद इस प्रतिष्ठित ब्रांड को सही तरीके से संभाला जा सकता था. इसी कर्ज के चलते उसके फाउंडर वीजी सिद्धार्थ की खुदकुशी से मौत हुई थी. मुझे याद आया कि नब्बे के दशक में बेंगलुरू की ब्रिगेड रोड पर स्थित सीसीडी के आउटलेट को भारत के पहले ‘साइबर कैफे’ के तौर पर जाना जाता था. तमाम दिक्कतों के बाद देश भर में धीरे-धीरे इसके आउटलेट्स खुलने लगे थे.
इस महीने की शुरुआत में बेंगलुरू में राष्ट्रीय कंपनी कानून ट्रिब्यूनल ने सीसीडी इंटरप्राइजेज के खिलाफ इनसॉल्वेंसी की याचिका को खारिज कर दिया. सीसीडी इंटरप्राइजेज कैफे चेन की मालिक है. वह एक साल से दिवालिया होने की कगार पर खड़ी है. कंपनी और उसके ऋणदाताओं के बीच काफी समय से टकराव चल रहा है.
इसके साथ ही फ्यूचर ग्रुप के बारे में भी जानिए. सीसीडी की ही तरह उसके बिग बाजार स्टोर्स भी कोविड-19 महामारी के चलते कर्ज के बोझ तले दब गए थे. इसे खरीदने का काम मुकेश अंबानी के रिलायंस रीटेल ने किया था.
किसी मुसीबतशुदा कंपनी के लिए अपने लेनदारों से कतराकर आईबीसी में जाना मुश्किल होता है, क्योंकि वहां परेशानी का हल होना आसान नहीं होता. यहां इंतजार लंबा होता है.
किंगफिशर एयरलाइन्स की सोचिए. जेट एयरवेज की सोचिए. दोनों एयरलाइन ब्रांड्स बुरे कर्ज से तबाह हो गईं. जेट बैंकरप्सी से बचने में कामयाब हो गई लेकिन उसने फिर आसमान नहीं देखा. किंगफिशर तो जमींदोज हो गई.
आईबीसी का गाथा दुखों से भरी है. ब्रांड्स की चमक फीकी पड़ जाती है. रियल ऐस्टेट धराशाई हो जाते हैं. कर्मचारी मनोबल और आमदनी खो देते हैं. कर्ज देने वाले बैंक, जिनकी बैलेंस शीट्स गड़बड़ा जाती हैं, देनदार का पीछा नहीं छोड़ते, जैसा कि फ्यूचर ग्रुप के मामले में हुआ, क्योंकि उन्हें एक अनुचित सौदे की भनक लग जाती है.
2021 में रेटिंग एजेंसी क्रिसिल की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2016 से आईबीसी की मदद से नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) या बुरे लोन्स से 2,50,000 करोड़ की रिकवरी हुई है जबकि दावे 7,00,000 करोड़ के हैं. यानी सिर्फ 36% की रिकवरी हुई है. सोचिए आपने किसी को कर्ज दिया है और वसूली प्रक्रिया से आपको अपना एक तिहाई पैसा ही वापस मिले. आपको कैसा महसूस होगा?
रेजोल्यूशन के लिए आने वाली 4,450 कंपनियों में से 1,350 कंपनियां लिक्विडेट हो गईं और 1,000 से ज्यादा बंद हो गईं- जबकि सरकार का इरादा कंपनियों को चलाना और उनसे कर्ज वसूलना था.
बहुत मेहनत से लिखा एक आर्टिकल बताता है कि आईबीसी एक अनुशासनात्मक उपाय और दिवालिया जैसी समस्या का समाधान करने वाली व्यवस्था है. लेकिन सच्चाई यह है कि यह एक ब्यूरोक्रैटिक टूल है जिसका मकसद अर्थव्यवस्था में रुकावट पैदा करने वाली बाधाओं को धीमी रफ्तार से खत्म करना है. अर्थशास्त्र में तरक्की के लिए मौके का बहुत मायने होता है, जोकि नष्ट होते कारोबार और अटकाव के चलते खो जाते हैं. क्या एक विशाल अर्थव्यवस्था में ब्यूरोक्रैटिक एकाउंटेंट्स के साथ उद्यमियों का सौदा करना सही है, जहां हर महीने लाखों लोग नौकरियों की तलाश में बाजार में दाखिल होते हैं.
व्यक्तिगत रूप से मैं एक ऐसे सरकारी विभाग को पसंद करूंगा (कम से कम बड़ी कंपनियों के मामले में) जो डूबती कंपनियों को बचाने के लिए नॉन प्रमोटर मैनेजर्स और कर्मचारियों के साथ मिलकर प्राइवेट इक्विटी इनवेस्टर्स को धर पकड़ने की कोशिश करे. स्ट्रैटेजिक माइनॉरिटी इनवेस्टर के रूप में एक बायआउट पार्टनर और एसेट रीकंस्ट्रक्शन कंपनियों के साथ साझेदारी करते हुए बैंक भी ज्यादा अच्छा काम करेंगे. आईबीसी प्रक्रिया की अर्ध न्यायिक प्रकृति को देखते हुए ऑउट ऑफ कोर्ट सेटेलमेंट पूरी व्यवस्था पर कम दबाव डालता- जैसे न्यायिक संरचना में मध्यस्थता प्रक्रियाएं करती हैं.
यह ध्यान देना जरूरी है कि रीटेल, एयरलाइंस और कैफे रोजगार आधारित सेवा क्षेत्र है. आईबीसी जैसे भोथरे तरीके उन पुराने कारखाना मालिकों पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं जिनकी एसेट्स की रीसेल वैल्यू होती थी. आईबीसी की कामयाबी की कहानियां बहुत कम हैं. क्योंकि भूषण स्टील के एसेट्स खरीदने की टाटा स्टील की या मोनेट इस्पात को खरीदने की जेएसडब्ल्यू स्टील्स की कहानी को अपवाद ही कहा जाएगा.
आधिकारिक तौर पर, कंपनियों को 180 दिनों के भीतर इनसॉल्वेंसी की प्रक्रिया को पूरा करना पड़ता है जब तक लेनदार समय सीमा पर ऐतराज नहीं जताते, जोकि अक्सर होता है. कौन जल्दबाजी में हेयरकट के जरिए अपना पैसा छोड़ना चाहेगा.
फ्यूचर ग्रुप के मामले में, कर्जदाता ज्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक हैं जिन्होंने फ्यूचर को 28,000 करोड़ रुपये का कर्ज दिया है. वे फ्यूचर ग्रुप की अन्य कंपनियों को बैंकरप्सी प्रक्रिया के तहत लाने की योजना बना रहे हैं, क्योंकि रिलायंस ने अपने बायआउट सौदे को रद्द कर दिया है. रिलायंस अमेजन जैसे ग्लोबल जाइंट के साथ पहले ही तकरार किए बैठा है. आपको तस्वीर साफ दिख रही है. ऐसा लगता है कि पूरी प्रक्रिया में नए ऐतराज जताए जा रहे हैं और नए विकल्प पेश किए जा रहे हैं. 180 दिनों की समय सीमा सिर्फ कागज पर अच्छी लगती है. असल में आईबीसी प्रक्रिया नौकरशाही के घावों पर न्यायिक नमक झिड़कने का मामला है.
(लेखक सीनियर जर्नलिस्ट और कमेंटेटर हैं जो रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के साथ काम कर चुके हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @madversity है.)
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