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PM मोदी की विदेश यात्राएं-G20 में जोरदार प्रचार, 2024 का लॉन्च पैड हो रहा तैयार?

G20 Summit 2023: बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत की G20 अध्यक्षता वास्तव में "लोगों का उत्सव" है?

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>भारत इस साल G20 शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहा है&nbsp;</p></div>
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भारत इस साल G20 शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहा है 

(फोटो: द क्विंट)

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करीब दो महीने पहले एक पत्रकार ने चौंकाने वाली और अविश्वसनीय लगने जैसी रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) और उनके पूर्ववर्ती यानी डॉ. मनमोहन सिंह (Dr. Manmohan Singh) की विदेश यात्राओं की तुलना की गई थी. इसमें एक जो पहला सवाल था वो यह था कि दोनों में से आखिर किसने भारत से बाहर सबसे ज्यादा यात्राएं की हैं ?

इस तरह के सर्वे में, इस बात की संभावना है कि 10 में से 10 नहीं तो कम से कम 8 या 9 लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लेंगे.

ज्यादातर लोगों का यह जवाब कि पीएम मोदी ने मनमोहन सिंह की तुलना में कहीं अधिक विदेश यात्राएं की हैं, यह एक धारणा या पर्सेप्शन पर आधारित होगी. राजनीति में व्यक्तिगत प्रभाव या आकलन ही मायने रखता है. लेकिन, केबीसी में बिग बी की स्टाइल में कहें तो यह "गलत जवाब है."

ताबड़तोड़ विदेश दौरे: भारतीय प्रधानमंत्री का ट्रेडमार्क ?

दोनों प्रधानमंत्रियों की विदेश यात्राओं के आंकड़ों की तुलना करने के लिए कट-ऑफ की तारीख 15 जुलाई थी, जिस दिन मोदी फ्रांस से लौटे थे. जहां वो फ्रांस में बैस्टिल दिवस तो वहीं संयुक्त अरब अमीरात के सम्मानित अतिथि थे.

तब से मोदी दो और विदेश यात्राओं पर गए हैं. 22-25 अगस्त के बीच में दक्षिण अफ्रीका और ग्रीस की यात्रा. इसके बाद वो 6-7 सितंबर को आसियान-भारत शिखर सम्मेलन और 18वें पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के लिए इंडोनेशिया गए थे.

पत्रकार की प्रकाशित रिपोर्ट के आंकड़ों में इन छह दिनों को जोड़ने के बाद, मोदी और सिंह की विदेश यात्राओं के बीच तुलना इस प्रकार है. अपने शासन के दस वर्षों में से, मनमोहन सिंह ने कुल 313 दिन विदेश में बिताए जबकि मोदी अब तक भारत से बाहर विदेशों में 279 दिन रहे हैं.

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से आगे निकलने के लिए अभी PM मोदी को 34 दिनों के लिए और विदेश दौरे पर रहना होगा. उनके पास इस टर्म में अभी और लगभग 240 दिन हैं - जिसका अर्थ है कि उन्हें हर सात दिनों में कम से कम एक बार विदेशी दौरे पर होना होगा.

ग्लोबल मंचों पर मोदी का 'जनसंपर्क' कौशल

यहां यह ध्यान देने की बात है कि PM मोदी की कई यात्राएं ऐसे देशों की थीं जहां पहले किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने कभी दौरा नहीं किया था या फिर कई दशकों से उस देश नहीं गए थे. मंगोलिया, फिलिस्तीन, रवांडा, फिजी, सेशेल्स, मोजाम्बिक और स्वीडन जैसे विभिन्न देशों में रिकॉर्ड बनाने वाली इन यात्राओं के अलावा, मोदी हाई वोल्टेज प्रचार और हर यात्रा के साथ पब्लिक शोमैनशिप के कारण भी मनमोहन सिंह से आगे निकल गए.

मोदी के विदेश दौरों की एक और बहुत महत्वपूर्ण खासियत है भारतीय प्रवासियों के साथ लगभग हर देश में अनिवार्य तौर पर इवेंट रखना. सितंबर 2014 में संयुक्त राज्य अमेरिका की अपनी पहली यात्रा से लेकर ग्रीस में भारतीयों के साथ अपने नवीनतम जुड़ाव तक, हर पड़ाव पर, मोदी ने हमेशा भारतीय प्रवासियों के लिए समय निकाला और हर एक मौकों पर उन्हें संबोधित किया.

सितंबर 2014 में मैडिसन स्क्वायर गार्डन में हजारों अमेरिकी भारतीयों को संबोधित करना मोदी के लिए निस्संदेह एक 'बड़ी' बात थी.

उनके लिए जबरदस्त समर्थन, एक रॉकस्टार जैसी फैन फॉलोइंग अमेरिकी सत्ता-प्रतिष्ठान को हैरान-परेशान करने वाला था.

लेकिन मोदी की यह यात्रा और MSG कार्यक्रम बाद की सभी यात्राओं के लिए आदर्श बन गया, जिसमें ग्रीस की नवीनतम यात्रा भी शामिल है. जहां एक छोटे से भारतीय समुदाय ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और भारतीय मीडिया में इसकी विधिवत रिपोर्टिंग कराई गई.

तब यह भी स्पष्ट हो गया था कि भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर विदेशों में मोदी का जो मान-सम्मान और स्वागत हो रहा है उसको भारत में बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाएगा. इसके साथ ही वह यह भी सुनिश्चित करेंगे कि उनका चुनावी समर्थन और भारी संसदीय बहुमत पर्याप्त रूप से पेश किया जाए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विदेशी सरकार उनके साथ उस सम्मान के साथ व्यवहार करे जिसका 140 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि हकदार है.

विदेशों के लिए संदेश साफ था. साल 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर उनके अतीत को कतई नहीं उठाया जाए.

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भारतीय शहरों और कस्बों में G20 बैठकें

जब भारत ने दो बार कुर्सी की अदला-बदली के बाद G20 की अध्यक्षता संभाली, पहले 2021 में इटली के साथ और फिर 2022 में इंडोनेशिया के साथ, तो यह स्पष्ट था कि इसका उपयोग मोदी 2024 चुनाव के लिए एक वर्चुअल लॉन्च पैड के रूप में करेंगे.

भारत सरकार ने अपनी अध्यक्षता का बहुत इनोवेटिव तरीके से यह संदेश देने के लिए उपयोग किया है कि वह सम्मेलन स्थलों के विकेंद्रीकरण में विश्वास करती है और सिर्फ दिल्ली-केंद्रित नहीं है.

इस साल नवंबर के अंत तक, जब भारत की अध्यक्षता खत्म हो जाएगी, तब तक देश के सभी 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों के 60 शहरों में 220 से अधिक बैठकें हो चुकी होंगी. पिछले साल इस योजना की घोषणा के बारे में पड़ताल से पता चला कि पूरा आइडिया "ऊपर से आया था".

यह संभव है कि मोदी या उनके निकटतम सलाहकारों की राय रही होगी कि G20 बैठक स्थलों के विकेंद्रीकरण से द्वितीय और तृतीय श्रेणी के शहरों में रहने वाले भारतीयों में यह विश्वास पैदा होगा कि उनका शहर भी अहम राजनयिक कार्यक्रम की मेजबानी करने योग्य है.

इन G20 डेलीगेट्स की बैठकों ने लोगों को स्थानीय संस्कृति का प्रदर्शन करने और इन बैठकों में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों को देश की व्यापक विविधता को बताने का मौका भी दिया.

राजनेताओं, विशेषकर मोदी के लिए, कोई भी गतिविधि तब तक रुचिकर नहीं होती जब तक वह राजनीतिक और चुनावी रूप से फायदेमंद ना हो. तो बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत की G20 अध्यक्षता वास्तव में "लोगों का उत्सव" है या फिर शिखर सम्मेलन.

भारत की अध्यक्षता का जोरदार प्रचार, लेकिन इसका फायदा किसको ?

पूरे आयोजन का उपयोग मोदी की छवि को प्रचारित करने और उनकी कल्ट यानि आभा को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है. यह सभी दीवार पर दिखती है. इस तरह की प्रचार को एक विदेशी अखबार ने "बार्नस्टॉर्मिंग फ्लेयर" कहा है.

पूरे भारत के शहरों-कस्बों, हजारों किलोमीटर लंबी सड़कों और राजमार्गों को या तो मोदी की तस्वीर या G20 लोगो से पाट दिया गया है. स्मारकों को रोशन किया गया है और लोगों को G20 लोगो के साथ सोशल मीडिया पर सेल्फी डालने के लिए कहा गया है - ताकि भागीदारी की भावना उसी तरह बढ़ाई जा सके जैसा कि संघ परिवार 1989 राम शिला यात्रा जैसे कार्यक्रमों की तरह करता आ रहा है.

दरअसल पूरा प्रयास यह बताने के लिए है जो न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी लिखा है, "भारत को उसके साथियों ने निजी तौर पर इस मेजबानी के लिए चुना है, न कि भारत को सिर्फ रोटेशन के हिसाब से मेजबानी मिली है."

ये लाइन इस फैक्ट को संदर्भित करती है कि शिखर सम्मेलन की मेजबानी करना वास्तव में कोई बड़ी 'उपलब्धि' नहीं है क्योंकि समूह की अध्यक्षता का जो सिस्टम है उसके हिसाब से भारत को मेजबानी मिलनी ही थी.

हालांकि, इससे बीजेपी को कम से कम मुखर मिडिल क्लास के बीच फायदा तो जरूर हुआ है.

कैसे G20 ने मोदी की लोकप्रियता को बढ़ाया है?

सरकारें अक्सर अपनी और अपने नेताओं की सार्वजनिक छवि को मजबूत करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और आयोजनों का उपयोग करती हैं. इंदिरा गांधी ने साल 1983 के मार्च महीने में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के शिखर सम्मेलन और नवंबर में राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्षों की बैठक (CHOGM) की मेजबानी की थी.

लेकिन शुरुआत में लोगों ने इसे सकारात्मक रूप से देखा, फिर भी यह तत्कालीन प्रधानमंत्री के लिए चुनावी समर्थन में नहीं बदला क्योंकि वो पंजाब में संघर्ष का समाधान नहीं कर पाई थीं.

एक लोकप्रिय सर्वेक्षण के अनुसार, एक बड़े बहुमत (68%) का विचार है कि भारत का वैश्विक प्रभाव मजबूत हो रहा है. जाहिर है, उनकी इस सोच का श्रेय मोदी को जाएगा. सर्वेक्षण रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 79% भारतीयों का मोदी के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण है, जिनमें 55% ऐसे भी हैं जो "बहुत अनुकूल" दृष्टिकोण रखते हैं.

हालांकि, ये नतीजे जनसांख्यिकी या क्षेत्रवार नहीं निकाले गए हैं. फिर भी देश के नाम में बदलाव या फिर संसद के विशेष सत्र को लेकर बीजेपी की ओर से प्रदर्शित राजनीतिक अनिश्चितता सर्वेक्षण के नतीजों पर ज्यादा उम्मीदें नहीं जगाती हैं.

मोदी विश्व स्तर पर इसे नजरअंदाज भी नहीं कर सकते हैं, हालांकि दुनिया के 46% वयस्क भारत को लेकर अनुकूल विचार रखते हैं, लेकिन 34% का एक बड़ा औसत भारत के बारे में प्रतिकूल विचार रखता है. इसके अतिरिक्त, लगभग 37% लोगों ने मोदी पर भरोसा जताया, जबकि लगभग 40% का कहना है कि उन्हें मोदी में यकीन जरा कम है.

जैसा कि अपेक्षित था, “दूसरों की तुलना में भारतीयों को यह विश्वास होने की अधिक संभावना है कि भारत की शक्ति बढ़ रही है. लगभग दस में से सात भारतीयों का मानना है कि उनका देश हाल ही में अधिक प्रभावशाली हो गया है. इसके विपरीत, 19 देशों में केवल 28% उत्तरदाता ऐसा ही मानते हैं.

इन लोगों ने पिछले साल भी अपने ऐसे ही विचार रखे थे. इसका अर्थ है कि उनके लिए, भारत का कद मोदी के G20 अध्यक्षता से नहीं बढ़ा है.

संभवतः इसी कारण से मोदी अपनी उपलब्धियों को और भुनाने की तैयारी में हैं और संसदीय चुनावों के अगले दौर के लिए एक तुरुप के पत्ते या ब्रह्मास्त्र की तलाश में हैं.

(लेखक की नई किताब 'द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रीकॉन्फिगर इंडिया' है. उनका ट्विटर आईडी @NilanjanUdwin है. यह एक ओपिनियन है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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