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अगर कोई गलतफहमी हो तो दूर कर लें, लेकिन नई दिल्ली में हुए दुनिया के नेताओं के G20 समिट (G20 Summit) के अध्यक्ष के तौर पर भारत और सत्ता के खेल में माहिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों को जीत मिली है, हालांकि बहुत सी चीजों पर आप उंगली उठा सकते हैं.
इसके अलावा यह समझने में भी कोई गलती नहीं होनी चाहिए कि दिल्ली घोषणा पत्र (Delhi Declaration) को लेकर मिली जीत दशकों से चली आ रही विदेश और आर्थिक नीति की जीत है. ऐसा नहीं है कि मोदी के आने के बाद इसमें कोई बड़ा बदलाव आया है, जिस वजह से भारत को जी20 में सफलता मिली. फिर दिल्ली घोषणा पत्र का कोई भी मुद्दा हो... यूक्रेन में युद्ध से लेकर डिजिटल टेक्नोलॉजीज और टिकाऊ विकास तक.
दुनिया की बड़ी और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के एक अंतरसरकारी मंच के रूप में G20 का गठन आधिकारिक तौर पर 1999 में किया गया था, लेकिन इसका इतिहास 1975 से शुरू होता है, जब अमीर देशों का एक क्लब G6 के नाम से बनाया गया था. इसमें और भी देशों के नाम गिटार की कॉर्ड्स की तरह जुड़ते चले गए: G7, G8 और फिर 2014 में रूस को बाहर करने के बाद यह फिर G7 बना.
मुझे 1992 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के साथ पश्चिम अफ्रीकी देश सेनेगल के डकार में उस शिखर सम्मेलन में शामिल होने के बारे में याद है, जो तीन दशक पहले विकसित देशों के बीच G15 नाम से सक्रिय ग्लोबल साउथ की आवाज बना था.
बाद में 2007 में मैंने बर्लिन में G8 शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ सफर किया था, जहां भारत 10 खास आमंत्रित सदस्यों में से एक था. उस समय तक भारत को सिर्फ “विकासशील देश” से आगे बढ़कर एक “उभरती अर्थव्यवस्था” घोषित किया जा चुका था और फिर पहला आधिकारिक शिखर सम्मेलन आयोजित करने के चार साल बाद 2013 में आठवें जी20 शिखर सम्मेलन के लिए सेंट पीटर्सबर्ग भी गया.
मोदी के नेतृत्व में उभरते हुए भारत के सफर में बड़ा योगदान दक्ष कूटनीति के साथ आत्मविश्वास से लबरेज और डिजिटल सरकारी बुनियादी ढांचे के माध्यम से डिजिटल परिवर्तन में अग्रणी के रूप में भारत की वैश्विक स्थिति रही है, जिसका जिक्र G20 डिक्लेरेशन में हैं.
इसका श्रेय आधार यूनिक आइडेंटिफिकेशन प्रोजेक्ट और इसके 'वित्तीय चचेरे भाई' यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस (UPI) को जाता है. भारत की ये मिसाल पूरी दुनिया के लिए फायदेमंद हो सकती है. 2009 में डॉ मनमोहन सिंह के शासन काल में आधार की शुरुआत की गई थी. मोदी ने इसमें पूरी ताकत झोंक दी और जलवायु परिवर्तन (Climate Change) का सामना करने के लिए दुनिया के लिए ग्रीन इनिशिएटिव की एक शानदार पहल की, जिसमें डिजिटल और टिकाऊ परियोजनाएं भारत को दुनिया में खास मुकाम दिलाती हैं.
कूटनीति के मोर्चे पर भारत ने एक ओर रूस, चीन और दूसरी ओर पश्चिम देशों सहित अमेरिका और यूरोपीयन यूनियन के बीच कामयाबी के साथ संतुलन कायम रखा है.
इसमें भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों के एक समूह की काफी मदद मिली है, जो रूसी और चीनी भाषा बोलने में माहिर और ऐसे शब्दों को खोजने से भी मदद मिली जिससे विवाद की बजाय ‘आम सहमति’ बनी. अगर IAS को ‘भारत का स्टील फ्रेम’ कहा जाता, तो IFS को ‘भारत का फुर्तीला नर्वस सिस्टम’ कहा जा सकता है.
G21 में 21वें सदस्य के तौर पर अफ्रीकी यूनियन को शामिल करना इस बात का प्रतीक है कि कभी अमीर लोगों का क्लब माना जाने वाला संगठन दुनिया की आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों से निपटने के लिए एक समावेशी, मानवीय संगठन बन रहा है.
यह हमें भारत मंडपम में उस जगह खुलकर दिखे शोशे की ओर ले जाता है, जिसे इंदिरा गांधी के जमाने में ‘प्रगति मैदान’ के नाम से जाना जाता था.
भारत की कला और विरासत को दर्शाने के लिए कार्यक्रम स्थल पर पीएम मोदी द्वारा इस्तेमाल किए गए हिंदू सांस्कृतिक प्रतीकों को आलोचकों द्वारा अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम की आड़ में धर्म की राजनीति खेलने के तरीके के तौर पर देखा जा सकता है और जरूरी नहीं कि वे गलत हों. लेकिन इसी तरह यह भी याद रखना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी का न तो वसुधैव कुटुंबकम् (संसार एक परिवार है) का नारा, और न ही हिंदू प्रतीकवाद और हिंदू राष्ट्रवाद के प्रति लगाव पर का एकाधिकार है.
कर्नाटक संगीत की दिग्गज हस्ती एमएस सुब्बुलक्ष्मी ने अक्टूबर 1966 में संयुक्त राष्ट्र महासभा (तब भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं) में कांची के हिंदू पुजारी श्री चन्द्रशेखरेंद्र सरस्वती की लिखी एक प्रार्थना गाई थी. इसके बोल इस तरह हैं:
क्या वह पुतिन को उनके यूक्रेन पर हमले से बहुत पहले ही समझा रही थीं?
ऐसा लग सकता है कि मोदी के प्रशंसक भारत को विश्वगुरु बनाने की बात की हिमायत करते हैं, जो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में खुद को आगे बढ़ाने के लिए ऊंचे नैतिक मानदंडों का हवाला देते हुए देश की पुरानी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.
दिलचस्प बात यह है कि G21 एक तरह के छोटे संयुक्त राष्ट्र के रूप में उभरा है, जो ऐसा लग रहा है कि जैसे धीरे-धीरे प्रासंगिक हो रहा है और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की जगह ले रहा है.
हम इस बात पर चुटकी ले सकते हैं कि देश की राजधानी में चारों तरफ मोदी के चेहरे वाले पोस्टर लगे मिलेंगे, सुरक्षा के लिए नई दिल्ली में लॉकडाउन जैसी स्थिति बनी और मेहमानों से गरीबों की बस्तियों की गंदगी छिपाने के लिए पर्दे लगाए गए.
आलोचक मोदी द्वारा समावेशी की बात करने की विडंबना पर भी बात कर सकते हैं, जहां उनकी खुद की सरकार में घरेलू स्तर पर बात नहीं करने का आरोप लगाया जाता है, जहां उनकी पार्टी पर गलत तरीके से धार्मिक गर्व को बढ़ावा देने और बहुलवाद की उपेक्षा करने का आरोप लगाया जाता है.
इन सबके बावजूद, इसमें कोई शक नहीं है कि दिल्ली शिखर सम्मेलन की कूटनीतिक सफलता आसानी से मोदी पर लगे आरोपों को मिटा देगी. यह देखना बाकी है कि अगले साल होने वाले आम चुनावों में उन्हें जी20 का फायदा मिलता है या नहीं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकॉनमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनसे X पर @madversity पर संपर्क किया जा सकता है. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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