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जॉर्ज फ्लॉयड प्रोटेस्ट: US के श्वेतों से सीखेंगे भारतीय सवर्ण?

भारतीय और अमेरिकी समाज में मानसिक ईमानदारी के क्षेत्र में बड़ा अंतर है

डॉ. उदित राज
नजरिया
Updated:
अमेरिका में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन 
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अमेरिका में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन 
(फोटो: AP)

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अमेरिका इस वक्त हिंसक आंदोलन के दौर से गुजर रहा है. मिनेसोटा में एक श्वेत पुलिस अधिकारी ने अश्वेत की हत्या कर दी. इसके बाद कई इलाके जल पड़े जब अमेरिका के राष्ट्रपति ने ट्वीट किया कि जैसे ही लूट शुरू होती है उसी के साथ गोली चलनी चाहिए. इससे अमेरिका में और गुस्सा भड़क गया, तमाम शहर जैसे लॉस एंजेलिस और वॉशिंगटन आदि में भारी प्रदर्शन खड़ा हो गया.

विरोध केवल अश्वेत नहीं कर रहे, बल्कि श्वेत भी बड़ी संख्या में शामिल हो रहे हैं. श्वेत हाथ में पट्टी लेकर शामिल हो रहे हैं . उन पट्टियों पर लिखा है कि ‘व्हाइट साइलेंस इज वायलेंस’. इसका मतलब अगर इस अवसर पर गोरे चुप हैं तो अर्थ है कि वो हिंसा का पक्ष ले रहे हैं. भारत के लिए भी यह बात सही है और इस पर विचार होना चाहिए.

अश्वेतों को यूरोपीय लोगों ने भारी पैमाने पर गुलाम के तौर पर खरीदा. जिस तरह से आम वस्तुओं का मोलभाव होता है, उसी तरह से इनका होता था. इनको भोजन देकर तंदुरुस्त किया जाता था ताकि कीमत बढ़िया मिले. यूरोप से जब गोरे अमेरिका जाने लगे तो अपने साथ इनको भी ले गए. उस समय इनकी कीमत एक जानवर की तरह थी. अमेरिका के महान राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने इस दास प्रथा पर रोक लगाई.

भारत में हम देखते हैं यहां दलित और सवर्ण में रंगभेद नहीं है और हजारों वर्षों से साथ में रह रहे हैं. लेकिन वहां अश्वेतों और यहां दलितों के साथ भेदभाव जगजाहिर है. देश के लोगों को यह जानना बहुत जरूरी है कि भेदभाव का आधार और समायोजन क्या है. हमारे यहां अब बहस छिड़ेगी कि भेदभाव तो हर जगह है और यह कोई असाधारण बात नहीं है. मगर ऐसा है नहीं .

1955 तक अमेरिका में हालत यह थी कि गोरे का अधिकार बस आदि में बैठने का प्रथम हुआ करता था. इस साल में एक महिला जिसका नाम रोजा पार्थ था. उस भेदभाव वाले नियम को तोड़ते हुए अपनी सीट पर बैठी रही और गोरे खड़े थे. इस बात पर उस महिला को काफी अपमानित किया गया. इसके बाद पूरे अमेरिका में जबरदस्त विरोध हुआ.

हमारे यहां संविधान में आरक्षण की व्यवस्था है, इसके बावजूद बहुत मुश्किल से लागू किया जाता है. इसके विपरीत अमेरिका में अफर्मेटिव पॉलिसी है. एक तरह से वहां की सरकार की सलाह है कि अश्वेतों को नौकरी दी जाए. कठोर नियम न होने के बावजूद गोरे ईमानदारी से इसे लागू करते हैं.

बड़ी-बड़ी कंपनियां वार्षिक लेखा-जोखा पेश करती हैं तो बड़े गर्व से यह भी घोषित करती हैं कि उन्होंने अपने यहां अश्वेतों को कितनी भागीदारी दी. जिस तरह से मिनेसोटा की घटना के बाद तोड़फोड़, आगजनी, संपत्ति की लूट दिन दहाड़े अमेरिका के तमाम शहरों में हो रही है, अगर यहां के दलित करते तो हजारों को मौत के घात उतार दिया जाता और लाखों को जेल में डाल देते. दो अप्रैल 2018 को यहां के दलितों ने भारत बंद किया तो सवर्ण समाज के द्वारा 10 दलितों की हत्या कर दी गई, इसके विपरीत अमेरिका में गोरे ना केवल कालों के साथ विरोध प्रदर्शन में हिस्सा ले रहे हैं बल्कि आंदोलन का नेतृत्व भी कर रहे हैं. यहां आए दिन दलितों की हत्या, बलात्कार, घर जलाने की घटना, नरसंहार आदि की घटनाएं होती रहती हैं. क्या भारत के सवर्ण वो कर पाएंगे जो अमेरिका के गोरे कर रहे हैं. रोहित वेमुला केस, उना कांड, पायल तडवी के साथ हुई घटना के खिलाफ कितने सवर्णों ने आंदोलन किया? जाति भेद का स्रोत धर्म है जबकि शत-प्रतिशत ईसाई बने अश्वेत को धर्म में बराबरी का स्थान है.

इसमें संदेह नहीं कि काले गोरों में असमानता है, लेकिन जिस रफ्तार से श्वेतों नेअश्वेतों को साथ लिया है, इस देश में ना कभी हुआ है, ना कभी होने के आसार लगते हैं.

अमेरिका में पांच अश्वेत बिलेनियर हैं और उसके विपरीत भारत में एक दलित भी नहीं. अश्वेतों की आबादी वहां 12 प्रतिशत है, भारत में दलित-आदिवासी की आबादी 26 फीसदी है. अश्वेत मिलेनियर 8 फीसदी हैं. इस तरह से देखा जाए तो अमेरिका की अर्थव्यवस्था में कालों की संतोषजनक उपस्थिति है.

खेल के क्षेत्र में अश्वेतों का बोलबाला है. मनोरंजन और फिल्म उद्योग में गोरे खुद अश्वेतों को अपने स्तर पर बढ़ावा देते है. इनकी आबादी की तुलना में कहीं ज्यादा प्रतिनिधित्व है. पत्रकारिता के क्षेत्र में तो अश्वेतों की अच्छी खासी संख्या है. 2015 में अखबारों में 1560 अश्वेत पत्रकार थे . व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में ऊंचे स्थान पर 3.2 फीसदी, जबकि भारत में शून्य. अमेरिका ने एक अश्वेत को 8 साल तक के लिए राष्ट्रपति भी बनाया जो दुनिया का सबसे ज्यादा ताकतवर पद है.

अमेरिकी लोगों की मानवता, ईमानदारी और न्याय की जो भावना है, उसी की वजह से आज अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश है.

मुश्किल से 300 साल पहले बना अमेरिका, उसके विपरीत भारत का इतिहास 3000 साल से ज्यादा का है. क्या यहां के सवर्णों में उतना दम है जो अपने समुदाय के अन्याय के खिलाफ खड़े हो सकें? अश्वेत तो बाहर से आए थे और दलित तो यहीं के हैं. कुटिल चाल से वर्गीकरण किया गया.

अमेरिका एक ईसाई देश है, और ईसाईयत में भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है. अश्वेतों को छूना कोई अपराध नहीं है. जबकी यहां पर छूआछूत बहुत बड़ी सच्चाई है. अमेरिकी सरकार और अदालतें अश्वेत के पक्ष में फैसला देती हैं, जबकि यहां विपरीत स्थिति है. यहां जाति देखकर न्याय किया जाता है. अफसोस इस बात का भी होता है, जब कुतर्क गढ़े जाते हैं कि अमेरिका में भी तो भेदभाव है. भारतीय और अमेरिकी समाज में मानसिक ईमानदारी के क्षेत्र में बड़ा अंतर है . जॉर्ज फ्लॉयड की घटना को सवर्ण नकारात्मक दृष्टि से ना देखें बल्कि उन्हें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है. अगर सीखेंगे तो राष्ट्र की ही तरक्की होगी. नहीं तो दलित-पिछड़े-आदिवासी जैसे पहले जिंदगी जी रहे थे, आगे भी करते रहेंगे .

(लेखक डॉ. उदित राज परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. इस लेख में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं.)

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Published: 03 Jun 2020,01:26 PM IST

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