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पत्रकारिता की क्लास में अमूमन कुछ भी आउट ऑफ सिलेबस नहीं होता. उस रोज चर्चा का विषय था “कुछ भी हो सकता है” एक लड़की ने चिहुंक कर कहा, “जब अभिषेक को ऐश्वर्या मिल सकती है तो कुछ भी हो सकता है.”
सहमति में एक साथ कई सिर हिले
‘क्यों भला?’
जवाब लगभग एक, ‘कहां वो ब्यूटी क्वीन, मिस वर्ल्ड और सुपर स्टार. कहां ये फ्लॉप एक्टर.’
“हां बिल्कुल सही बात है, ऐश्वर्या को तो बल्कि सलमान खान से शादी कर लेनी चाहिए थी, थोड़ी मार-पिटाई ही तो करता था, और सरे आम थोड़ी सी बेइज्जती. है तो अभी तक सुपर स्टार ही.”
इस बार कमरे में असहज सन्नाटा.
दहेज में मिली कार की ड्राइविंग सीट पर चौड़ा सीना किए बैठे एक परिचित से पहले भी इस तरह के मुद्दे पर लंबी बहस हो चुकी है.
मैं फिल्मों की गूढ़ समझ नहीं रखती. अभिषेक, अभिनेता भले ही औसत हों लेकिन मेरी नजर में इंसान आला दर्जे के हैं. कई सारे सफल व्यक्तित्वों के बीच खड़े एक औसत सफलता वाले इंसान के लिए अपना आत्मसम्मान बरकरार रख पाना बहुत संयम और गरिमा का काम होता है. वो भी तब, जब उन सफलतम व्यक्तियों में से एक उसकी पत्नी हो. अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में, रेड कार्पेट पर, पुरस्कार समारोहों में, अभिषेक जिस गरिमा और समग्रता के साथ पत्नी के साथ खड़े होते हैं, उनकी नजर उतारने का मन करता है.
ये कर पाना मुश्किल इसलिए भी है हमारा दोमुंहा समाज अपनी सरंचना में तिनका बराबर फेरबदल देखकर भी असंयमित हो उठता है. किसी के बारे में कुछ भी कह सकने का अभिमान रखने वाला सोशल मीडिया अभिषेक को लेकर ऐसे बेशर्म चुटकुलों से भरा पड़ा है. बावजूद इसके कि हमारी बुद्धि और कर्म को हर कोण से प्रभावित और नियंत्रित कर रही फिल्म इंडस्ट्री ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है जहां करियर की ढलान पर पहुंची अभिनेत्रियों ने सफल और शादीशुदा उद्योगपतियों की ट्रॉफी वाइफ बनना स्वीकार किया है.
उस बिजनेस डील को, जिसमें एक को आर्थिक सुरक्षा और दूसरे को कैमरा लेंसों की अटेंशन मिलती है, हम खूब शोर-शराबे के साथ परिकथा के तर्ज पर साल की सबसे सुंदर प्रेमकहानी वाली हेडलाइन बनता देखते हैं. सालों तक उन्हें प्रेम में डूबे पिक्चर पर्फेक्ट जोड़ी मानकर निहारा करते हैं. लेकिन जैसे ही परिदृश्य बदलता है, पति-पत्नी एक-दूसरे से जगह की अदला-बदली करते हैं, हमारी चेतना बेचैन करवटें बदलने लगती है.
पेप्सिको की चेयरपर्सन इंदिरा नूयी से वॉशिंगटन में मिलना हुआ था. इंदिरा को अमेरिकी गृह मंत्रालय की ओर से सम्मानित किया जाना था. उन दिनों प्रवासी भारतीयों के अखबार ‘इंडिया अब्रॉड’ में छपे इंदिरा के एक इंटरव्यू की बड़ी चर्चा थी. उस इंटरव्यू में इंदिरा ने अपनी कामयाबी का सेहरा अपने पति राज के सिर बांधते हुए कहा था, “जो लड़कियां मेरी तरह अपने करियर में सफल होना चाहती हैं जाओ पहले अपने ‘राज’ को ढूंढ लाओ.”
राज उस रोज भी उनके साथ थे. सौम्य और गरिमामय.
“आपकी बड़ी तारीफ सुनी है”, मैंने राज से कहा.
“अच्छा, मेरे बारे में कौन बात करता है भला”, उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा.
“मैं, और कौन?” बालसुलभ चपलता से इंदिरा ने जवाब दिया था.
पूरे इंटरव्यू के दौरान राज कैमरे के फ्रेम से बाहर उसी सौम्यता से खड़े रहे और इंटरव्यू पूरा होते ही इंदिरा का हाथ पकड़कर पार्किंग की ओर बढ़ गए. उन दोनों की वो प्यार भरी छवि कई साल बाद भी मेरे जेहन में ताजा है. हालांकि राज एक बड़ी कंपनी के अध्यक्ष हैं और कई दूसरी कंपनियों के बोर्ड मेंबर भी हैं फिर भी राज नूयी के नाम से गूगल कीजिए, वो इंदिरा के पति के तौर पर ही सामने आएंगे. ये परिचय दुनिया के तमाम सफलतम कंपनी प्रमुखों और अध्यक्षों के जीवनसाथियों जैसा ही है. बस किरदारों की प्लेसमेंट, जेंडर के प्रचलित मापदंडों के हिसाब से नहीं है. और यहीं आकर गड़बड़ शुरु हो जाती है.
सफल पति के पीछे उसकी अनुगामिनी बनी पत्नी समाज के लिए पिक्चर पर्फेक्ट है. इस तस्वीर में जैसे ही पति और पत्नी ने अपनी जगहों की अदला-बदली की, सारे समीकरण डगमगाने लगते हैं.
इंदिरा से हुई उस मुलाकात के कुछ सालों बाद उनके इंटरव्यू का एक और वीडियो क्लिप वायरल हुआ जिसमें उन्होने स्वीकारा कि, “औरतें बस सोचती हैं कि उन्हें सबकुछ मिल गया है लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है, वो कितनी भी कोशिश कर लें, उनसे कुछ ना कुछ जरूर छूट जाता है.”
ऐसा इसलिए नहीं होता कि औरतों के करने में कुछ कमी रह जाती है, बल्कि इसलिए कि उससे सबकुछ एक साथ उठाकर चलने की उम्मीद की जाती है. और उसे बांटने वाला अगर कोई पुरुष सामने आए तो सामाजिक छिद्रान्वेषी अपने तानों से उसे वहीं का वहीं ध्वस्त कर देंगे.
पति पत्नी एक दूसरे के पूरक होते हैं, सही है, लेकिन कोई इस रिश्ते में किस तरह की पूर्णता चाहता है वो हर संबंध का निजी फैसला होना चाहिए. सामाजिक परिपाटी का इससे कोई भी लेना देना क्यों हो?
इस बार वीमेन्स डे पर इनबॉक्स में आए ढेरों संदेशों में से एक दिल को छू गया, “Teach your daughters to worry less about fitting into glass slippers and more about shattering glass ceilings”
तो सिन्ड्रेला को पीछे छोड़ते हुए शीशे की एक छत ऐसी भी तोड़ी जाए कि लड़कियां रह जाएं पेड़ की तरह सतर और अपनी जिंदगी के सबसे जरूरी रिश्ते में सहारा नहीं बल्कि सहजता और आत्मविश्वास ढूंढें.
(डॉ. शिल्पी झा जीडी गोएनका यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ कम्यूनिकेशन में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इसके पहले उन्होंने बतौर टीवी पत्रकार ‘आजतक’ और ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ की हिंदी सर्विस में काम किया है.)
(लड़कियों, वो कौन सी चीज है जो तुम्हें हंसाती है? क्या तुम लड़कियों को लेकर हो रहे भेदभाव पर हंसती हो, पुरुषों के दबदबे वाले समाज पर, महिलाओं को लेकर हो रहे खराब व्यवहार पर या वही घिसी-पिटी 'संस्कारी' सोच पर. इस महिला दिवस पर जुड़िए क्विंट के 'अब नारी हंसेगी' कैंपेन से. खाइए, पीजिए, खिलखिलाइए, मुस्कुराइए, कुल मिलाकर खूब मौज करिए और ऐसी ही हंसती हुई तस्वीरें हमें भेज दीजिए buriladki@thequint.com पर.)
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Published: 06 Mar 2018,07:02 PM IST