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सनी और बिपाशा मार्का कंडोम एड से अलग क्यों नहीं सोच सकते एडवरटाइजर

10 साल पहले टीवी विज्ञापनों की दुनिया में एक बेहद आम दिखने वाले ब्वाय नेक्स्ट डोर का अवतरण हुआ था

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‘’आजकल टीवी पर न्यूज नहीं देखती तुम’’ बीते कई महीनों में ससुर जी कई बार टोक चुके हैं. ‘’जी, अब तो हमारा सबकुछ मोबाइल पर ही हो जाता है.’’ मेरा जवाब सतर्कता से चुना गया होता है.

शादी के बाद के सालों में जब हम सब साथ बैठकर टीवी पर समाचार देखा करते, परिवार के बाकी लोगों को भूलकर सबसे गरमागरम बहस हम दोनों में होता था. वो इंटेलिजेंस ब्यूरो के सेवानिवृत आला अधिकारी और मैं पत्रकारिता के जोशोखरम में डूबी हुई युवती.

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सरकार बनाम जनता और प्रशासन बनाम पत्रकार

हर खबर का पोस्टमार्टम सरकार बनाम जनता और प्रशासन बनाम पत्रकार के तौर पर होता, हर बहस के दौरान उनकी नौकरी से जुड़ी एक रोमांचक कहानी भी सुनने को मिलती थी. ये सब मैं अभी भी मिस करती हूं, फिर भी नौकरी की जरूरत होते हुए भी परिवार के साथ बैठकर खबरों का एक पूरा बुलेटिन सुने जमाना हो गया. वजह, हर तीसरे मिनट एक एड ब्रेक और हर ब्रेक में कंडोम का एक विज्ञापन, जो अपनों के ही बीच आपको नजरें चुराने पर मजबूर कर देता है. ऐसी मुश्किल परिस्थिति में फंसने से बेहतर है ऐसे मौके आने ही ना दिए जाएं.

कंडोम के विज्ञापनों में परिवार नियोजन की बात कितनी?

ऐसा नहीं है कि हम लोगों से कोई परिवार नियोजन का महत्व या कंडोम का उपयोग नहीं समझता है. लेकिन सुहागरात पर कामुक अदाओं के साथ पहले गहने, फिर कपड़े उतारती सनी लियोनी या पति के साथ ‘बिटवीन द शीट्स’ खेलतीं बिपाशा बसु को हर दसवें मिनट देखने पर कंडोम के फ्लेवर्स और कामोत्तेजना के बारे में आपका ज्ञानवर्धन चाहे जितना हो जाए, परिवार नियोजन या यौन स्वास्थ्य जैसे शब्द दिल-दिमाग के आसपास भी नहीं फटकते.

‘इलाज के नाम पर पूरा अंग काट लेना कहां तक ठीक’

फिर एक दिन खबर आती है कि सरकार ने रात के आठ घंटों को छोड़कर टीवी पर कंडोम के विज्ञापनों पर पूरी तरह रोक लगा दी है. बीमारी के इलाज के नाम पर पूरे का पूरा अंग काट लेने की फितरत हमारी सरकारों की आज से नहीं है. इसलिए इससे बेहतर समाधान की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी.

आदेश का विरोध होना था सो हुआ भी, लोगों ने कंडोम के विज्ञापन देखने के अपने अधिकार को संभोग के मौलिक अधिकार से जोड़कर पोस्ट लिखे, डियोडरेंट के विज्ञापनों के औचित्य पर सवाल भी उठाए लेकिन सोशल मीडिया पर आक्रोश के ये बुलबुले बनने के 48 घंटे के भीतर फूट भी गए.

क्या दूसरे विकल्प नहीं हमारे पास?

इस देश में जहां लोग टीवी पर नागिन को न्याय दिलाने के इंतजार में अपना खाना-पीना भूल जाते हैं और प्रज्ञा को अभि से मिलवाने की चिंता में उनके खुद के बच्चों की शादी की फिक्र पीछे छूट जाती है, जनसंख्या का विस्फोट रोकने या यौन स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए टीवी से अच्छा प्लेटफॉर्म नहीं मिल सकता.

ऐसे में सरकार के इस तुगलकी फरमान का औचित्य वाकई समझ से बाहर है. इस समस्या का समाधान बेहतर विकल्प ढूंढकर निकाला जा सकता था जिसके लिए इच्छाशक्ति की कमी दोनों ओर नजर आई.

करीब 10 साल पहले पहचान हुई थी ‘असली मर्द’ की

10 साल पहले टीवी विज्ञापनों की दुनिया में एक बेहद आम दिखने वाले ब्वाय नेक्स्ट डोर का अवतरण हुआ, कंधे पर एक कंप्यूटर जनित तोता लिए उस भोले भाले शख्स ने पूरी संजीदगी के साथ कहा कि मर्द की पहचान मूंछें नहीं, सुरक्षा की पहचान हेलमेट नहीं, दरअसल मर्दानगी की निशानी है बिना हिचक कंडोम बोलना, दुकान पर जाकर उसकी मांग करना और जो ये ना कर सके वो असली मर्द नहीं. विज्ञापनों की इस कड़ी में कबड्डी के खेल के दौरान कबड्डी-कबड्डी की जगह कंडोम-कंडोम बोलने और मोबाइल फोन पर कंडोम का रिंगटोन डाउनलोड करने जैसे पहल भी शामिल थे.

इस विज्ञापन सीरीज को बीबीसी मीडिया एक्शन ने बनाया था. बीबीसी की इस पहल ने कंडोम की खरीद और उपयोग को लेकर कई वर्जनाएं तोड़ डालीं. कुछ ही दिनों में सात लाख से ज्यादा लोगों ने कंडोम थीम के रिंगटोन को डाउनलोड करने की अर्जी दी. कैंपेन की लोकप्रियता की मुरीद केन्द्र सरकार भी हुई और जल्दी ही इसे सरकारी प्रचार-प्रसार का हिस्सा भी बना लिया गया. यही नहीं, सीएनएन ने इसे कंडोम के सबसे अनूठे विज्ञापन का खिताब भी दिया.

बेचा यहां भी कंडोम ही जा रहा था, बल्कि आज के समय से कहीं ज्यादा दकियानूसी समाज में, फिर भी इनमें ऐसा कुछ नहीं था जिसपर किसी को एतराज होता.

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डियोडरेंट के विज्ञापन का मकसद...

हालिया विज्ञापनबंदी के विरोध में एक मुखर आवाज डियोडोरेंट के विज्ञापनों पर रोक लगाने का भी आया. बीते कुछ सालों में विज्ञापन कंपनियों ने बाजार में डियोडोरेंट की प्लेसमेंट कुछ इस तरह से की है कि इनका मकसद बस लड़कियों को बिस्तर तक खींच कर ले जाने तक सिमटता लगता है. दरअसल, कंडोम हो या डियोडरेंट, भेड़चाल में फंसना विज्ञापन कंपनियों की पुरानी बीमारी है.

यूं किताबी स्तर पर देखा जाए तो विज्ञापनों का मकसद खरीदारों को अपने सामान के बारे में अवगत कराने से लेकर, उन्हें उसे खरीदने के लिए कंविंस करना, अपनी क्रिएटिविटी से उस सामान की छवि को निखारने के अलावा उसके उपयोग की जरूरत पैदा करना भी होता है.

लेकिन हकीकत में ज्यादातर विज्ञापनों की कोशिश अपने प्रोडक्ट की ईमेज को नई दिशा में मोड़ने तक सीमित हो गई है.

इसी रेलमपेल के बीच करीब दो साल पहले चुपके से घुस आया एक ब्रांड ‘फॉग’ और देखते ही देखते बाजार की दशा-दिशा ही बदल गई. बाजार में मिले दोस्त, कंटीले तारों के दोनों ओर खड़े भारत और पाकिस्तान के जवान, पुलिस अधिकारी से बात करता मुखबिर, सबने एक स्वर में दूसरे से यही कहा, “आजकल तो बस फॉग ही चल रहा है” बिना किसी सेक्सुअल इंटेनशन के, बिना गैस वाले फॉग ने साल भर में प्रचलित ब्रांडों की हवा निकाल दी और बाजार का सबसे बड़ा खिलाड़ी बन बैठा.

लीक से हटकर चलने वाले विज्ञापनों ने बदली है दिशा

इतिहास और बाजार दोनों गवाह हैं कि लीक तोड़ने वाले विज्ञापनों ने अक्सर बाजार की दशा और दिशा दोनों बदल दी है. बेहतर होता अगर सरकार कंडोम के विज्ञापनों पर सिरे से रोक लगाने के बजाय विज्ञापन फिल्मों के कंटेट को लेकर कोई दिशानिर्देश बनाती. कुछ नहीं तो टीवी विज्ञापनों पर हर रोज जो एक करोड़ से ज्यादा रुपए सरकारी बजट से खर्च किए जा रहे हैं उसका एक हिस्सा ही क्रिएटिविटी के नाम कर देती.

सनी और बिपाशा मार्का कंडोम एड से परे जाकर इस बाजार की दशा और दिशा बदलने का ख्याल हमारी सरकार को कभी क्यों नहीं आया.

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