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वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता
ये जो हिंदुस्तान है हमारा देश, ये इतनी आसानी से समझ नहीं आता है और हमें ये भी मानना होगा कि जो हमारे हिंदुस्तान की सरकार है उसकी जो क्षमता है काम करने की वो कुछ ज्यादा नहीं है.
किस तरह से हमारी देश की जो औरतें हैं उनके साथ अच्छा व्यव्हार नहीं होता है. हमारे जो जंगल है, वो किस तरह से घट रहे हैं. जो हमारी नदियां हैं, दरिया है, वो सूख रहे हैं और जो हमारे शहरों में जो ट्रेन हैं उस उस में से किस तरह से बदबू आती है, उसे किस तरह से उस में से पानी ओवरफ्लो करता है. किस तरह से हमारी जेलों में अंडर ट्रायल भरे हुए हैं जिन्हें अभी तक अदालत ने दोषी करार नहीं दिया है. लेकिन बेल के बिना वो लोग जेल में है. किस तरह से हमरे यहां के जो अल्पसंख्यक हैं वो डर के सिकुड़ गए हैं. किस तरह से हमारे यहां के जो युवा हैं, उन्हें नौकरियां चाहिए, उनको नौकरियां नहीं मिल रही है और इस उमर में नहीं मिल रही है जब उनमें सबसे ज्यादा क्षमता है काम करने की, तो ये हिंदुस्तान की सच्चाई है
मेरा इस विरोधाभास से सामना सबसे पहले 1990 में हुआ, ये वही दशक था जिसमें भारत के निजी क्षेत्र को जंजीरों से मुक्त किया गया था.
चाहे हमने फोन खरीदा, दूसरे शहर के लिए उड़ान भरी, अपनी बचत को बैंक में रखा, एक इंश्योरेंस पॉलिसी खरीदी या टीवी देखा- ये रूटीन, हर दिन के काम राज्य के साधनों के जरिए ही किए जा सकते थे. ये अजीब और डरावना लगता है ना? कि आप नुक्कड़ की मोबाइल शॉप पर जा कर फोन नहीं खरीद सकते? या कीमतों की तुलना करने वाले एक वेबसाइट पर नहीं जा सकते जहां एक दर्जन एयरलाइंस या बैंक या बीमा कंपनियां आपको अच्छी डील देकर अपनी ओर आकर्षित करने के लिए तैयार हैं?
लेकिन 1991 के पहले भारत की सच्चाई यही थी. केवल एक दबंग, सर्वव्यापी, सर्व शक्तिशाली सरकार के पास ही आप को ये अच्छी चीजें देने का अधिकार था या शायद हम उन्हें हर सरकारी उत्पाद या सेवा की खराब क्वालिटी के कारण बुरी चीजें कहें.
अचानक, चमकदार लोगो (ब्रांड की पहचान) और जिंगल्स ने हमारे दिल-दिमाग पर हमला करना शुरू कर दिया. एयरटेल, ऑरेंज, HDFC, ICICI, जेट, किंगफिशर, इंडिगो, जी, स्टार, सोनी... सभी निजी उत्पाद हैरान भारतीय उपभोक्ताओं को रूखे/नीरस एमटीएनल, बीएसएनल, बैंक ऑफ इंडिया, एअर इंडिया और दूरदर्शन से दूर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं. जाहिर है, सरकार के स्वामित्व वाले ब्रांड बड़ी संख्या में पीछे होते गए, वो नई बनी निजी कंपनियों की आक्रामक मार्केटिंग, ब्रांडिंग या कीमत/मूल्य रणनीति की बराबरी नहीं कर सके.
तो, आपने सोचा होगा कि एक चकाचौंध से भरा भारतीय उपभोक्ता रोमांचित और आभारी होगा, ठीक ना? अच्छा, फिर से सोचिए. उन दिनों हर सर्वे एक रहस्यमय पहेली को जन्म देती थी.
सच कहूं तो ये आम धारणा के खिलाफ लग सकता था लेकिन सरकार के प्रति 'प्यार' के पीछे जो कारण था वो कुछ बुरा लग सकता है. वास्तव में ये भारत की स्थायी असमानता थी-एक स्तर पर, हम एक शक्तिशाली सरकार के तहत पीड़ित थे जिसने हमें गरीब बनाए रखा, लेकिन दूसरे स्तर पर उस कष्टदायक गरीबी ने हमें सरकार से बांधे भी रखा.
भारत सरकार दो मुंह वाला एक दैत्य बन गई थी-इसका बड़ा, ज्यादा दिखने वाला और क्रूर सिर बदला लेने वाला था जबकि इसका छोटा, नरम सिर भी पूरी तरह से अन्न-दाता/माई-बाप था जो कमजोर लोगों को खाना खिलाता था और उनकी रक्षा भी करता था. हमारा देश आजादी के बाद नए जमाने की जमींदारी में बदल गया था जो बेरहमी से शोषण करता था बावजूद इसके जब हिंसा बर्दाश्त के बाहर हो जाती इसके पीड़ितों के पास शोषण करने वालों के सामने घुटने टेकने, दया की भीख मांगने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था.
सरकार को ब्रह्मा/विष्णु/महेश के तौर पर लेने की मानसिकता, जो शिकार करता है लेकिन जिसके पास बचाने की एकमात्र शक्ति भी है, 1950/60 से 21वीं सदी के दूसरे दशक तक शाश्वत बनी हुई है.
अब तक.
जब तक एक छोटे वायरस ने 'दैत्य' को झुकने पर मजबूर नहीं कर दिया. आज भारत सरकार अपनी ही बोझ से झुकी जा रही है
मैं आपको करीब-करीब ये पूछते हुए सुन सकता हूं कि आप इस तरह से इतना साफ साफ ये दावा कैसे कर सकते हैं. ठीक है, कोविड 19 के हमले के आगे सरकार के स्वागत योग्य ''आत्मसमर्पण” को देखिए. एक साल पहले सरकार ने अहंकार भरे लहजे में कहा था-आप निजी क्षेत्र के लोग, दूर रहिए, केवल मैं, भारत की शक्तिशाली सरकार के पास इस स्वास्थ्य/ अस्तित्व से जुड़े संकट की जांच, रोकथाम और खत्म करने का अधिकार है. जल्द ही सरकार को अपनी गंभीर बाधाओं का एहसास हुआ, सरकार ने हार मानी और निजी लैब में भी जांच की अनुमति दी.
इसलिए, भारत सरकार ने हड़बड़ी में कदम उठाया/ फैसला बदला और स्पेक्ट्रम के दूसरे छोर पर गई, अक्सर मजाक का पात्र निजी क्षेत्र के लिए सब कुछ खोल दिया-अब कोई भी उस दायरे में आने वाला व्यक्ति भारत के किसी भी स्वास्थ्य केंद्र में जाकर फोटो वाला पहचान पत्र दिखाकर वैक्सीन ले सकता है. “नहीं, आप नहीं” से अब खुल जा सिमसिम यानी “कृपया, कुछ भी कीजिए, प्रिय निजी सेक्टर, लेकिन इस बड़े खतरे से मेरे देश को बचाइए”
मैं ये कहने की हिम्मत कर रहा हूं कि मैं शक्तिशाली भारत सरकार के इस पीछे हटने के फैसले से बहुत ही खुश हूं. आखिरकार सरकार ने अपनी अक्षमता मान ली है.
और अगर आपने सोचा कि “एक फूल के खिलने से बहार नहीं आती”, तो फिर से सोचिए. ठीक 30 दिन पहले भारत सरकार का एक और कड़वी सच्चाई से सामना हुआ था कि ये बिजनेस एंटरप्राइज को चलाने में सक्षम नहीं है और “बड़े पैमाने पर निजीकरण” की जरूरत है. (हमारे ऊर्जावान प्रधान मंत्री को उद्धत करने के लिए). सिर्फ इन कंपनियों के निजीकरण से आर्थिक तंगी से परेशान देश को आधा ट्रिलियन डॉलर का निवेश योग्य संसाधन मिल जाएगा बशर्ते सरकार को तेजी से कदम उठाने होंगे.
इसलिए, हमने एक ही महीने में अपनी अभिमानी सरकार को दो बड़े फैसलों से पीछे हटते देखा है. मुझे लगता है कि इस बार वाकई सूरज पश्चिम से उगा है क्योंकि भारत सरकार ने अपनी अक्षमता के साथ झगड़ा खत्म कर लिया.
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