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दूर-दूर तक ग्लानि का भाव नजर नहीं आता, जब प्रवासी मजदूरों की मौत या फिर कोविड-19 की वजह से नौकरी छूटने के मामलों में मुआवजा देने की बात से मोदी सरकार इनकार कर देती है. और इसके लिए बहाना होता है कि उसके पास इस संबंध में कोई आंकड़े नहीं हैं.
संसद में एक लिखित प्रश्न के जवाब में केंद्रीय श्रम मंत्री ने कोरोना वायरस की ‘महामारी को फैलने से रोकने’ के नाम पर अपनी उन तमाम जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया है, जिसमें महज चार घंटे की नोटिस देकर केंद्र सरकार ने 24 मार्च को समूचे देश को शटडाउन में डाल दिया था, जिसका खामियाजा 1 करोड़ प्रवासी मजदूरों को भुगतना पड़ा.
केंद्रीय मंत्री ने कहा, “(मुआवजे का) सवाल पैदा नहीं होता” क्योंकि “ऐसे कोई आंकड़े (मौत और नौकरी छूटने को लेकर) नहीं रखे गये हैं.”
विश्वास नहीं होता कि दुनिया की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी के समय सरकार ने उन्हीं लोगों को दरकिनार कर दिया, उसी जनता से पल्ला झाड़ लिया, जिन्होंने उसे सत्ता में बिठाया था. कई स्तरों वाली भारतीय शासन व्यवस्था में समूचे देश में गांवों, जिलों और राज्यों से एक स्थान पर केंद्रीकृत आंकड़े जुटाना मुश्किल काम जरूर है लेकिन असंभव भी नहीं.
संसद में मोदी सरकार के कोरे जवाब से ऐसा लगता है कि सरकार ने कोशिश तक नहीं की. सरकार जानती थी कि मॉनसून सत्र आ रहा है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहे प्रवासियों के मुद्दे पर सवालों की उम्मीद निश्चित रूप से थी. विभाजन के बाद से भारत ने इतने बड़े पैमाने पर पलायन, इतना दर्द नहीं देखा था.
अर्थव्यवस्था की दुहाई देते हुए सरकार ने उन छूट चुकी नौकरियों के आंकड़े इकट्ठे नहीं किए, जो मुख्य रूप से असंगठित क्षेत्र से जुड़े हुए हैं जैसे रेस्टोरेंट, वर्कशॉप, ढाबे, छोटी-मोटी इकाइयां और दूसरे ऐसे स्थान जहां नौकरियां होती हैं और जिनसे कारोबार के पहिए चलते हैं. इन्हें बंद होना पड़ा क्योंकि आनन-फानन में लागू किया गया लॉकडाउन शायद दुनिया में सबसे सख्त था.
उन बेरोजगार प्रवासियों के लिए स्पेशल ट्रेन चलाने में केंद्र सरकार को दो महीने लग गये जो अपने-अपने घरों को जाने को बेचैन थे. यहां तक कि किराया, भोजन की कमी, पानी, साफ-सफाई और रास्ता भटक गयी ट्रेनों से जुड़े विवाद के दलदल में भी उन्हें घसीटा गया.
संसद के सामान्य सत्र में भी सरकार कमजोर और वंचित तबकों के प्रति ‘रूखे व्यवहार’ के लिए अलग-थलग दिख रही होती. यहां तक कि जिस तरह का अकर्मण्य और बंटा हुआ विपक्ष आज है उसने भी इसे मुद्दा बनाया होता और इस बड़ी असफलता के लिए सरकार को वह जमीन दिखा देती.
लेकिन यह एक असामान्य सत्र है जहां कोविड प्रोटोकॉल सख्त है और एक तरह से विपक्ष के लिए हल्ला-गुल्ला मचाना, कार्यवाही में बाधा डालना या सरकार को विवश करना असंभव जैसा है.
उदाहरण के तौर पर कई विपक्षी सांसद महसूस करते हैं कि कोविड-19 के ‘बहाने’ अनिश्चित काल के लिए सरकार संसद की बैठक को स्थगित कर देती ताकि उसे इन चार ज्वलंत मुद्दों पर घेरा नहीं जा सके.
कोविड प्रोटोकॉल इस तरीके से बनाए गये हैं कि सामान्य संसदीय बहस को छोटा रखा जा सके और हमलों से बचाया जा सके. इसी तरह जिस तरीके से दोनों सदनों के लिए भारी भरकम विधायी एजेंडा तैयार किए गये, उससे लगता है कि मॉनसून सत्र केवल इसलिए बुलाया गया, क्योंकि उन्हें यही सब करना था. क्योंकि अब भी, कहने भर को ही व्यवस्था संविधान के प्रति है. दो संवैधानिक प्रावधान हैं जो सरकार के हाथों को बांध कर रखते हैं .
मार्च और मध्य सितंबर के दौरान मोदी सरकार 11 अध्यादेश लेकर आयी. सभी 11 अनुमोदन के लिए लाए गये हैं. इनमें से तीन विवादास्पद भी हैं, जो किसानों, खेती के तरीकों और बाजार से जुड़े हैं.
वास्तव में ये तीन अध्यादेश मोदी सरकार के लिए सिरदर्द हैं, क्योंकि उत्तर भारत और खासकर बीजेपी शासित हरियाणा के किसान विरोध में खड़े हैं. इस मुद्दे के कारण राज्य में खट्टर सरकार की अस्थिरता को लेकर खतरा मंडराने लगा है.
इन अध्यादेशों के अनुमोदन के अलावा सरकार ने इस सत्र में पास कराने के लिए 40 विधेयकों की सूची तैयार रखी है.
विधायी कार्यों को पूरा करने के हिसाब से यह सत्र जरूर फलदायी साबित हो सकती है, लेकिन ऐसा लगता है कि इसका जो सबसे महत्वपूर्ण काम है कि यह सरकार को जिम्मेदार बनाती है उसकी प्रासंगिकता नहीं रह गयी है.
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