ऊपरी तौर पर ऐसा लगा जैसे गांधी परिवार और उनके दरबारियों ने उन 23 वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं को ‘नकार’ दिया हो जिन्होंने पार्टी में गहराते नेतृत्व संकट के बारे में सोनिया गांधी को विरोध का पत्र लिखा था और बदलाव की मांग उठाई.
कांग्रेस कार्यसमिति (CWC) की तूफानी बैठक में यह मसला यथास्थिति के रूप में हल कर लिया गया. सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष के रूप में बरकरार हैं. कोरोना महामारी के दौरान अगर संभव हुआ तो छह महीने के भीतर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन बुलाने को लेकर वादा किया गया है जिसमें नये पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव होगा.
पत्र लिखने वालों पर पार्टी को कमजोर करने की तोहमत जड़ दी गयी है, वह भी ऐसे समय में, जबकि पारित प्रस्ताव के मुताबिक मोदी सरकार के खिलाफ लड़ रहे ‘इकलौते’ गांधी परिवार के साथ उन्हें खड़ा होना चाहिए था.
लेकिन ऐसी दिलेरी से परिवार पर उठे विवाद को छिपाया नहीं जा सकता.
आम लोगों की राय में धक्का गांधी परिवार को लगा है जिनके लिए कृत्रिम समर्थन का शोर पैदा किया गया है न कि पत्र लिखने वालों को. पार्टी पर अपनी पकड़ बनाए रखने की हताशा में उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ बीजेपी के प्रोपेगंडा को ही ताकत दे दी है.
गांधी परिवार के वफादारों की विरोध पार्टी में निराशा का सबूत
आप इसी से स्थिति को समझ लीजिए कि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल और बहन प्रियंका गांधी के हमलों के बाद भी पत्र लेखक झुके नहीं. चिट्ठी लिखने वालों में से सिर्फ चार लोग ही सीडब्ल्यूसी के सदस्य हैं- गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक और जितिन प्रसाद. लेकिन, कम संख्या में होने के बावजूद ये अपने रुख पर अड़े रहे. उन्होंने कहा है कि पत्र में लिखे हर शब्द पर वे कायम हैं.
परिवार के लिए निश्चित रूप से यह परेशानी वाली बात है कि ये चारों नेता गांधी परिवार के लिए समर्पित और वफादार रहे हैं और जवानी से ही कांग्रेस के साथ जुड़े रहे हैं.
वास्तव में पिछले साल जब राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष के पद से अचानक इस्तीफा दे दिया था तो वासनिक का नाम अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर चर्चा में था. इस पर विराम तब लगा जब वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को इस पद के लिए तैयार कर लिया.
पार्टी में हताशा और निराशा किस कदर गहरी हो चली है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि परोक्ष रूप से गांधी परिवार को चुनौती देने वाले और परिवार केंद्रित कामकाज के तरीकों में पूरी तरह बदलाव की मांग कर रहे इस पत्र पर हस्ताक्षर ऐसे लोगों ने किए हैं जो वफादार हैं. वास्तव में पत्र लिखने वाले 23 लोगों में ज्यादातर गांधी परिवार के करीबी हैं. इससे पता चलता है कि संकट कितना गहरा है.
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल और बहन प्रियंका गांधी के हमलों के बाद भी पत्र लेखक झुके नहीं.
परिवार के लिए निश्चित रूप से यह परेशानी वाली बात है कि ये चारों नेता गांधी परिवार के लिए समर्पित और वफादार रहे हैं और जवानी से ही कांग्रेस के साथ जुड़े रहे हैं.
पत्र से एक और बात पुख्ता होती है : राहुल गांधी के उत्तराधिकार को लेकर अविश्वास
यह आश्चर्य की बात नहीं है कि कांग्रेस के नेता पिछले एक साल से घबराहट महसूस कर रहे हैं.
उन्हें ऐसे नेता की कमी महसूस होती रही है जो राजनीतिक निर्देश दे और पुनरोद्धार का रोडमैप तैयार करे.
उत्तराधिकार की योजना को बेहतर तैयार कर सकते थे राहुल
पत्र में जो महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गये हैं (जैसे हर स्तर पर चुनाव की मांग, निर्णय लेने में पारदर्शिता, पार्टी संविधान के हिसाब से संसदीय समिति का गठन आदि) उससे एक बात पुख्ता होती है: राहुल गांधी के उत्तराधिकार को लेकर अविश्वास.
ऐसा नहीं लगता कि किसी भी कांग्रेस नेता में, चाहे वह कितना भी दुखी क्यों न हो, इतनी हिम्मत होती कि वह नेतृत्व शैली पर उंगली उठा सके. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 2019 के आम चुनाव में पराजय के बाद राहुल ने झुंझलाहट में पद छोड़ दिया. यह पार्टी की लगातार दूसरी पराजय थी.
न सिर्फ मैदान छोड़कर चले गये बल्कि उन्होंने उत्तराधिकार की योजना तैयार करने में भी कोई मदद नहीं की.
वास्तव में वे गैर गांधी अध्यक्ष की बात लेकर सामने आए जबकि उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम होगा कि गांधी परिवार से बाहर के लोगों, जैसे नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी, के साथ पार्टी ने कैसा व्यवहार किया. दोनों को पार्टी के अध्यक्ष पद से बेतरतीब तरीके से हटा दिया गया और अब वे कांग्रेस के आधिकारिक इतिहास में भुलाए जा चुके नेता हैं.
कांग्रेस नेताओं को बुरी तरह खली नेतृत्व और दिशा की कमी
यह आश्चर्य की बात नहीं है कि कांग्रेस के नेता पिछले एक साल से घबराहट महसूस कर रहे हैं. उन्हें ऐसे नेता की कमी महसूस होती रही है जो राजनीतिक निर्देश दे और पुनरोद्धार का रोडमैप तैयार करे. सोनिया बीमार थीं और जाहिर है कि एक सक्रिय अध्यक्ष नहीं हो सकती थीं लेकिन राहुल ने सख्ती से आगे बढ़ने और खाई को पाटने से इनकार कर दिया. फिर भी ऐसा लगता है कि सारे बड़े फैसले वही करते रहे हैं.
राहुल गांधी ने गुजरात कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर हार्दिक पटेल को आगे बढ़ाया. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की दबी जुबान में आपत्तियों के बावजूद वे राजस्थान से केसी वेणुगोपाल को राज्यसभा भेजने पर अड़ गये.
नरेंद्र मोदी के खिलाफ ट्विटर पर अकेले धर्मयुद्ध लड़ते रहे हैं राहुल गांधी. चीन के साथ सीमा संघर्ष के संदर्भ में ‘सरेंडर मोदी’ जैसे विशेषणों का इस्तेमाल किया. ऐसा लगता है कि वे इस सच्चाई से पूरी तरह बेखबर रहे कि जब ‘चौकीदार चोर है’ का नारा धराशायी हो गया तो इसकी बड़ी कीमत 2019 में कांग्रेस को चुकानी पड़ी थी.
और जब कुछ नेताओं ने कुछ हफ्ते पहले सीडब्ल्यूसी की बैठक में प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमलों से होने वाले नुकसान को लेकर चिंता जताई तो उन्हें डांट कर चुप कर दिया गया. प्रियंका गांधी वाड्रा ने उन पर राहुल गांधी का समर्थन नहीं करने का इल्जाम लगाते हुए कहा कि वे ‘पार्टी को विफल’ कर रहे हैं.
सोनिया गांधी का अगला कदम क्या हो?
जिस तरीके से युद्ध की रेखाएं उभर रही हैं ऐसा लगता है कि राहुल और प्रियंका के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी होने वाली है. कहा जा रहा है कि NSUI की बैठक में राहुल ने कहा कि ‘अगर लोग छोड़कर जाना चाहते हैं तो जाएं’. इस टिप्पणी से मुकरते हुए उनके सलाहकारों को डैमेज कंट्रोल करना पड़ा. लेकिन वहां मौजूद इतने लोगों ने इसे सुना कि ये इनकार ठहर नहीं पाएगा.
आधिकारिक रूप से विरोध के पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले 23 हैं. लेकिन, कांग्रेस के सूत्रों के मुताबिक ऐसे लोगों की संख्या सैकड़ों में है जो अपना नाम जोड़ने को तैयार हैं. एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि उनके पास देश भर के कार्यकर्ताओं और समर्थकों से फोन आ रहे हैं जो उठाए गये मुद्दे का समर्थन कर रहे हैं.
ऐसा लगता है कि कांग्रेस का संकट जल्द हल होने वाला नहीं है.
वास्तव में सीडब्ल्यूसी की बैठक और सोनिया व राहुल गांधी के नेतृत्व में विश्वास में कमी की वजह से तनाव बढ़ सकता है.
सीडब्ल्यूसी ने सोनिया गांधी को इस बात के लिए अधिकृत किया है कि वे संगठन में आवश्यक बदलाव करें जिसे वे जरूरी समझती हैं. उनके अगले कदम से यह संकेत मिलेगा कि क्या वह संघर्ष करेंगी या अपने स्वभाव के अनुरूप कोई बीच का रास्ता निकालेंगी और किसी सर्वमान्य प्रस्ताव पर पहुंचने का उनका मकसद होगा.
अगर वह सबको साथ लेकर चलने वाले विकल्प पर चलती हैं तो प्रश्न फिर भी रह जाता है कि क्या उनके बच्चे उस तबके के साथ समझौता करना स्वीकार करेंगे जिन्होंने चुनौती पैदा करने का दुस्साहस किया है? या फिर वे लड़ाई को आगे बढ़ाएंगे?
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