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ये समय आम चुनावों का है, चुनावी चर्चाओं का है और चुनावी जोड़-तोड़ का भी. राजनीति में खास दिलचस्पी नहीं रखने वाले लोग भी आम चुनावों के समय चुनावी रंग में रंगे नजर आते हैं. जैसा कि हर चुनाव में होता है, इस बार भी सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेता एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के वार कर रहे हैं.
बहरहाल, इन लोकसभा चुनावों में एक तरफ बीजेपी की अगुवाई वाला एनडीए है और दूसरी तरफ महागठबंधन बनाने की कोशिश करती हुई विपक्षी पार्टियां. विपक्ष में भी कई धड़े हैं और राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए को टक्कर देने वाला गठबंधन तो अभी तक अस्तित्व में नहीं दिख रहा. फिर भी विपक्षी पार्टियों को साथ लाने की जो कोशिशें हुईं, उसे बीजेपी के नेताओं ने ‘महामिलावट’ का नाम दिया है.
उनका कहना है कि अगर विपक्षी पार्टियों का ये समूह साथ मिलकर सरकार बनाएगा तो देश में अव्यवस्था फैल जाएगी, और केंद्र की सत्ता कमजोर हाथों में होगी. चुनाव में तो सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर हमले करते ही हैं, लेकिन क्या वाकई में गठबंधन सरकारों का इतिहास वैसा ही है, जैसा बीजेपी नेता दावे कर रहे हैं. अर्थव्यवस्था के आंकड़े तो ऐसा नहीं कहते.
अब इन आंकड़ों पर नजर डालें जो पिछले करीब 35 सालों के जीडीपी ग्रोथ से जुड़े हैं
ऊपर के आंकड़ों में हमने नवंबर 1984 में कांग्रेस की अगुवाई वाली राजीव गांधी सरकार से लेकर मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार तक के कार्यकाल में अलग-अलग सरकारों के दौरान औसत सालाना विकास दर का जिक्र किया है.
लेकिन अहम बात ये है कि जिस अवधि में एक पार्टी की सरकार रही है, उनमें विकास दर ऐसी बिलकुल नहीं है, जिससे आप ये मान लें कि एक पार्टी की मजबूत सरकार ही अर्थव्यवस्था को ज्यादा मजबूती दे सकती है. 1984 की राजीव गांधी सरकार, जिसे लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटें हासिल थीं, उस कार्यकाल में जीडीपी ग्रोथ केवल 5.4% रही, जबकि 1998-99 में 13 महीने की वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में भी ग्रोथ रेट पौने सात परसेंट रही थी, जो पारंपरिक अर्थ में अस्थिर सरकार मानी जा सकती है.
जहां तक मौजूदा मोदी सरकार का सवाल है, इसे आप गठबंधन सरकार मान भी सकते हैं और नहीं भी. हम मौजूदा मोदी सरकार को एक पार्टी की सरकार इसलिए मान रहे हैं क्योंकि भले ही बीजेपी ने एनडीए के बैनर तले 2014 का चुनाव लड़ा था, उसे अपने दम पर लोकसभा में बहुमत हासिल हुआ था। इस सरकार के कार्यकाल में अब तक की जो ग्रोथ रेट दिखाई दी है, वो सालाना 7.4% है, लेकिन ये नई सीरीज पर आधारित आंकड़ा है जिसकी गणना का तरीका विवादों में घिर चुका है. ये भी साफ नहीं है कि इस आंकड़े की तुलना पिछली सरकारों के जीडीपी आंकड़ों से किस प्रकार की जाए, जो 1980 से 2014 तक पुरानी सीरीज पर निकाले गए हैं.
तो क्या ये सिर्फ संयोग है कि कम से कम पिछले 35 सालों में भारत में केंद्र की उन्हीं सरकारों ने अर्थव्यवस्था को बेहतर संभाला है, जो गठबंधन सरकारें रही हैं? लेकिन फिर इस संयोग को कैसे भुलाया जाए कि अर्थव्यवस्था के अलावा भी देश को सामाजिक रूप से नया चेहरा देने वाले कई मजबूत कदम तथाकथित अस्थिर या गठबंधन सरकारों ने ही लिए हैं. फिर चाहे वो मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का फैसला हो या फिर न्यूनतम रोजगार गारंटी देने का फैसला. सूचना का अधिकार और शिक्षा का अधिकार जैसे कदम भी यूपीए की गठबंधन सरकार ने ही लागू किए थे.
मोदी सरकार के खाते में सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण अगड़ी जातियों को आरक्षण देने और मुस्लिम समुदाय में कहीं-कहीं प्रचलित 'तीन तलाक' की कुप्रथा पर प्रतिबंध लगाने के फैसले जरूर आते हैं, लेकिन इन फैसलों के राजनीतिक या सामाजिक परिणाम अभी स्पष्ट नहीं हैं। इन सारी बातों के मद्देनजर यह निष्कर्ष निकालना आपके जिम्मे है कि केंद्र की गठबंधन सरकार ‘मजबूर’ होती है या ‘मजबूत’. और क्या वाकई में गठबंधन सरकारें देश की सेहत के लिए उतनी नुकसानदेह हैं, जैसा कि मौजूदा सत्ता पक्ष प्रचारित कर रहा है.
(ये आर्टिकल धीरज कुमार ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 30 Mar 2019,10:49 AM IST