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गुना एनकाउंटर: भारत को 'फटाफट इंसाफ' नहीं, बेहतर इंसाफ चाहिए

Guna Encounter: ये आत्मनिरीक्षण का समय है- क्या कानून की महिमा को बनाए रखने में राज्य के अंग विफल हो गए हैं?

रुपिन शर्मा
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>गुना एनकाउंटर: भारत को 'फटाफट इंसाफ' नहीं, बेहतर इंसाफ चाहिए</p></div>
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गुना एनकाउंटर: भारत को 'फटाफट इंसाफ' नहीं, बेहतर इंसाफ चाहिए

फोटो- क्विंट

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हाल के दिनों में जिन घटनाओं को ‘पुलिस मुठभेड़’ करार दिया गया है उन घटनाओं की पूरी जांच रिपोर्ट मैंने नहीं पढ़ी है और इसलिए पुलिस में मेरे साथी सहकर्मियों की कार्रवाई पर फैसला देना नहीं चाहता हूं. हालांकि इस बात में शायद ही कोई शक है कि मुठभेड़ के मुद्दे पर समाज दो भागों में बंट गया है- समाज के कुछ वर्गों के लोग इसे पसंद करते हैं और कुछ नापसंद. हालांकि स्पष्ट तौर पर कानून का राज कायम करने की जरूरत है. सार्वजनिक व्यवस्था, कानून व्यवस्था और सुरक्षा सबसे ऊपर है

हाल की घटनाएं जिसने मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है वो हैं गुना में शिकारियों के साथ मुठभेड़, बलात्कार के मामले में हैदराबाद में हुई मुठभेड़, जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों और उग्रवादियों के साथ लगातार होने वाली मुठभेड़ और नागालैंड के मॉन के ओटिंग गांव में फर्जी ऑपरेशन जिसे स्वीकार भी किया गया. इन कार्रवाइयों के लिए तत्काल कारण तलाशी या घेराबंदी अभियान के दौरान पुलिस, सुरक्षा बलों पर हमला करने के प्रयास से लेकर ‘लाइव एनकाउंटर’ तक कुछ भी हो सकता है या वे अपराधियों को ढेर करने के उद्देश्य से वास्तविक ऑपरेशन में खास इनपुट पर आधारित हो सकते हैं.

माना जाता है कि कानून व्यक्तिगत मतभेदों को दूर करता है

एक खास श्रेणी गैंगस्टर्स या हिस्ट्री-शीटर्स या जाने-माने अपराधियों के एनकाउंटर की है. इस बाद वाली श्रेणी के अंदर वो ‘मुठभेड़’ हैं जिन्हें सामान्य तौर पर जनता की मंजूरी होती है और जनता इसकी तारीफ भी करती है. दूसरा पक्ष तथाकथित अभिजात्य और उदारवादियों का है जो इस तरह की अधिकांश घटनाओं पर गुस्सा जाहिर करते हैं और इस प्रक्रिया में अक्सर उन्हें पक्षपात, अपराधियों के प्रति नरम होने और यहां तक कि सीधे-सीधे सांठ-गांठ के आरोप का सामना भी करना पड़ता है.

अपराधियों और संदिग्धों की गिरफ्तारी और उन पर काबू करने के लिए दिशानिर्देश हैं, लेकिन जमीनी जरूरतों की अलग-अलग मामलों में विवेचना और मूल्यांकन चीजों को मुश्किल बनाते हैं. कानूनी प्रावधानों के अलावा, हिरासत में हुई मौतों की जांच के लिए भारत के सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट्स और नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन (NHRC) यानी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ओर से विस्तार से दिशानिर्देश तय किए गए हैं. पुलिस के नजरिए से, उनका घटनास्थल पर मौजूद होना जरूरी है और उन पर, उनके विवेक, सहज प्रवृत्ति और फैसलों पर भरोसा करना जरूरी है.

व्यक्तिगत इच्छा और धारणाएं अलग-अलग हो सकती हैं. लेकिन बहुत ज्यादा- कभी-कभी दिखावटी- ‘सामान्य’ से बहुत अलग घटनाओं की जांच की जानी चाहिए.

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सामान्य व्यक्ति के लिए पुलिस ही कानून है

कानून का केवल सम्मान ही नहीं करना चाहिए बल्कि कानून की महिमा सर्वोपरि होनी चाहिए- करीब-करीब पवित्र. सभ्य समाजों में कानून की महिमा ‘मूल कानून’ में निहित है जो अपराधों और सही रास्ते से भटकने को परिभाषित करता है, और ‘प्रक्रियात्मक कानून’ जो परिभाषित करता है कि न्याय कैसे किया जाना चाहिए, उसकी प्रक्रिया और कार्यप्रणाली. शायद यहीं से लड़खड़ाहट शुरू होती है. इंसानों की अलग-अलग संवेदनशीलताओं के अलावा, बेहतर और सशक्त, स्पष्ट सिस्टम, जो सक्रियता के साथ अपग्रेड हों, एक समाधान हो सकता है.

आम आदमी के लिए, लाठी या अपना हथियार लिए खाकी वर्दी में पुलिसवाला ही कानून होता है न कि कानून की किताबें. कानूनी बारीकियों से वंचित, पुलिस और कानून पर अमल ही वो साधन हैं जिसके जरिए ‘सरकार’ की सर्वोच्चता का सम्मान किया जाता है. उनके लिए ‘पुलिसकर्मी न्याय देता है’, एक ऐसा विचार जो एक विशेषज्ञ, उदार दृष्टिकोण कि न्याय की खोज में पुलिस सिर्फ पहला और शुरुआती कदम है, से काफी दूर है. अदालत और जजों तक लोगों का पहुंचना बहुत कम हो पाता है - करीब करीब वैसा ही जैसा आजादी के बाद के भारत में ‘योर ऑनर’ और ‘लॉर्डशिप’ जैशे शब्दों का इस्तेमाल कम हो गया है.

कोर्ट के दरवाजे अब भी चुनिंदा लोगों के लिए ही खुले

उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों को छोड़ दें तो एक कोर्ट का एक दौरा घुटन भरा अनुभव होता है. भारतीय न्यायिक सिस्टम के अपर्याप्त बुनियादी ढांचे पर विचार किए बिना भी, ये साफ है कि न्यायपालिका में कर्मचारियों की कमी है जैसा कि आंकड़े दिखाते हैं. अक्सर, पीड़ितों, शिकायतकर्ताओं और गवाहों को खड़े होने के लिए भी जगह नसीब नहीं होती.

जमानत की ज्यादातर कार्यवाही बेमन और नियमित तरीके से की जाती है. यहां तक कि सुनवाई का भी यही हाल होता है. जो लोग बड़े वकीलों का खर्च उठा पाते हैं सिर्फ उन्हें ही ज्यादा समय और निष्पक्ष सुनवाई मिल पाती है.

“जेल नहीं जमानत” का प्रचलन होने के कारण, पुलिस और अभियोजन के मामले प्रभावित होते हैं. एक उभरते ‘छोटे अपराधी’ को सजा दिलाने की पुलिस की अच्छी कोशिश को बेकार किया जा सकता है- अक्सर जमानत नियमित तौर पर दे दी जाती है, जिससे पुलिस और अभियोजन पक्ष कोई ‘शर्तें’ भी नहीं लगा पाते हैं.

पुलिस इंतजाम और न्याय पर अमल अब सामाजिक समीकरणों के बंधक हो गए हैं, अक्सर समान रूप से जिम्मेदारी निभाने के बजाए एक-दूसरे पर आरोप लगाने में शामिल रहते हैं. इसके तीन गुना तात्कालिक प्रभाव होते हैं: पुलिस की मेहनत बेकार हो जाती है, अपराधी का हौसला बढ़ता है और न्यायिक प्रक्रिया का डर खत्म हो जाता है.

न्यायिक प्रणाली में तेजी से बढ़ते मामले- जिन्हें मौजूदा अपराध दर, जनसंख्या वृद्धि की दर और नए अपराधों से निपटने के लिए नए कानूनों के पालन से जोड़ा जा सकता है- मात्रात्मक कमियों को दूर करने के लिए कुछ सुझाव हैं.

आत्मनिरीक्षण का समय

इसके अलावा, आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार, प्रक्रिया में सुधार और अदालतों में बेहतर बुनियादी ढांचा- तेजी से कंप्यूटराइजेशन, वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग का इस्तेमाल, कोर्ट की कार्यवाही की ऑडियो-विजुअल रिकॉर्डिंग और एक पूरी तरह से काम करने वाला ICJS (इंटर-ऑपरेबल क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम) जो पुलिस, अस्पताल, फॉरेंसिक लैब और जेल से जुड़ा हो- तालमेल को बढ़ाएगा.

कुछ अन्य उपाय जो सहायक हो सकते हैं उनमें वकीलों को अनिवार्य रूप से ‘लिखित निवेदन और तर्कों का सारांश’ करने की अनुमति देना, कार्यवाही में देरी की मंशा से किए जाने वाले स्थगन को कम करना और ‘समय सीमा में सुनवाई’ शामिल हैं. यदि सुनवाई या अदालती कार्यवाही को “कानून द्वारा निर्धारित समय सीमा में निपटाया जाता है” तो न्याय की व्यवस्था तेजी से होगी और लोगों में कानून का डर बढ़ेगा. आम आदमी के लिए कानूनी प्रक्रिया और न्यायपालिका की महिमा बहाल होगी.

एनकाउंटर्स को सामाजिक स्वीकृति हो सकती है- भ्रष्टाचार के खिलाफ सतर्कता, उत्पीड़कों के खिलाफ हिंसा. लेकिन क्या इसकी अनुमति दी जा सकती है? अगर हिंसक तरीकों से पुलिस न्याय करने लगे तो सिर्फ पुलिस के पास ही इसका लाइसेंस क्यों होना चाहिए? क्या हर नागरिक बुराई और अपराधों को जड़ से खत्म करने के लिए ‘कर्तव्य से बंधा’ नहीं है?

सामाजिक स्वीकृति के बावजूद, जिसे बदला न जा सके ऐसे दंड का कोई भी तरीका गलत है जब तक कि हमारे अपने जीवन और सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. याद रखिए, हम न्याय दिलाने के साधन हैं, हम न्याय नहीं देते. हालांकि, अब जब जनता न्याय के ऐसे ‘तेज’ मॉडल से खुश है तो ये आत्मनिरीक्षण करने का समय है-क्या हम कानून की महिमा का सम्मान कर रहे हैं और क्या राज्य के अन्य अंग इसे बनाए रखने में विफल रहे हैं?

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