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Har Ghar Tiranga: तिरंगा-देशभक्ति की मार्केटिंग,पार्टी को फायदा पहुंचाने का टूल?

इस तरह के रंगीन राष्ट्रवाद से ज्यादा बड़े मसले हैं जिनपर सोचना जरूरी और सिर्फ झंडा फहराने से कुछ नहीं होगा

दिलीप चेरियन
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>हर घर तिरंगा : तिरंगा और देशभक्ति दोनों की जबर्दस्त मार्केटिंग</p></div>
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हर घर तिरंगा : तिरंगा और देशभक्ति दोनों की जबर्दस्त मार्केटिंग

(फोटो - क्विंट)

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अगर पिछले एक हफ्ते में लहराता हुआ तिरंगा (Tiranga) आपके दिल-दिमाग को नहीं छुआ है तो फिर इसका मतलब है कि आप अपने आसपास के माहौल से अनजान हैं. लेकिन आपको जल्दी ही झकझोर कर उठाया जाएगा. भारत की आजादी के 75वीं सालगिरह पर तिरंगा के जरिए घर-घर पहुंचने का यह अभियान अपने आप में बहुत बड़ा है. हर घर, स्कूल, दफ्तर तक ‘हर घर तिरंगा’ का अभियान सभी माध्यमों के जरिए लोगों तक पहले ही पहुंच चुका है. तिरंगा को अपने मनमाफिक राष्ट्रवाद का हथियार पहले ही बनाया जा चुका है.

अब बस स्वतंत्रता दिवस पर हर जगह धावकों, मोटरसाइकिल सवारों के सिंक्रनाइज ड्रोन शॉट्स का इंतजार करें, जहां बड़े पैमाने पर शहरी ऊंची इमारतें, अनगिनत गांव और दूसरी चीजें तिरंगे में लिपटी दिखेंगी. आर्मी से लेकर यूनिवर्सिटी, राशन की दुकानों से लेकर रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन RWAs, कॉर्पोरेट से लेकर बैंक और मोहल्ला समिति से लेकर पंचायत तक सभी कोई इस मुहिम में शामिल किए गए हैं. 15 अगस्त का काउंटडाउन जारी है और फोटो के लिए तैयारियां पूरी हो चुकी हैं.

  • अगर लहराता हुए तिरंगे ने अभी तक आप के दिल-दिमाग को नहीं छुआ है तो इसका मतलब है कि आप अपने आसपास के माहौल से दूर बेहोशी में पड़े हैं.. देशभक्ति के राष्ट्रीय विरोधाभास का फायदा किसको मिलने वाला है ..इसके बारे में सब जानते हैं.

  • हर कोई अपना रोल निभा सकता है..चाहे ऑफिस में छोटा तिरंगा फहराना हो या फिर डेस्क पर तिरंगा लगाना .. या फिर एक बड़ा तिरंगा फैक्टरी, दुकान और घर पर लगा कर अपनी भूमिका निभा सकते हैं.

  • इस तरह का आखिरी अभियान जो पहले किया गया था वो था स्वच्छ भारत अभियान, जो मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में किया था.

  • लेकिन इस तरह के रंगीन राष्ट्रवाद से ज्यादा बड़े मसले हैं जिन पर सोचना जरूरी और सिर्फ झंडा फहराने से कुछ नहीं होगा. आज देशभक्ति की जिस तरह की पैकेजिंग और मार्केटिंग की जा रही है उससे ऐसा लगता है सिर्फ सत्ताधारी पार्टी ही इस गौरव और भरोसे को जिंदा रखे हुए है.

  • ज्यादातर सियासी पार्टी अब सत्ताधारी पार्टी के सामने नतमस्तक हो चुकी हैं. हालांकि इसका मुख्य कारण उनके भीतर सोचने समझने की शक्ति यानि इमेजिनेशन का अभाव है... इमेजिनेशन मतलब उदाहरण के लिए इस तरह के दृश्य हो सकते थे जहां सिर्फ वैधानिक रूप से ही नहीं बल्कि कुछ इनोवेटिव तरीके से झंडे फहराने के दृश्य दिखाए जा सकते थे.

कोई भी कैंपेन को छोड़ नहीं सकता

हालांकि संस्कृति मंत्रालय की यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि वो सुनिश्चित करे कि संदेश अलग-अलग तरीके से आगे बढे, लेकिन इन सभी से भी ज्यादा ताकतवर ‘ऑफिस’ की तरफ से भी कोशिशें की जा रही है. देश के झंडे को आपकी जरूरत है .. ऐसा संदेश दिया जा रहा है और तिरंगा एक ताकतवर होते देश को प्रतीकों में बताता है. याद रखिए हम लोग अपना ही G20 मीटिंग करने वाले हैं और दुनिया का ग्लोबल अटेंशन भारत पर बढ़ने वाला है.

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता अभी इस कैंपेन को सफल बनाने में बहुत बुरी तरह से व्यस्त हैं. अब हर किसी को एक निश्चित संख्या में परिवारों को इस अभियान से जोड़ना है. 15 अगस्त का समय है. यह कितना बड़ा विशाल अभियान है इसका अंदाजा सिर्फ या तो वो लगा सकते हैं जो या तो पैसा खर्च कर रहे हैं या फिर अगर कोई पब्लिक एक्सपेंडिचर का हिसाब किताब रख रहा है... लेकिन यह बहुत बड़ा अभियान है और इसमें कोई संदेह नहीं है. इसे कोई भी छोड़ नहीं सकता है.

क्या इसका मतलब देशभक्ति के राष्ट्रीय स्तर को बढ़ाना है , यह एक बड़ा सवाल है ?

क्या इस अभियान से जो राष्ट्रवादी उत्साह जगाने की कोशिश की जा रही है, उसके परिणामस्वरूप भारतीय अधिक देशभक्त होंगे? यही वह प्रश्न है जिसका विश्लेषण करना होगा. जब हम सब कथित देशभक्ति के इस राष्ट्रीय विरोधाभास के आगे झुक जाते हैं तो फिर किस का फायदा होता है, इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है.

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यहां हर किसी का एक रोल होता है.

मैंने इस तरह के कई अभियान पहले भी देखे हैं और मुझे मालूम है कि इस तरह के प्रोग्राम का क्या फायदा होता है. यह बहुत उल्लासभरा और सबको दिखने वाला कार्यक्रम होता है. ब्रांड पहले से ही लोगों को मालूम है और सिर्फ इसे और ज्यादा चलाना ही होता है. हर कोई इसमें अपनी भूमिका निभा सकता है.

चाहे वो तिरंगा अपने ऑफिस में लगाना हो या फिर अपने डेस्क पर. घर, दुकान या फैक्टरी पर बड़ा तिरंगा लहराकर आप अपनी देशभक्ति की भावना को और ज्यादा दिखा सकते हैं. चूंकि यह बहुत सीधी और सामान्य सी बात है इसलिए इसको करना भी बहुत आसान हो जाता है. सिर्फ झंडे दिखाना ही इसकी सबसे बड़ी कामयाबी है इसलिए इस तरह के कैंपेन अक्सर आसानी से बहुत सफल हो जाते हैं.

अभी दूसरा बड़ा सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीय गौरव की भावना के साथ झंडा फहराना सबसे महत्वपूर्ण गुण है जिसकी देश को अभी सख्त जरूरत है ?

निस्संदेह राष्ट्रीय प्रतीकों के बारे में युवा पीढ़ी की जागरूकता पहले से ज्यादा बढ़ेगी. उनमें से कई शायद लंबे समय में इस तरह के विशाल अभियान में शामिल नहीं रहे हैं. याद रखें कि मिलेनियल्स के मामले ये बात तो और भी अहम है क्योंकि सिर्फ कोई कैंपेन ही उनके दिल को छूता है. पिछली बार सरकार ने इस तरह का बड़ा अभियान अपने पहले कार्यक्रम के दौरान स्वच्छ भारत अभियान के लिए किया था.

बेशक, अभियान में कुछ ना कुछ मसले सामने आते रहते हैं और इसके डिजाइनरों ने शायद उनमें से कुछ को ध्यान में रखा भी होगा. उदाहरण के लिए, झंडा अधिनियम में अब खादी के अलावा अन्य सामग्री से झंडे बनाने की अनुमति देना वास्तव में पहुंच और पैमाने को बढ़ाने के मामले में एक स्मार्ट कदम था. यह निश्चित रूप से व्यावहारिक कदम था. यहां तक कि यह ऐतिहासिक और सामाजिक आर्थिक दुखद हालात को भी बताता है कि अगर इतने बड़े पैमाने पर झंडे की जरूरत थी तो खादी इसके लिए तैयार नहीं थी.

देशभक्ति का इस्तेमाल हथियार की तरह?

कुछ अति उत्साही राष्ट्रवादियों ने अभियान को थोड़ा खराब कर दिया है. इस कैंपेन को दिखाते समय एक खुशहाल मुस्लिम परिवार को तिरंगा लहराते दिखाने की गलती भी हुई जो शायद एक मलेशियाई परिवार की फोटोशॉप्ड तस्वीर के रूप में पहचानी गई थी..सच जो भी हो लेकिन तस्वीर निश्चित रूप से भारतीय की नहीं थी. इसके अलावा और भी कुछ लोगों ने कैंपेन को थोड़ा खराब कर दिया है .दरअसल कुछ भाजपा शासित राज्यों में यदि गरीब राष्ट्रीय ध्वज नहीं खरीदते हैं तो राशन की दुकानें उन्हें राशन देने से इनकार कर रही हैं.

इसके अलावा तिरंगा अभियान की लागत के तौर पर 20 रुपये की वसूली भी की जा रही है. इन विरोधों की कोई सुनवाई भी नहीं होती. क्योंकि आसपास तिरंगे की शान में शोर इतना ज्यादा है कि कुछ सुनवाई नहीं है. लेकिन फिर, जैसा कि मैंने पहले भी देखा है जब इस तरह का विशाल और चौंकाने वाले पैमाने पर कुछ कैंपेन किए जाते हैं तो इस तरह की स्थिति कहीं ना कहीं पैदा होती ही है.

लेकिन अभी राष्ट्रवाद के रंगों में सबकुछ रंगने की जरूरत इस वक्त राष्ट्रीय फलक पर नहीं है. अभी हमारे सामने बड़ी चुनौतियां हैं ...और तिरंगा इस तरह फहराने की मुहिम से कुछ हासिल नहीं होगा.

अभी हमें चीन का टेंशन है, आर्थिक सुस्ती का डर, देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ने का खतरा है. और ऐसे में इस तरह सिर्फ राष्ट्रवाद की लहर पर सवार होकर कुछ खास हासिल नहीं होगा.

आखिर हर साल तो हम 15 अगस्त को इस तरह तिरंगे और देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर करते ही हैं. ऐसे में इस सवाल पर लाइनें बहुत साफ नहीं रह जाती कि क्या यह एक अधिक शक्तिशाली पार्टी का अभियान है या फिर सही मायने में राष्ट्रीय अभियान. सवाल अपनी जगह पर हैं, लेकिन कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता कि अभियान प्रभावी है और इसके प्रभावशाली होने की भी संभावना है.

तो, जबकि देशभक्ति की मार्केटिंग की जा रही है, क्या इसे भी आसानी से हथियार बनाया जा रहा है? ..हालांकि यह दुखद है लेकिन इसका जवाब ‘हां’ में है. देशभक्ति की जिस तरह से पैकेजिंग और मार्केटिंग की जा रही है उससे सत्ताधारी पार्टी को यह दावा करने में मदद मिलती है कि वो एक मात्र देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम की रक्षक है. पैसा कौन खर्च कर रहा है, यह अब सवाल नहीं है . जमीन पर पैर और कैंपेन को उछालने के लिए जोरदार कोशिश से यह साफ है कि इन सबका मकसद है असली संदेश लोगों तक पहुंचाना.

विपक्ष के पास ‘इमेजिनेशन’ नहीं

अभी कुछ राज्यों में चुनाव होने हैं और उससे कुछ महीने पहले यह सब हो रहा है. अपनी पार्टी और उसके संदेश को लोगों तक पहुंचाने का यह एक शानदार तटस्थ तरीका है. पार्टी इसके जरिए उन लोगों तक भी पहुंच सकती है जिनके पास वो अन्यथा नहीं जा सकते.

सोशल मीडिया पर दृश्यों की बाढ़, जिसे अक्सर पार्टी हैंडल के साथ-साथ ट्रोल सेनाओं के जरिए कई गुना प्रचारित किया जाता है, इस बात का सबूत है कि यह सफलता रुपए का खुला खेल और लीडरशिप की सामूहिक कोशिश का नतीजा है. इस मामले में विपक्ष 'अन्य' और 'दूसरा' है. इसलिए लगभग वो राष्ट्र-विरोधी हो जाता है.

सौभाग्य से, खादी के मुद्दे और स्वतंत्रता दिलाने वालों को लेकर दुश्मनी अभी तक पूरी तरह से ध्रुवीकरण या पार्टी आधारित नहीं हुई है. ज्यादातर राजनीतिक दल खुद ही नतमस्तक हैं. उनका कहना है कि ‘ध्वज का हम विरोध नहीं कर सकते"..पर असल में वो ट्रोल आर्मी से अपने को बचाना चाहते हैं. हालांकि इनमें भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कारण उनके भीतर ‘इमेजिनेशन’ या लक्ष्यों का नहीं होना है.

उदाहरण के लिए एक ‘इमेजिनेशन’ ये हो सकता था कि सभी नेता थोड़े इनोवेटिव तरीके से झंडा फहराते या ऐसा कुछ और दृश्य लाते . लेकिन नहीं ..आखिर उन्होंने कब किसी चीज को बहुत सोच समझकर किया ? इस तरह के कैंपेन में पवित्र संघर्षों की अवधारणाएं होती हैं तो वो अक्सर विजेताओं को बहुत फायदा पहुंचाती हैं.

इसलिए इस विशाल राष्ट्रीय कैंपेन में असली लड़ाई अपने भीतर की है.ऐसा लगता है कि दुश्मन पहले ही अंदर आ चुके हैं ..जो कोई भी बिना तिरंगे के इस बार हैं वो एंटी नेशनल यानि देश के दुश्मन ठहरा दिए जाएंगे.

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Published: 14 Aug 2022,06:39 PM IST

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