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यह आर्टिकल चार-भाग वाली 'अप्रैल' श्रृंखला का तीसरा भाग है, जिसमें महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं या नीतियों पर दोबारा गौर किया गया है और यह बताया गया है कि कैसे उनसे सीखे गए सबक आज की राजनीति और समाज में प्रासंगिक बने हुए हैं.
अप्रैल 1992 में बिजनेस टुडे मैगजीन में हमने, हर्षद मेहता (Harshad Mehta) भारतीय शेयर बाजारों (Indian Stock Market) के उभरते हुए सितारे और तेज तर्रार बुल (Bull) पर एक कवर स्टोरी प्रकाशित की थी. इसके कवर में अट्रैक्टिव दिखने वाले मेहता को अपनी टोयोटा लेक्सस कार के साथ वर्ली समुद्र के पास कहीं पोज देते हुए दिखाया गया है. कुछ सहयोगियों और हमारे वरिष्ठों ने हमें चेतावनी दी थी कि हर्षद मेहता के इर्द-गिर्द घूमती यह परियों की कहानी सच नहीं है और यह बुलबुला जल्द ही फूट जाएगा.
जैसा कि भविष्यवाणी की गई थी, कवर स्टोरी प्रकाशित होने के कुछ दिनों के अंदर ही यह बुलबुला फूट गया.
हमारी एक पूर्व सहयोगी, सुचेता दलाल ने द टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए एक जबरदस्त स्टोरी लिखी, जिसमें बताया गया था कि कैसे यह स्टॉक ब्रोकर कानून के साथ खेल रहा था और अपनी स्टॉक मार्केट की कल्पनाओं को पूरा करने के लिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से "अवैध रूप से" धन प्राप्त कर रहा था.
इसके बाद केंद्रीय जांच ब्यूरो सहित सभी जांच एजेंसियां एक्शन में आ गई. कार्रवाई की जाने लगी, सुचेता दलाल ने अपनी पहली स्टोरी के बाद रिपोर्टों की एक सीरीज शुरू की, जिसे हर्षद मेहता घोटाले के रूप में जाना जाने लगा. इस पर वापिस आएंगे, लेकिन थोड़ी देर में.
31 साल बाद, घोटालों और वित्तीय बाजारों के बारे में कुछ कड़वे तथ्य आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं. सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि औसत भारतीय इस तरह के घोटालों के प्रति बेहद संवेदनशील बना हुआ है और लाखों लोगों ने अपनी लगभग सारी सेविंग खो दी है.
दूसरा, भारतीय प्रतिभूति विनिमय बोर्ड (SEBI), भारतीय रिजर्व बैंक (RBI), और भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) जैसे रेगुलेटरी वाचडॉग के रूप में अपनी भूमिका निभाते हैं, लेकिन नियामक (रेगुलेटर) के रूप में उनकी प्रभावशीलता पर एक बड़ा सवालिया निशान है.
तीसरा, बिग डेटा, इंटरनेट, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और इसी तरह की तकनीक ने स्कैमर्स को और अधिक सक्रिय होने के रास्ते खोल दिए हैं.
हर्षद मेहता घोटाले पर वापस आएं तो, उसके खिलाफ कई मामले दर्ज किए गए और बिग बुल को गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे डाल दिया गया. कई मध्य स्तर के बैंक अधिकारियों को भी गिरफ्तार किया गया, क्योंकि डिटेक्टिव्स ने गहरी जांच की थी. इसके एक प्रमुख "कोलेट्रल डैमेज" के रूप में यूटीआई (UTI) के आदरणीय एमजे फेरवानी का नाम आया, जिनकी घोटाले में कथित संलिप्तता ने उनकी प्रतिष्ठा को बर्बाद कर दिया.
अपनी मौत से पहले, हर्षद मेहता को कुछ मामलों में दोषी ठहराया गया था, जबकि कई अन्य मामलों में उनपर मुकदमे चल रहे थे. पीवी नरसिम्हा राव सरकार द्वारा शुरू किए गए आर्थिक सुधारों के हिस्से के रूप में, जो शेयर बाजारों को विनियमित करने वाले 'पूंजी मुद्दों के कंट्रोलर' के रूप में काम करता था, उसके कार्यालय को समाप्त कर दिया गया था. शेयरों की खरीद-बिक्री पर लगे कई प्रतिबंध हटा लिए गए.
हालांकि, जैसा कि शेयर बाजारों के लिए एक नियामक (रेगुलेटर) होना महत्वपूर्ण था, इसलिए घोटाला सामने आने से कुछ महीने पहले जनवरी 1992 में सेबी (SEBI) का गठन किया गया था. घोटाले के कारण सेबी ने बाजार में हेरफेर को रोकने के लिए उपायों की एक सीरीज की घोषणा की.
सवाल यह है कि क्या नियामकों ने हर्षद मेहता घोटाले से कोई सबक सीखा? क्या सेबी ऐसे घोटालों की पुनरावृत्ति को रोकने के अपने मिशन में सफल रहा? शायद नहीं
जब हर्षद मेहता की मौत हुई, तो उन्हें मीडिया से बहुत कम ध्यान मिला. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि एक नए, खलनायक स्टार ने सार्वजनिक चर्चा और मीडिया लैंडस्केप पर हावी होना शुरू कर दिया था.
केतन पारेख एक अन्य ऐसे बिग बुल थे, जिन्होंने यह मान लिया था कि वे चुनिंदा कंपनियों के शेयर की कीमतों को आर्टिफिशल रूप से बढ़ाने के लिए बैंकों में जमा जमाकर्ताओं के पैसे का इस्तेमाल कर सकते हैं.
उनकी अवैध गतिविधियां 1 मार्च 2001 तक वर्षों तक सहज रूप से चलती रहीं, जब केंद्रीय बजट पेश किए जाने के ठीक एक दिन बाद उनका बुलबुला फट गया. दो बैंक- ग्लोबल ट्रस्ट बैंक और गुजरात स्थित माधवपुरा मर्केंटाइल कोऑपरेटिव बैंक (MMCB) ध्वस्त हो गए, एमएमसीबी (MMCB) में कई जमाकर्ताओं ने अपनी जीवन भर की सेविंग खो दी.
संयोग से, पारेख ने 1990 के दशक की शुरुआत में हर्षद मेहता के कर्मचारी के रूप में काम किया था. लेकिन पारेख तब से भाग्यशाली रहे हैं, क्योंकि वह कुछ साल जेल में बिताने के बाद भी जीवित रहे, जबकि सुचेता दलाल जैसे वरिष्ठ पत्रकारों ने पारेख पर सेबी के प्रतिबंध के बावजूद, भारतीय शेयर बाजारों में खेलने के लिए "फ्रंट्स" का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया.
अप्रैल 1992 में जब हर्षद मेहता घोटाला सामने आया, तो इसमें शामिल शुरुआती राशि कुछ सौ करोड़ रुपये थी. आज के समय में, इन वित्तीय घोटालों में शामिल राशि हजारों करोड़ रुपये में होगी.
इनमें से सबसे बड़ा एनपीए (NPA) घोटाला था, यूपीए शासन के दौरान, 2006 और 2010 के बीच, जब पब्लिक सेक्टर के बैंकों को उनकी पसंदीदा कंपनियों को उनके महत्वाकांक्षी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए इन कंपनियों को पैसा उधार देने के लिए "राजी" किया गया था.
लाखों करोड़ रुपये गायब हो गए हैं, क्योंकि बैंकों को इन ऋणों को "बैड डेब्ट" के रूप में लिखने के लिए मजबूर किया गया है. बिल का भुगतान आखिरकार भारत के टैक्सपेयर्स द्वारा किया गया था.
क्या एनडीए शासन के आने के बाद हालात में सुधार हुआ? जूरी अभी भी बाहर है. आरबीआई जैसे नियामकों को यह पता लगाने में कई साल लग गए कि यस बैंक के राणा कपूर जैसे बैंकर कथित तौर पर बुक्स से छेड़छाड़ कर रहे थे.
2019 में जब पंजाब और महाराष्ट्र सहकारी बैंक बिना किसी चेतावनी के ढह गया तो महाराष्ट्र और केंद्र दोनों में एनडीए की सरकारें थीं. हजारों असहाय जमाकर्ताओं को अभी तक अपनी जीवन भर की जमा पूंजी वापस नहीं मिली है.
ऐसा लगता है कि इस तरह के घोटालों का कोई अंत नहीं है. क्या भारतीय नियामक, जैसा कि कुछ लोग सुझाव देते हैं, पश्चिम में अपने समकक्षों से कुछ सबक सीख सकते हैं?
दुर्भाग्य से नहीं. यूएस और यूके में घोटालों और बैंक पतन को रोकने में नियामकों का ट्रैक रिकॉर्ड उतना ही खराब है, हां मगर आरबीआई और सेबी से बदतर नहीं है. सिलिकॉन वैली बैंक से लेकर क्रेडिट सुइस मामले तक (मॉर्गन चेज और दुनिया के गोल्डमैन सैक्स की बात न करें तो) यह कहानी चल रही है. एक कनेक्टेड दुनिया में कहीं भी हुई किसी भी घटना का दुनिया भर के बाजारों में डोमिनोज़ प्रभाव होता है.
(यशवंत देशमुख और सुतनु गुरु सीवोटर फाउंडेशन के साथ काम करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखकों के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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