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पिछले कुछ हफ्तों में कर्नाटक के कई इलाकों में तनाव बढ़ा है. चूंकि कई स्टूडेंट्स से कहा गया कि वह हिजाब पहनने की वजह से स्कूल में दाखिल नहीं हो सकतीं और वहां पढ़ नहीं सकतीं. 5 फरवरी को कर्नाटक सरकार ने एक आदेश देकर यूनिवर्सिटीज में धार्मिक कपड़े पहनने पर पाबंदी लगा दी थी.
फिर 10 फरवरी को इस मसले पर कई याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कर्नाटक हाई कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने एक अंतरिम आदेश दिया. उसने यूनिवर्सिटीज को फिर से खोलने के निर्देश दिए और “स्टूडेंट्स से कहा कि कि वे क्लासरूम में भगवा शॉल, स्कार्फ, हिजाब, धार्मिक झंडे या उसकी जैसी चीजें न पहनें, चाहे उनका धर्म या आस्था कुछ भी हो.”
अदालत ने कहा है कि, अन्य बातों के साथ, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार पूर्ण नहीं है और व्यक्तियों को "शांति" को भंग करने की इजाजत नहीं है. "यह स्टूडेंट्स के हित में है कि वे क्लास में लौट जाएं. आंदोलन जारी रखना और नतीजे के तौर पर कॉलेज वगैरह बंद होना, उनके फायदे में नहीं है.”
याचिकाकर्ताओं का मामला, जिन्होंने क्लासरूम में किसी भी यूनिफॉर्म के साथ हिजाब पहनने के अधिकार की रक्षा की मांग की है, संविधान के कई मौलिक अधिकारों पर आधारित है. यह सिर्फ एक अकेला अधिकार नहीं है, बल्कि इस मामले में तमाम हक शामिल हैं.
ये अधिकार एक दूसरे के पूरक हैं और एक दूसरे को मजबूत भी करते हैं. इसके अलावा ये सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों पर आधारित हैं, जिनमें स्वायत्तता के अधिकार, गरिमा, भेदभाव से मुक्ति, पहचान और मजहब की आजादी के हक की बातें कही गई हैं.
इस मामले में शामिल कई प्रावधानों को समझना अहम है क्योंकि, जैसा कि कई अन्य ने कहा है, औरतें कई वजहों से हिजाब पहनना पसंद करती हैं - कुछ के लिए यह धार्मिक स्वतंत्रता और रूह की आजादी हो सकती है, तो किसी के लिए सीधा-सीधा अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा हुआ हो सकता है.
कोई फर्क नहीं पड़ता कि यहां किस अधिकार की बात हो रही है, लेकिन हम पाते हैं कि राज्य सरकार और स्थानीय अधिकारियों की कार्रवाई लोगों को उनके अधिकारों का इस्तेमाल करने से रोक रही है.
तिस पर, बसवराज बोम्मई सरकार के आदेश से व्यक्तिगत स्वायत्तता और गरिमा को धक्का लगता है, इसके अलावा यह मजहब की आजादी को प्रभावित करता है और इससे शिक्षा में भेदभाव भी बरता जाता है.
दुखद है कि कर्नाटक हाई कोर्ट ने उन विविध तरीकों को मानने से इनकार कर दिया जिनके जरिए इन अधिकारों का दावा किया गया था. उसने इसे सिर्फ अनुच्छेद 25 तक सीमित कर दिया जो कहता है कि "सभी व्यक्ति समान रूप से अंतःकरण की स्वतंत्रता के हकदार हैं और उन्हें स्वतंत्रता से धर्म को मानने, उसका पालन करने और उसका प्रचार करने का हक है.”
अदालत ने इस नजरिए से इस मामले को नहीं देखा कि मौलिक अधिकारों को एक साथ पढ़े- समझे जाने की जरूरत है. न ही अदालत ने यह समझा कि याचिकाकर्ताओं का हिजाब पहनने का आग्रह उनके धार्मिक विश्वास से परे जाता है.
वैसे किसी भी मामले में, अनुच्छेद 25 के तहत अंतरिम राहत दी जानी चाहिए या नहीं, इस पर अदालत का तर्क त्रुटिपूर्ण है.
आम तौर पर अदालत तीन तरीके से तय करती है कि किसी खास मामले में अंतरिम राहत दी जानी चाहिए या नहीं:
पहला, यह आकलन करती है कि क्या याचिकाकर्ता के पक्ष में कोई प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेशिया) मामला है;
दूसरा, यह आकलन करती है कि क्या बैलेंस ऑफ कन्वीयंस याचिकाकर्ता के पक्ष में है (यानी राहत न मिलने पर क्या याचिकाकर्ता को प्रतिवादी से ज्यादा असुविधा होगी); और
तीसरा, यह आकलन किया जाता है कि क्या अंतरिम राहत से इनकार करने पर याचिकाकर्ता को ऐसा नुकसान होगा, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती.
चूंकि अदालत ने मामले को अनुच्छेद 25 से जोड़ा है, इसलिए इस प्रावधान के जरिए यह समझना जरूरी है कि अदालत ने प्रथम दृष्टया मामले, बैलेंस ऑफ कन्वीनियंस और संभावित नुकसान का आकलन कैसे किया.
एक 'प्रथम दृष्टया' मामला, सीधे शब्दों में, यह होता कि क्या पहली नजर में याचिकाकर्ता के मामले पर आगे सोच-विचार करने की जरूरत है. याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि धर्म का पालन करने के अधिकार में हिजाब पहनना भी आता है, और यह उनका पक्का विश्वास है.
लड़कियां यह भी कह सकती थीं (कम से कम उनमें से कुछ) कि वे पहले भी अपने कॉलेजों में हिजाब पहनती रही हैं, और उनकी इस आदत में कोई धोखेबाजी नहीं है, या वे ऐसा किसी उलटे मकसद से नहीं कर रहीं.
अंतरिम राहत देने से इनकार करते समय अदालत को इससे आगे भी कुछ कहने की जरूरत थी. उसे याचिकाकर्ता के दावा पर संदेह जताने का ठोस कारण बताने की जरूरत थी. लेकिन दुखद रहा कि कोई कारण नहीं बताया गया.
इसी तरह बैलेंस ऑफ कन्वीनियंस और भरपाई न हो सकने वाले नुकसान, पर भी अदालत के नजरिये में खामी थी.
अदालत को यह देखने की जरूरत थी कि अगर याचिकाकर्ताओं को अंतरिम राहत न दी जाती तो उन्हें क्या असुविधा हो सकती है, और अगर प्रतिवादी यानी राज्य सरकार को यह राहत नहीं मिलती तो उसे क्या असुविधा हो सकती है. फिर दोनों की असुविधाओं के बीच तुलना करने की जरूरत थी.
भरपाई न हो सकने वाले नुकसान, यानी अपूरणीय क्षति का मतलब यह है कि याचिकाकर्ता को ऐसा बड़ा नुकसान हो सकता है, जिसे बाद में हर्जाने देने के बावजूद दुरुस्त नहीं किया जा सकता.
कर्नाटक सरकार का आदेश और अब कर्नाटक हाई कोर्ट के आदेश में यह मांग की गई है कि स्टूडेंट्स हिजाब या यूनिवर्सिटी जाने, दोनों में से किसी एक को चुनें. यह मांग अपने आप में महिलाओं के स्वायत्तता के अधिकारों का हनन है. जो औरतें आम तौर पर सार्वजनिक जगहों पर हिजाब पहनना पसंद करती हैं, उन्हें घर पर रहने को मजबूर किया जाएगा.
अगर यह माना भी जाए कि कुछ स्टूडेंट्स आने वाले दिनों में क्लास आने के लिए अपनी स्वायतत्ता और धार्मिक विश्वास के अधिकार को छोड़ने को तैयार हो जाएंगी, लेकिन यह सोचना मूर्खता है कि उनका उत्पीड़न यहीं खत्म हो जाएगा.
अब, जो लोग हिजाब पहनने पर इन लड़कियों को परेशान कर रहे थे, इन्हें पहचानकर इन्हें निशाना बना सकते हैं, भले ही लड़कियां हिजाब के बिना क्लास में आने का फैसला करती हैं.
इस तरह या तो लड़कियों को शिक्षा से वंचित किया जाता है, या वे अपनी स्वायत्तता और धार्मिक आजादी को छोड़ने के बाद और ज्यादा उत्पीड़न की शिकार होती हैं. ये दोनों बातें, मौलिक अधिकारों पर गंभीर चोट पहुंचाती हैं, और यकीनन, इसकी भरपाई नहीं की जा सकती.
अदालत ने नहीं सोचा कि यह असमंजस कितना गहरा है, यह और भी अफसोस की बात है.
यूं अदालत को सोचना था कि राज्य सरकार के हुक्म के चलते स्टूडेंट्स को एकैडमिक ईयर के बीचों-बीच अचानक, अपने मौलिक अधिकारों और शिक्षा के अधिकार, इन दोनों में से किसी एक को चुनना पड़ रहा है.
अनुच्छेद 25 बताता है कि राज्य सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के आधार पर किन हितों के उल्लंघन का दावा कर सकता है. जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में बार-बार कहा है, सार्वजनिक व्यवस्था का मतलब "कानून और व्यवस्था" के छोटे मोटे मामले नहीं, और उससे ज्यादा बड़ा है.
फिर राज्य सरकार ने यह साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया कि औरतों के हिजाब पहनने से कानून व्यवस्था को क्या नुकसान पहुंच सकता है- सार्वजनिक व्यवस्था जैसा गंभीर मसला तो दूर की बात है.
राज्य सरकार के मामले में तो कमियां थीं ही, हाई कोर्ट के आदेश में भी ऐसी ही बेबुनियादी वजहें देखी गईं. किसी खास कानून की हवाला दिए बिना जजों ने कहा, “कि हम एक सभ्य समाज हैं. यहां धर्म, संस्कृति या किसी भी चीज के नाम पर किसी शख्स को सार्वजनिक शांति को भंग करने वाला कोई भी काम करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती."
अदालत ने इससे भी आगे बढ़ जाती है, जैसे कि प्रदर्शनों की वजहें यह थी कि मुसलिम स्टूडेंट्स हिजाब पहने हुए थीं. उसने इस बात को नजरंदाज कर दिया कि इन प्रदर्शनों की वजह यह थी कि प्रशासन स्टूडेंट्स को हिजाब पहनकर कॉलेज में दाखिल नहीं होने देना चाहता था. वह स्टूडेंट्स को खेमों में बांटना चाहता था और सरकार नहीं चाहती थी कि स्टूडेंट्स हिजाब पहनें.
घटनाओं के क्रम को सही तरह से न देखना दिक्कत भरा है क्योंकि इसकी वजह से मुसलिम स्टूडेंट्स का अपने हक का दावा करना गलत महसूस होता है, और अदालत किसी मामले को किस तरह देखे, इसे उलटे तरीके से समझा जाता है.
यहां यह कहना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करने के लिए हेकलर्स वीटो को आधार बनाए जाने का जोखिम है. इस तरह लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी छीनी जा सकती है.
लेकिन हाई कोर्ट ने इस चेतावनी पर कान नहीं धरा और हिजाब पहनने वाली स्टूडेंट्स के उत्पीड़न को साफ तौर से जायज ठहराया. इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि इससे मुसलिम महिलाओं के उत्पीड़न को बढ़ावा मिलेगा- इसका यह मतलब भी है कि अगर लोग उनके पहनावे पर नाराज होते हैं तो वे खुद इसके लिए जिम्मेदार हैं.
और यह रिवाज शुरू भी हो गया है. देश के दूसरे कॉलेजों में भी मुसलिम स्टूडेंट्स के हिजाब पहनने पर ऐतराज जताया जा रहा है.
इसके बावजूद कि कर्नाटक हाई कोर्ट ने इन प्रदर्शनों पर ‘दुख’ जताया है, और इस बात की उम्मीद कम ही है कि यह अशांति अब थमेगी और इस आदेश से राज्य में तनाव कम होगा. इसके बजाय देश में स्थितियां बदतर हो सकती हैं.
(विक्रम आदित्य नारायण और जाह्नवी सिंधु दिल्ली में रहने वाले वकील हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 13 Feb 2022,02:52 PM IST