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कुछ समय पहले तक यह बहस होती थी कि क्या हिजाब (Hijab) और बुर्का औरतों के दमन के हथियार हैं. क्या कपड़े का एक टुकड़ा औरतों के वजूद पर सवाल खड़े करता है. जिसे अंग्रेजी में लैक ऑफ एजेंसी कहा जाता है, हिजाब उसका सबूत है. लेकिन कर्नाटक में हिजाब विवाद ने इस पूरी बहस को एक अलग ही दिशा में मोड़ दिया है.
राज्य के कई स्कूल एडमिनिस्ट्रेशन उत्पीड़न के कथित हथियार, यानी कपड़े के इस टुकड़े के लिए नफरत से भरे हुए हैं. अब यहां हिजाब सिर्फ लैक ऑफ एजेंसी नहीं दर्शा रहा. यह पब्लिक स्पेस में डर पैदा करने लगा है. या यूं कहें कि इसके जरिए पब्लिक स्पेस में डर पैदा किया जा रहा है.
इस विवाद का इतिहास सात समुंदर पार से शुरू हुआ था. 1989 में फ्रांस के स्कूलों में हिजाब पर बहस छिड़ी. 18 सितंबर, 1989 को इस्लामिक स्कार्फ यानी हिजाब पर तब विवाद की शुरुआत हुई, जब उत्तरी फ्रांस के क्रेल में गैब्रियल हावेज मिडिल स्कूल में तीन लड़कियों को सिर्फ इसलिए स्कूल से सस्पेंड कर दिया गया क्योंकि उन्होंने हिजाब उतारने से इनकार कर दिया था.
फिलहाल यूरोप के कई देशों ने पब्लिक स्पेस में फेशियल कवरिंग पर प्रतिबंध है. स्विट्जरलैंड में 2021 मार्च में एक कानून के जरिए पब्लिक स्पेस में फेशियल कवरिंग को बैन किया गया है. यह नया कानून आम लोगों की सहमति से लाया गया है जिसकी अगुवाई वहां के एक दक्षिणपंथी संगठन ने की है. इसके अलावा डेनमार्क, नीदरलैंड्स और ऑस्ट्रिया ऐसी ही पाबंदियां लगा चुके हैं.
खास बात यह है कि ये पाबंदियां जिस तरीके से लाई गई हैं, वह बहुत खतरनाक है. अक्टूबर 2020 में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों एक विवादास्पद बिल लेकर आए. सरकार ने दावा किया कि फ्रांस में रहने वाले करीब 60 लाख मुसलमानों के एक ‘काउंटर सोसायटी’ बनाने का डर है. यह बिल ‘इस्लामिक अलगाववाद’ के खतरों को काबू में करने के लिए लाया जा रहा है.
लेकिन क्या अब ये पाबंदियां सिर्फ इतनी भर रह गई हैं. भारत में इस पूरे प्रकरण को इस्लामिक चिन्हों को लेकर पैदा होने वाले डर से भी देखा जाना चाहिए. 9/11 के हमले और अफगानिस्तान पर चढ़ाई के बाद से अमेरिकी सरकार ने लोगों में इस्लाम को लेकर अलग ही डर पैदा किया.
पिछले आठ सालों के दौरान सारे मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की धमकी दी गई है. कथित लव जिहाद को लेकर नारे लगाए गए हैं. उन्हें गोहत्यारे, आतंकवादी बताया जा रहा है. बताया जा रहा है कि वो लोग ज्यादा बच्चे पैदा करके भारत पर कब्जा करने की योजना बना रहे हैं. मंदिर तोड़कर मसजिद बनाने की बदमाशी कर रहे हैं. तीन शब्द बोलकर अपनी औरतों को छोड़ देते हैं.
यानी पब्लिक स्पेस में मुसलमान या इस्लाम का ये जो डर पैदा हुआ है, भारत की मौजूदा राजनीति की अभिव्यक्ति है. यह अभिव्यक्ति साफ कहती है कि हम मुसलमानों को हिंदुओं पर हावी नहीं होने देंगे. हिजाब टेकओवर जैसा बन गया है, कि देखिए मुसलमान हर पब्लिक स्पेस पर कब्जा कर रहे हैं.
एक धर्म वालों को राजनीति तौर पर गोलबंद करने के लिए दूसरे धर्म से डराया जा रहा है. उन्हें समझाया जा रहा है कि एकजुट नहीं हुए तो खत्म हो जाओगे. फिलिस्तीनी कल्चरल थ्योरिस्ट एडवर्ड डब्ल्यू सइद जिसे अदरिंग कहते हैं. अदरिंग यानी धर्म, लिंग, सामाजिक-आर्थिक स्थिति के कारण लोगों के प्रति पूर्वाग्रह रखना.
यूं हिजाब या बुर्का पहनने, न पहनने पर भी लंबा विवाद रहा है. बुर्के को अमेरिकी एंथ्रोपोलॉजिस्ट और फेमिनिस्ट हना पापनेक ने कई साल पहले ‘पोर्टेबल सेक्लूजन’ कहा था. सेक्लूजन यानी तनहाई. उनकी बाद की पीढ़ी की एंथ्रोपोलॉजिस्ट लीला अबू लुगोद इसे कुछ इस तरह स्पष्ट करती हैं कि बुर्का दरअसल मोबाइल होम्स की तरह काम करता है. वह पब्लिक प्लेसेज़ में और अजनबी पुरुषों के बीच औरतों को आजादी से विचरण करने का मौका देता है.
इसके अलावा इसका यह मतलब भी नहीं कि इससे औरतों की एजेंसी खत्म होती है. दरअसल एजेंसी, च्वाइस और पर्सनहुड जैसे शब्दों के मायने भी हर समाज में अलग-अलग होते हैं. हर समाज का अपना तौर-तरीका होता है. हर तौर-तरीके पर सवाल खड़े करने से पहले यह भी सोचना होगा कि इसका विरोध किधर से किया जा रहा है. औरतें खुद इसका विरोध कर रही हैं या उनकी एवज में पुरुष ही फैसला कर रहे हैं.
सीरिया की मशहूर पोएट मोहजा काहफ ने अपने निबंध ‘फ्रॉम हर रॉयल बॉडी द रोब वॉज रिमूव्ड’ में बताया है कि कैसे बीसवीं शताब्दी में सरकारों ने तुर्की, सीरिया और ईरान जैसे देशों में आधुनिकता के नाम पर औरतों को बेइज्जत किया. पब्लिक में परदे में न रहने पर सजा देने की बजाय इस बात की सजा दी कि उन्होंने परदा किया हुआ है.
जैसा कि काहफ लिखती हैं, परदे की मौजूदगी से औरतों की ताकत छिनती नहीं, न उसकी गैरमौजूदगी से वह ताकत छिनती है. यह ताकत इस बात से मिलती है कि क्या उन्हें आर्थिक, राजनीतिक और पारिवारिक हक मिले हैं? यानी हिजाब या बुर्का, अपने आप में औरतों पर अत्याचार नहीं- अत्याचार है, महिलाओं को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक एजेंसियों से बाहर रखना. यानी स्कूलों में पढ़ने न देना, या अलग बिठाकर पढ़ाना, इससे उनकी ताकत, एजेंसी छीनी जा रही है. बाकी, यह एक लंबी साजिश का हिस्सा है, जो लगातार तय कर रहा है कि मेरी थाली में क्या परोसा जाएगा- मेरी अलमारी में कौन सी किताब होगी- मेरे शरीर पर कैसा कपड़ा होगा.
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