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कुछ समय से सनातन पर बड़ी चर्चा छिड़ी है. यह हिंदू राष्ट्र का पर्याय भी माना जाता है. जब हिंदू धर्म के कुछ प्रश्नों का जवाब नहीं मिलता तो सनातन धर्म शरणं हो जाते हैं. यहां भी संतोषजनक उत्तर न मिलने पर फिर चर्चा का अंत हो जाता है. हिंदू धर्म विरोधी आरोप, चिल्लाना और पलट कर पूछना कि क्या अनंत और अनादि का जाना और समझा जा सकता है? नास्तिक होने का आरोप लग जाए तो ताज्जुब न हो. मानव स्वभाव हमेशा कुछ प्राप्ति की तलाश में रहता है, जो मिल गया उससे संतुष्ट नहीं होता.
जिनकी भौतिक आवश्यकताएं पूरी हो गई हैं वो भी कुछ और बड़ी चीज की इच्छा रखते हैं और जो अभाव की जिन्दगी जीते हैं और कोशिश के बावजूद इच्छा पूरी न हो तो फिर चमत्कार का सहारा. इस जन्म में प्राप्त न हो तो दूसरे जन्म में ही सही. स्वर्ग और नर्क का तिलस्म इतना बड़ा है कि इन्सान इसकी खोज और प्राप्ति में कुछ भी करने को तैयार रहता है.
पाखंडी, अर्धशिक्षित और तर्कहीन समाज, जो अभाव, अन्याय और अधिकार से वंचित हो, उसको चमत्कार के माध्यम से संगठित करना मुश्किल नहीं है. जनतंत्र को नकारने वाले शुरू से ही संविधान को समस्याओं का कारण बताते रहे हैं. कई संघर्षरत लोग थक हारकर संविधान में गड़बड़ी को कारण बता बैठते हैं.
संविधान को संघ और हिंदू महासभा ने शुरू में पुरजोर विरोध किया था और तभी से कभी दबी जुबान या मुखर होकर इसका विरोध करते आ रहे हैं. बीच बीच में शिगूफा छोड़ते रहते हैं कि संविधान ही गलत है. एक तबका मानने लगा है कि संविधान ही समस्या का जड़ है और बदले में सनातन धर्म विकल्प बताने से नहीं चूकते.
अब यक्ष प्रश्न है कि वेद, भगवत गीता, रामायण, पुराण सनातन धर्म का हिस्सा हैं कि नही? नकारेंगे तो सवाल उठता है कि सनातन का अपना कोई धार्मिक और सामाजिक नियम, किताब और परंपरा क्या हैं? यह एक कल्पना की दुनिया है, जिसकी कोई प्रमाणिकता नहीं है. महाभारत में जाति व्यवस्था का उल्लेख स्पष्ट है. यथास्थितिवाद उसके मूल में है.
तमाम समस्याओं का समाधान सनातन धर्म के पुनःउत्थान से बताया जा रहा है. सनातन धर्म में दलितों, पिछड़ों और महिलाओं की क्या स्थिति होगी, बताया नहीं जा रहा है. मान लेते हैं कि पुनः वो व्यवस्था लौट आए तो उसका क्या प्रारूप होगा? है कोई बताने वाला , होगा भी नहीं.
जितने सनातन धर्म के वकील हैं वो सभी जाने और अनजाने में संविधान विरोधी हैं. इन्हे धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र से बड़ी नफरत है, क्योंकि इनके होते एकाधिकार नहीं हो पाएगा. जनतंत्र में साधन और सत्ता का बंटवारा होता है. ऐसी स्थिति में गुलामी करने वाले नहीं रह जाएंगे.
जैसे जागृति बढ़ी है, निम्न और पिछड़ी जातियां सवाल करने लगीं हैं कि हिंदू धर्म ने दिया क्या? डॉ. अंबेडकर लाखों अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म छोड़कर 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध बन गए. दलित और पिछड़ों ने अपने जाति की गोलबंदी की और अब जातिवादी व्यवस्था को चुनौती देने लगे हैं. इस बगावत को रोकना मुश्किल हो रहा है.
सनातन का झांसा कामयाब नहीं होने वाला. क्या इसका कोई खाका है? क्या कोई नियम और सिद्धांत दिखता है? सनातन में सवर्णों का स्थान तो पक्का दिखता है पर बाकियों का अपरिभाषित है. कभी कभी सतयुग का कटिया फेंकते हैं और लोग फंस भी जाते हैं. यहां बरबस डॉक्टर अम्बेडकर याद आते हैं. उनका कहना था कि...
उनके मतानुसार जाति प्रथा के चलते हिंदू धर्म में इन तीनों का ही अभाव था. ये कथित सनातनी वर्तमान को नकारते हैं और संसार को बुलबुला और मायाजाल से तुलना करते हैं. कथा, जागरण, प्रवचन, उपदेश में कमेरा, किसान, व्यापारी, मजदूर और शिक्षक आदि को भोगी कहा जाता है.
बहुजन चमड़ा का काम, साफ-सफाई, कृषि, दूध उत्पादन, मजदूरी, पशु पालन, दस्तकारी, मिट्टी खोदना, सिंचाई, कटाई आदि काम से जुड़े हैं. ऐसे लोगों के लिए सनातन में कोई जगह नहीं दिखती. जो बहुजन सनातन धर्म के झूठे सपनों में फंस रहे हैं या जाएंगे, अपना नुकसान करेंगे. यह समझ लेना जरुरी है कि इनका असली निशाना संविधान है.
(लेखक, डॉ. उदित राज अखिल भारतीय परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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