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झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अपने 46 साल के इतिहास में सबसे बेहतरीन प्रदर्शन किया है, बीजेपी के मुख्यमंत्री रघुवर दास अपने गढ़ जमशेदपुर पूर्व में हार गये हैं. दूसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री का पद संभालने जा रहे 44 वर्षीय हेमंत सोरेन के लिए यह बड़ा मौका है. कुछ महीने ही हुए हैं जब जेएमएम-कांग्रेस-जेवीएम(पी)-आरजेडी महागठबंधन को लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने करारी शिकस्त दी थी. बहुत कम लोगों को उम्मीद थी कि जेएमएम विधानसभा चुनावों में बाजी पलट सकता हैं.
लेकिन बाजी पलट गयी, धीमे से, मगर ये सोरेन के केंद्रित अभियान के कारण हुआ और जेएमएम ने हाई प्रोफाइल प्रशांत किशोर जैसी हस्ती के बगैर या बिना किसी पीआर फर्म को किराए पर रखे ही यह कर दिखाया. तो कैसे इन्होंने यह सब किया?
लोकसभा चुनावों से पूरे एक साल पहले और झारखंड विधानसभा चुनाव से ठीक 21 महीने पहले मार्च 2018 में कहानी शुरू हुई. ऑक्सफोर्ड, ससेक्स, एस्सेक्स और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में शिक्षित 12 पेशेवरों की एक टीम ने खुद को सोरेन से जोड़ा.
टीम के सदस्यों ने, जो अपना नाम सार्वजनिक नहीं करना चाहते, अपनी तुलना इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी (आई-पैक) से करने से इनकार कर दिया. सोरेन की टीम के एक सदस्य ने बताया,
सोरेन के काम करने का जो अविश्वसनीय तरीका था, उसका भरपूर फायदा टीम को मिला. नये विचारों को लेकर उनका खुलापन और यह तथ्य कि जेएमएम बहुत खर्चीला अभियान नहीं चला सकता. एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि सोरेन ने टीम की सोशल मीडिया वाली सलाह को मान लिया. जेएमएम नेता 2018 के बाद से सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय हो गये. यहां तक कि वे पारिवारिक तस्वीरों को ट्विटर और फेसबुक पर डालने लगे.
कुछ महीनों की तैयारी के बाद जेएमएम ने पूरे झारखंड में सोरेन की संघर्ष यात्रा की शुरुआत की. यह यात्रा छह महीने सितंबर 2018 से मार्च 2019 के भीतर 5 चरणों में की गयी.
टीम के एक सदस्य ने खुलासा किया, “राज्य के हर चौक-चौराहों पर अपनी उपस्थिति साबित करने का विचार था. सोरेन के फेसबुक और ट्विटर पेजों पर सभी रैलियों और सार्वजनिक सभाओं को लाइव स्ट्रीम किया गयां झारखंड के लिए यह नया था. यहां तक कि राज्य में बीजेपी भी सोशल मीडिया पर अन्य राज्यों के मुकाबले कम सक्रिय थी.
संघर्ष यात्रा से अलग उन्होंने रात्रि चौपाल का आयोजन किया, उन्होंने राज्यभर में रात्रि चौपाल बनाए या फिर लोगों के साथ देर रात तक बैठकें कीं. अलग से युवा संवाद अभियान चलाया गया. युवाओं तक पहुंच बनाने के लिए इसकी शुरुआत की गयी.
हालांकि इन प्रयासों के बावजूद जेएमएएम और इसके सहयोगियों ने बहुत खराब प्रदर्शन किया. वे 14 में से महज 2 सीटें ही जीत पाए- राजमहल में जेएमएम के विजय कुमार हंसदक और सिंहभूम में कांग्रेस की गीता कोड़ा. यहां तक कि बीमार जेएमएम प्रमुख शिबू सोरेन अपने गढ़ दुमका में चुनाव हार गये.
सोरेन और उनके साथियों को मिली लोकसभा में हार ने उन्हें अपनी रणनीति में बड़े बदलाव के लिए मजबूर कर दिया. सोरेन के भाषणों और जनता से मेलजोल को समाधानपरक बनाया गया. जनता जिन समस्याओं का सामना कर रही है खासकर उससे जोड़ा गया.
“उदाहरण के लिए हमें एक जानकारी मिली कि प्रधानमंत्री आवास योजना सही तरीके से लागू नहीं की जा रही है, तो सोरेन ने बेहतर टॉयलेट और किचन के साथ 3 लाख घर बनाने का वादा किया.’
ऐसी कई जानकारियां मिलने के बाद 10 सूत्री एजेंडा तैयार किया गया. सूची में दूसरे अन्य मुद्दों को शामिल किया गया. इनमें वन अधिकार कानून और आधार को जन वितरण प्रणाली से जोड़ने की गलत कोशिश थी.
राज्यव्यापी बदलाव यात्रा में सोरेन ने इन बिन्दुओं पर जोर दिया. यह यात्रा अगस्त से अक्टूबर तक चली जो रांची में 19 अक्टूबर को एक रैली के रूप में खत्म हुई.
सोरेन के वायदों में महत्वपूर्ण था नौकरियों में स्थानीय लोगों को आरक्षण. इसने युवाओं, खासकर बेरोजगारों से से सीधे तौर पर जोड़ा जो चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा था. झारखंड में हुए सभी चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में यह बात सामने आयी.
सोरेन के अभियान का टैगलाइन था “झारखंड मांगे युवा सरकार, झारखंडी सरकार”. इसका मकसद समुदाय से ऊपर उठकर झारखंड के युवाओं की भावना को जोड़ना था.
“झारखंड युवा झारखंडी सरकार चाहता है” इस टैगलाइन का जेएमएम ने अपने अभियान में इस्तेमाल किया. समाधानपरक नजरिया के अलावा जेएमएम के अभियान का एक और महत्वपूर्ण पहलू था : मुख्यमंत्री दास के साथ व्यक्तिगत रूप से प्रतिरोध.
दास को पहले कुछ सालों में मुख्यमंत्री के तौर पर जबरदस्त लोकप्रियता मिली. उन्होंने राज्य में गैर आदिवासी वोट बैंक को सफलतापूर्वक गोलबंद किया. खासकर ओबीसी को इकट्ठा किया, जिन्होंने महसूस किया कि आदिवासियों के प्रभुत्व वाली सोच ने उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी के अधिकार से वंचित किया है.
हालांकि अपने कार्यकाल के अंतिम समय में दास को अभिमानी के तौर पर देखा जाने लगा. आदिवासी और सवर्ण दोनों उनकी कार्यशैली से नाराज होते चले गये.
सोरेन के रणनीतिकारों ने सोचा कि मोदी वेब में वे भले ही हार गये हों, लेकिन वे बाजी पलट सकते हैं अगर यह चुनाव दास और सोरेन के बीच व्यक्तित्व की लड़ाई बन जाए.
जेएमएम के रणनीतिकारों में से एक ने बताया, “केवल यही बात नहीं थी कि वे (सोरेन) वादा कर रहे थे, हम चाहते थे कि लोग उन्हें अधिक से अधिक देखें और सुनें.”
सोरेन ने अभियान के दौरान 28 दिनों में 165 रैलियां कीं. वास्तव में जेएमएम को इस बात का भी फायदा मिला कि बीजेपी ने दास को अपने चेहरे के तौर पर दिखाया. जेएमएम ने इसे ‘दास बनाम सोरेन’ की जंग बनाया.
मीडिया के पक्षपाती रवैये के बारे में भी मीडिया को बताना पड़ा. उनका आरोप है कि राज्य और देश की मीडिया दास के प्रति पक्षपाती थी और सोरेन को शायद ही कभी जगह मिल पाती थी.कुछ जेएमएम समर्थकों का कहना है कि मीडिया में सवर्णों के वर्चस्व के कारण ऐसा है. इसका मुकाबला करने के लिए सोशल मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो गयी.
सोरेन की सोशल मीडिया टीम के एक सदस्य ने खुलासा किया, “हर रैली लाइव हुई, छोटी से छोटी मुलाकातें भी पोस्ट की गयीं और फेसबुक पर सीधा संवाद बना रहा. 2018 में जेएमएम की सोशल मीडिया टीम को प्रशिक्षण दिया गया और फिर उन्हें अलग-अलग जिलों में तैनात करना पड़ा.”
झारखंड का 11वां मुख्यमंत्री बनना तय हो जाने के बाद उनकी टीम का ध्यान अब अभियान चलाने से हटकर नीतियों के क्रियान्वयन की ओर हो सकता है. बेरोजगारी और आदिवासियों की जमीन पर उनका हक दिलाने की ओर मुख्य रूप से उनका ध्यान रहेगा.
तुलनात्मक रूप से पिछड़े राज्य झारखंड में कई चुनौतियां हैं और सोरेन को मुख्यमंत्री के रूप में अपना काम पूरा करना होगा.
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