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रामनवमी का जुलूस हर साल निकलता है. हां, यह बात अलग है कि अब इस तरह के जुलूस बिहार और पश्चिम बंगाल के छोटे शहरों में भी निकलने लगे हैं, जो पहले नहीं होता था. चैती दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन भी 'संभवत:' सालों से हो रहा है. 'संभवत:' इसलिए, क्योंकि इससे पहले मैंने इसके बारे में बिहार में तो कभी नहीं सुना था.
लेकिन इस साल इन त्योहारों के दौरान ऐसा क्या हो गया है कि बिहार और पश्चिम बंगाल के कई शहर झुलसने लगे? भड़काऊ भाषण तो पहले भी दिए जाते होंगे. लाठीधारी रामभक्त पहले भी जुलूस में हिस्सा लेते होंगे.
अनुमान लगाना बहुत आसान है. अगले साल लोकसभा चुनाव होने वाले हैं और पिछले कुछ सालों से पैटर्न रहा है कि लोकसभा चुनाव से पहले माहौल तैयार करने का सिलसिला शुरू हो जाता है. जाहिर है, दंगे इस पैटर्न का हिस्सा हैं.
अब बिहार के रामनवमी के जूलूस को जरा ठीक से समझते हैं. इस साल इसकी जमकर तैयारी की गई थी. अंग्रेजी अखबार 'इंडियन एक्सप्रेस' की ग्राउंड रिपोर्ट की कुछ बातों पर गौर कीजिए.
इसमें कहा गया है कि जहां औरंगाबाद शहर के रामनवमी जूलूस में पहले 2 से 3 हजार लोग शामिल होते थे, इस बार उसमें 10,000 लोग जुटे. इनमें कई लाठी और तलवार से लैस थे. साथ में यह जिद कि विवादित रास्तों से ही जुलूस ले जाना है.
इतनी बड़ी भीड़ अकस्मात इकट्ठी नहीं होती. कोई इसके लिए लगातार कोशिश कर रहा होगा. शायद वही, जिसको इसमें फायदा दिखता होगा.
कुल मिलाकर, माहौल 2013 जैसा है. उस समय बिहार में नीतीश कुमार और बीजेपी का साथ छूटा था. राज्य में अनिश्चितता का माहौल था. अनिश्चितता को दंगे के माहौल में बदलने की कोशिश की गई थी. जहां हर साल औसतन 20 सांप्रदायिक घटनाएं होती थीं, वो 2013 में बढ़कर 60 के पार चली गई. सोमवार के 'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल सिर्फ 3 महीने में ही इस तरह की घटनाओं का आंकड़ा 60 के पार चला गया है.
पूरे देश में भी कुछ इसी तरह का माहैल बन रहा है. जहां 2008-09 में सांप्रदायिक घटनाओं की संख्या में पिछले चाल साल के औसत के मुकाबले 20 परसेंट का उछाल आया था, 2013 में इस तरह की घटनाओं में 18 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी. पूरे देश में जितने दंगे हुए थे, उसका 30 परसेंट सिर्फ उत्तर प्रदेश में हुआ.
आखिर बिहार और पश्चिम बंगाल इस बार निशाने पर क्यों हैं. पश्चिम बंगाल में तो सदियों से सौहार्द का माहौल रहा है, तो फिर अब कहां गड़बड़ी हो रही है? दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों के स्टाइल से इसे समझना होगा.
नीतीश के सहयोगियों को लगने लगा है कि लोगों में उनकी अपील कम हुई है और वोट हासिल करने की क्षमता भी पहले जैसी नहीं है. ऐसे में राज्य में एक तरह का राजनीतिक खालीपन सा हो गया है, जिसे भरने की होड़ लगी है.
दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी परसेप्शन मैनेजमेंट में फेल होती दिख रही हैं. उनकी इमेज इस तरह बनती जा रही है कि वो किसी खास समुदाय पर ज्यादा मेहरबान हैं. सच्चाई कुछ भी हो, संदेश यही जा रहा है. ऐसे में दूसरे समुदाय के पैरोकारों को एक ओपनिंग दिखती है. दंगे उसी खींचतान का नतीजा हैं.
यह सारे विश्लेषण तो एक जगह. लेकिन हम सबके मन में फिर भी एक सवाल- चुनाव जीतने का दंगाई तरीका तत्काल बंद होना चाहिए.
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