बात बीते साल की है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ताजा-ताजा राष्ट्रीय जनता दल और महागठबंधन से नाता तोड़ भारतीय जनता पार्टी के खेमे में आए थे. नई सरकार के लिए कानून-व्यवस्था की पहली चुनौती दशहरे और मुहर्रम के रूप में सामने आई, जो एक ही दिन थे. नीतीश ने पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की बैठक बुलाई और साफ आदेश दिया कि हर हालत में शांति-व्यवस्था कायम रहनी चाहिए. हुक्म की तामील हुई और राज्य में मोटे तौर पर शांति कायम रही.
दशहरे के करीब एक हफ्ते के बाद अपने साप्ताहिक 'लोक-संवाद' कार्यक्रम में नीतीश ने अपने अधिकारियों की पीठ भी थपथपाई. लगे हाथ उन्होंने राजनीतिक विरोधियों पर भी जमकर शब्दों के बाण चलाए थे. उन्होंने 9 अक्टूबर को कहा था, “हर संप्रदाय में कुछ सिरफिरे लोग रहते हैं, जो मार-काट और झगड़ा-झंझट पर भरोसा करते हैं. इस बार कोशिशें तो बहुत हुई थीं, लेकिन हमारे अधिकारियों ने समझ-बूझ से काम लिया. उसका नतीजा है कि इस बार बिहार में एक भी जगह दंगा नहीं हुआ.”
साथ ही साथ, उन्होंने कार्यक्रम के खत्म होते-होते उन्होंने एक सीख भी दी कि लोगों को किसी दूसरे की आस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.
बिसरी नसीहतें
इस बात को छह महीने भी नहीं बीते हैं, लेकिन लगता है कि उनके अपने सहयोगियों ने उनकी सीख को भुला दिया है. लगभग 30 साल की शांति के बाद भागलपुर में पहली बार धार्मिक टकराव की घटना हुई. समस्तीपुर के रोसड़ा कस्बे और शेखपुरा में दंगों का इतिहास नहीं था, वहां भी रामनवमी के मौके पर सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं हुईं.
औरंगाबाद में बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में जमकर आगजनी और पथराव किया गया. बिहार में बीते एक महीने में संप्रादयिक तनाव और दंगों की 9 बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं. भागलपुर, नवादा , जमुई, अररिया, औरंगाबाद, नालंदा, शेखपुरा, समस्तीपुर और मुंगेर जिलों में दंगा और धार्मिक टकराव की घटनाओं ने नीतीश के बिहार में सांप्रदायिक सद्भाव के दावों को तार-तार करके रख दिया है.
इन दंगों की वजह से राज्य में अधिकारियों का हौसला भी टूट रहा है. सूत्रों की मानें, तो कई प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी अब फील्ड पोस्टिंग से कन्नी काट रहे हैं. मिसाल के तौर पर गया के इमामगंज इलाके में महावीर जयंती के मौके पर स्थानीय पुलिस ने हाथ खड़े कर दिए और वरीय अधिकारियों को ऐन वक्त पर केंद्रीय पुलिस बलों की तैनाती करनी पड़ी थी.
कई दूसरे इलाकों में भी अब अधिकारी केंद्रीय बलों की तैनाती को प्राथमिकता दे रहे हैं, ताकि उन पर सवाल नहीं उठे. बदनामी के डर से कई डीएम और एसपी भी अब राज्य मुख्यालय या केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने की जुगत लगा रहे हैं.
चुनौतियों का बोझ
NDA में नीतीश कुमार की वापसी के बाद से ही उनकी सरकार के प्रदर्शन पर लगातार सवाल उठ रहे हैं. इस बात की गवाही राज्य सरकार के अपने आंकड़े देते हैं. अगर कानून-व्यवस्था की बात करें, तो 2016 की तुलना में बीते साल राज्य में संज्ञेय अपराधों के आंकड़ों में 24 फीसदी का इजाफा हुआ है.
वैसे नीतीश के मुताबिक बिहार में शराबबंदी के बाद गंभीर अपराधों जैसे हत्या, बलात्कार, अपहरण और लूट की घटनाओं में गिरावट आई है. वहीं उनकी अपनी पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 की तुलना में 2017 में बिहार में हत्या के मामलों में 9 फीसदी, बलात्कार के 20 फीसदी और अपहरण के 22 फीसदी ज्यादा मामले दर्ज किए गए. वहीं, बीते साल राज्य में 11,698 मामले दंगों के दर्ज किए गए, जो पूरे देश में सबसे ज्यादा हैं.
दूसरी तरफ, वित्तीय मोर्चे पर भी राज्य सरकार की हालत खस्ता ही हुई है. बिहार सरकार लगातार दूसरे साल अपने कर राजस्व के आंकड़ों को हासिल नहीं कर पाई है. बीते वित्त वर्ष में राज्य सरकार ने वाणिज्य करों के मद में 24,000 करोड़ रुपये टैक्स जुटाने का लक्ष्य रखा था, लेकिन 31 मार्च तक राज्य सरकार बमुश्किल 20,000 करोड़ रुपये जुटा पाई.
बीते साल भी 22,000 करोड़ रुपये के लक्ष्य की तुलना में वित्त विभाग 18,000 करोड़ रुपये ही जुटा पाया था. खर्च के मामले में भी राज्य सरकार की स्थिति गंभीर है. अकेले 31 मार्च, 2018 को राज्य के कोषागारों (ट्रेजरी) से करीब 70 हजार करोड़ रुपये की निकासी की गई, जबकि राज्य सरकार का कुल बजट 1.61 लाख करोड़ रुपये का था.
राजनीतिक तौर पर भी कमजोर
राजनीतिक मोर्चे पर भी नीतीश की स्थिति बीते साल की तुलना में कमजोर हुई है. हाल के लोकसभा और विधानसभा उप-चुनाव से यही बात सामने आई है.
अररिया में जबरदस्त जोर आजमाइश के बाद भी बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा था. हालांकि जेडीयू को जहानाबाद में विधानसभा उप-चुनाव में हार की ओर भी जानकार इशारा कर रहे हैं. उनके मुताबिक इस सीट पर जेडीयू की 30,000 मतों से ज्यादा की हार से साफ है कि पार्टी को इस बार अपने महादलित और अति पिछड़े मतदाताओं का साथ नहीं मिला.
दूर होते साथी
वहीं, राजनीतिक साझेदार भी बीजेपी और नीतीश से दूर होते जा रहे हैं. पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी के पाला बदलने से गठबंधन के लिए अच्छा संदेश नहीं गया है. वहीं केंद्रीय मंत्री और RLSP सुप्रीमो उपेंद्र कुशवाहा की आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद से बीते हफ्ते की मुलाकात का राजनीतिक मतलब भी बखूबी निकाला जा रहा है.
लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान को लेकर भी चर्चाएं आम हैं. शायद इसीलिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब पासवान को खुश करने में लगे हुए हैं. पार्टी सूत्रों की मानें, तो नीतीश जल्दी ही पासवान जाति को महादलित जातियों में शामिल करने का ऐलान कर सकते हैं.
दूसरी ओर, भागलपुर दंगों में केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे अर्जित शाश्वत की गिरफ्तारी को लेकर भी जेडीयू और बीजेपी में तनातनी है.
रविवार देर रात शाश्वत की गिरफ्तारी के बाद बीजेपी कार्यकर्ताओं ने भागलपुर में राज्य सरकार के खिलाफ जमकर नारेबाजी की. खुद चौबे ने बिहार पुलिस पर पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर कार्रवाई करने का आरोप लगाया.
वहीं, जेडीयू के अंदरखाने में भी सांप्रदायिक तनाव को बीजेपी कार्यकर्ताओं की भूमिका को लेकर काफी रोष है. पार्टी के प्रवक्ता नीरज कुमार ने कहा, “कानून-व्यवस्था और सांप्रदायिक सौहार्द ही हमारी पूंजी है. हम इस बारे में कोई समझौता नहीं कर सकते.”
हालांकि पार्टी के कई नेता दबी जुबान से मान रहे हैं कि इस बार बीजेपी 'बड़े भाई' की भूमिका मांग रही है, जो उनके लिए असहज स्थिति पैदा कर रहा है. हालांकि अगले साल के लोकसभा चुनाव को देखते हुए पार्टी के पास अब विकल्प काफी सीमित हैं.
(निहारिका पटना की जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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