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ILFS: साल भर पहले की एक भूल ने इकनॉमी को मंदी में झोंक दिया

पूरी दुनिया के फाइनेंशियल सेक्टर को सितंबर के महीने से डर क्यों लगता है?

राघव बहल
नजरिया
Updated:
सरकार के ILFS के साथ जूता या बिस्किट कंपनी जैसा बर्ताव करने से देश के वित्तीय बाजार में हताशा है...
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सरकार के ILFS के साथ जूता या बिस्किट कंपनी जैसा बर्ताव करने से देश के वित्तीय बाजार में हताशा है...
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता

पूरी दुनिया के फाइनेंशियल सेक्टर को सितंबर के महीने से डर लगता है. साल 2001 में सितंबर के ही महीने में मैनहटन में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के दो टावरों पर कमर्शियल एयरक्राफ्ट से आतंकवादी हमला हुआ था, जिसके बाद पूरे हफ्ते न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज और नैस्डेक बंद रहा. 2008 में इसी महीने में लीमैन दिवालिया हो गया था, जिससे ग्लोबल मार्केट्स को लकवा मार गया था.

अगर आप पिछले साल को देखें तो सितंबर के महीने में ही हमारे देश में IL&FS का दिवालिया निकल गया था. कंपनी का काम बंद हो गया था, जिसकी वजह से लग रहा था कि हमारे शेडो बैंक (गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां यानी NBFC) का काम रुक सा गया है. इसके बाद पूरे एक साल तक लगता था कि देश की मार्केट में मरने की इच्छा आ गई है. एक साल से बाजार इसकी दहशत के साये में है, जिसका अंजाम पिछले महीने यानी सितंबर में एल्टिको कैपिटल के अजीब मामले के रूप में सामने आया.

एल्टिको का किस्सा हकीकत से परे जैसा लगता है. दुनिया के तीन दिग्गजों ने इस NBFC की शुरुआत की थी, जो करीब 300 अरब डॉलर की संपत्ति मैनेज करते हैं. एल्टिको भारतीय शेयर बाजार में लिस्टेड भी नहीं है. कंपनी की अपनी इक्विटी 500 करोड़ से अधिक और नेटवर्थ 3,000 करोड़ रुपये से ज्यादा थी.

वित्त वर्ष 2020 की पहली तिमाही यानी अप्रैल-जून में उसे 75 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ था. उसके पास 550 करोड़ से अधिक की नकदी थी, जी हां, ठीक पढ़ा आपने, कंपनी के पास इतना कैश था. इसके बावजूद वह मशरेक बैंक को 20 करोड़ का ब्याज नहीं चुका पाई. अजीब है ना?

सरकार के ILFS के साथ जूता या बिस्किट कंपनी जैसा बर्ताव करने से देश के वित्तीय बाजार में हताशा है. रायसीना हिल ने इस मामले में कहा था, ‘ILFS एक निजी कंपनी है. सरकार को इसका डिफॉल्ट रोकने के लिए समर्थन देने या उसे रोकने की जरूरत नहीं है. दिवालिया कंपनियों के लिए जो व्यवस्था है, इस मामले से उसके जरिए निपटा जाएगा.

अफसोस, वित्त मंत्रालय ने इस सच को नकार दिया कि जब जूता या बिस्किट कंपनी बंद होती है तो कुछ मजदूरों की नौकरी जाती है और कुछ ग्राहकों को चाय में डुबोने के लिए पसंदीदा बिस्किट नहीं मिलती या वे पसंदीदा चप्पलें नहीं पहन पाते. जब बड़ी वित्तीय कंपनी दिवालिया होती है तो उससे अर्थव्यवस्था के दिल को भूकंप के झटके लगते हैं. इससे कई बचत करने वाले, कर्ज देने वाले, कर्ज लेने वाले, निवेशक और ग्राहक का नामोनिशान मिट जाता है.
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ILFS को मारने से 25 हजार करोड़ बचे, लेकिन 25 लाख करोड़ बर्बाद हुए

सही हो या गलत, ILFS (2001 में UTI की तरह है, जिसे वाजपेयी सरकार ने शानदार तरीके से बचाया था) को एक तरह से सरकारी कंपनी माना जाता है, जिस पर SBI और LIC सहित सरकारी क्षेत्र की कुछ दिग्गज कंपनियों का नियंत्रण और मालिकाना हक था. सितंबर 2018 में बंद होने से पहले के हफ्तों में भी वह कई बार डिफॉल्ट कर चुकी थी. इस कंपनी पर करीब एक लाख करोड़ का कर्ज था और उसे 31 मार्च 2019 तक सिर्फ 35 हजार करोड़ का बकाया चुकाना था.

कंपनी फटाफट 10 हजार करोड़ रुपये की संपत्ति और हिस्सेदारी बेच सकती थी. इसके बाद उस पर 25 हजार करोड़ का उधार रह जाता. चूंकि कंपनी का ऑपरेटिंग कैश फ्लो नेगेटिव था, इसलिए उसे बचाने की जरूरत पड़ती. ऐसा नहीं करने पर दूसरी वित्तीय कंपनियों के संकट में फंसने का डर था और बदकिस्मती से वही हुआ, जिसके खतरनाक नतीजे सामने आए.

(कार्ड: Kamran Akhter/The Quint)  

इस मामले के सामने आने के कुछ हफ्तों के अंदर शेयर बाजार में निवेशकों की 10 लाख करोड़ की संपत्ति स्वाहा हो गई. लोन ग्रोथ सुस्त पड़ गई. पहले से संकट में फंसे सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने ILFS को 40 हजार करोड़ का कर्ज दे रखा था. प्रॉविडेंट और पेंशन-इंश्योरेंस कंपनियों के भी इस फर्म में 30 हजार करोड़ रुपये फंसे हुए थे. NBFC, म्यूचुअल फंड और दूसरे निवेशकों को बाकी का 20 हजार करोड़ ILFS से वसूलना था, जिसके बट्टे खाते में डाले जाने का डर था.

(कार्ड: Kamran Akhter/The Quint)  

ऐसे में ILFS को बचाने के नैतिक द्वंद्व पर बहस करना मुनासिब नहीं था. तब जरूरत इस आग को बुझाने की थी ताकि शेयर बाजार की घबराहट खत्म हो जाए. इसके लिए सरकार के पास कई विकल्प भी थेः

  • वह इसके जरिए नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर एंड इनवेस्टमेंट फंड (NIIF) की खातिर बेहतर डेट/इक्विटी इंस्ट्रूमेंट तैयार कर सकती थी. NIIF कंपनी में नया मैनेजमेंट ला सकता था, जो आने वाले महीनों या वर्षों में सुनियोजित तरीके से कंपनी की संपत्तियों की बिक्री करता.
  • या वह जल्द कंपनी की कम हो चुकी नेट एसेट वैल्यू (NAV) कैलकुलेट करती और उसकी आधी कीमत पर राइट्स इश्यू लेकर आती. मिसाल के लिए, अगर खराब एसेट्स को बट्टे खाते में डालने के बाद नेट एसेट वैल्यू आधी हो जाती तो NAV के 25 पर्सेंट पर राइट्स इश्यू लाया जाता. मुझे यकीन है कि ILFS के निवेशक इस कीमत पर राइट्स इश्यू को हाथोंहाथ लपक लेते, खासतौर पर अगर उन्हें एक साल के अंदर लिस्टिंग का भरोसा दिलाया जाता.

सरकार इनमें से जो भी विकल्प चुनती, डिफॉल्ट्स रुक गए होते. उसके बाद रेगुलेटर्स कंपनी में व्यवस्थित तरीके से रिफॉर्म की शुरुआत कर सकते थे और संस्थापकों, निदेशकों, रेटिंग एजेंसियों सहित जो भी इस संकट के लिए दोषी पाया जाता, उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करते. जिन लोगों ने भी कम अवधि का फंड जुटाकर लंबी अवधि का कर्ज दिया था या चाहे जो भी गड़बड़ी हुई थी, उन सबके पीछे जिनका हाथ था, उनकी पहचान की जाती.

बदकिस्मती से सरकार की हालत उस हिरण जैसी हो गई, जो गाड़ी की हेडलाइट्स की रोशनी पड़ने पर स्तब्ध होकर ठिठक जाती है. उसने कोई विकल्प नहीं चुना, इसलिए डिफॉल्ट नहीं रुके. ILFS के डिफॉल्ट के बाद 400 कंपनियां दिवालिया होने की अर्जी दे चुकी हैं, जबकि इससे पहले के एक साल में ऐसी कंपनियों की संख्या 200 के करीब थी. कुछ समय के लिए 25 हजार करोड़ की मदद नहीं मिलने से अर्थव्यवस्था में 25 लाख करोड़ की वैल्यू कम हो गई और एक साल के बाद आज भी यह सिलसिला जारी है.

ऐसे में सरकार को ILFS संकट से क्या सबक सीखना चाहिए?

पहला: ऐसी वित्तीय कंपनियां जो व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण होती हैं, अगर उन्हें बचाया न जाए तो उससे बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है. इसे समझने के लिए आप नीचे TARP पर दी गई कमेंटरी देख सकते हैं

दूसरा: अगर वित्तीय कंपनियों को बचाया जाता है तो वह आर्थिक हित में होता है क्योंकि इससे सामान्य आर्थिक सुस्ती या अलग-अलग क्षेत्रों की मुश्किलों को रोका जा सकता है

तीसरी: ऐसी कंपनियों के मालिकों को सजा देने के बजाय बचाने से नैतिकता का सवाल खड़ा होता है, लेकिन ऐसी कंपनियों को बचाने पर उससे जुड़ी संपत्तियों की रक्षा होती है. यहां दोषी संस्थापकों और मैनेजरों को सजा भी दी जा सकती है.

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ILFS संकट से मिले सबक पर लौटते हुए मैं याद दिलाना चाहूंगा कि मैंने हमारी अर्थव्यवस्था में सिस्टम के लिए महत्वपूर्ण संपत्तियों को बचाने के लिए TARP जैसी योजना का सुझाव दिया था. आइए थोड़ी हिस्ट्री के साथ इसकी शुरुआत करते हैं. लीमैन ने 15 सितंबर 2008 को दिवालिया होने की अर्जी दी थी. इसके बाद शेयर बाजार में गिरावट आई, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था के बेतरतीब ढंग से ढहने की नौबत आ गई.

अमेरिकी सरकार ने तब स्थिति को संभालने के लिए जो तत्परता दिखाई, उसकी तारीफ की जानी चाहिए. तीन हफ्ते से कम समय में यानी 3 अक्टूबर 2008 को तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इमरजेंसी इकॉनमिक स्टेबलाइजेशन एक्ट पास किया, जिसे TARP या ट्रबल्ड एसेट रिकंस्ट्रक्शन प्रोग्राम भी कहा जाता है. अमेरिका ने तब 700 अरब डॉलर की डिस्ट्रेस्ड संपत्तियों को खरीदने का फैसला किया, यानी दिवालिया कंपनियों की बैलेंस शीट में सीधे यह रकम लगाई गई.

245 अरब डॉलर बैंकों को दिए गए. इसमें से 70 अरब डॉलर एक दिग्गज इंश्योरेंस कंपनी AIG को, 80 अरब डॉलर का इस्तेमाल जनरल मोटर्स और क्राइसलर जैसी ऑटो कंपनियों को बचाने के लिए किया गया. बाकी का पैसा कुछ संकटग्रस्त कंपनियों को दिया गया. हैरानी की बात यह है कि इन सबके लिए 410 अरब डॉलर का इस्तेमाल किया गया और बाकी के 290 अरब डॉलर के उपयोग की नौबत ही नहीं आई.

(कार्ड: Kamran Akhter/The Quint)  

TARP के तहत जो पैसा दिया गया, व न ही ग्रांट था और न ही सब्सिडी. यह एक निवेश था, जिसे वाजिब रिटर्न के साथ कंपनियों को वापस लौटाना था. इसके बावजूद कांग्रेसनल बजट ऑफिस ने शुरू में अनुमान लगाया था कि इसमें से 356 अरब डॉलर वापस नहीं आएंगे यानी उन्हें बट्टे खाते में डालना पड़ेगा. इसके बावजूद अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए वह इतनी रकम की कुर्बानी देने को तैयार थे. उन्हें यह बात अच्छी तरह पता थी कि अगर उन कंपनियों को जरूरत पड़ने पर कैश नहीं दिया गया तो उससे सिस्टम धराशायी हो जाएगा (काश, मोदी की टीम को भी मार्केट के मनोविज्ञान की इतनी बेहतर समझ होती).

TARP कितना सफल रहा?

इस पर बहस नहीं हो सकती कि अगर TARP नहीं लाया गया होता तो कितना नुकसान होता. ऐसा नहीं हुआ, इसलिए इसके बारे में सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है. एलन बिंडर और मार्क जेंडी की रिसर्च से पता चलता है कि अमेरिका में इससे बेरोजगारी दर 16 प्रतिशत तक पहुंच जाती. 1930 की महामंदी में वहां बेरोजगारी दर 25 प्रतिशत तक चली गई थी.

TARP की सफलता को मापने का एक और तरीका है. इसमें 356 अरब डॉलर के नुकसान की आशंका जताई गई थी, लेकिन TARP से अमेरिकी सरकार को एक रुपये का भी नुकसान नहीं हुआ. मुमकिन है कि इससे सरकार को मामूली मुनाफा हुआ हो.

कॉरपोरेट टैक्स में कटौती करने वाले और रिफॉर्मर के रूप में प्रधानमंत्री मोदी का हमने नया अवतार देखा है. उन्हें अपने सलाहकारों के लिए TARP हैंडबुक को पढ़ना अनिवार्य बनाना चाहिए.

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Published: 12 Oct 2019,09:17 PM IST

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