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मुझे विरासत में दादा-दादी से सिर्फ एक जोड़ी झुमके ही नहीं मिले..वो मेरे लिए उम्मीद और नाउम्मीदी की कहानियां भी छोड़ गए. मुझे याद नहीं है कि मैं पहली बार कितने साल की थी जब मेरी निगाहें घर में पड़ी एक जोड़ी सोने की झुमके पर गई थी, जो मेरी मां ने साड़ी के साथ कभी पहनी थी. हालांकि, मुझे वो कहानी याद है जो उस झुमके की जोड़ी से जुड़ी थी, एक ऐसी याद जो आने वाले वर्षों में मेरे मन मिजाज पर छाई रहेगी.
मेरी दादी जब अपने पति और दो बच्चों के साथ पाकिस्तान से 1947 में भारत आई थीं तब वो झुमके भी साथ ले आई थी. यह झुमके दादी ने मां को दिया और फिर मां ने मुझे.
झुमके अब एक सदी पुराने हो गए हैं. जब मैं 20 के आसपास की उम्र में थी तो इन्हें पहली बार पहनी थी. मैंने जिस शादी में शामिल होने के लिए इन्हें पहने थे, वहां बार-बार अपने कानों को छूकर ये सुनिश्चित करती रहती थी कि कहीं ये उस विवाह स्थल पर गिर तो नहीं गए.
आखिरकार ये सामान्य झुमके की जोड़ी भर नहीं थे. ये एक लंबी कहानी का हिस्सा थे. झुमके 1930 के दशक में बने थे और 1947 में उत्तर प्रदेश के झांसी और 1980 के दशक के अंत में आखिर दिल्ली पहुंचे.
जब पहली बार मैंने उन्हें पहना तो मैं इतना चिंतित थी कि कसम खाई कि उन्हें दोबारा नहीं छूऊंगी. मैंने खुद से कहा कि वे हमेशा एक बैंक में लॉकर के अंदर एक बॉक्स में पैक रहेंगे. झुमके हल्के वजन के हैं, इनसे बहुत पैसा नहीं मिलता लेकिन वो मेरी दादी शांति देवी की बची हुई अब एक मात्र यादें हैं.
मेरे मन में वर्षों से दादी और मेरी परदादी के बारे में कई सवाल रहे जिन्हें मैं जानना चाहती थी लेकिन 1993 में जनवरी की सर्द सुबह मेरी दादी चल बसीं और इनके साथ ही मेरे सवाल, सवाल ही रह गए.
वह उन्हें अपने साथ क्यों ले आईं?
क्या उन्हें पता था कि वह कभी पाकिस्तान नहीं लौटेंगी?
अगर भारत में उनके और उनके परिवार के लिए चीजें बहुत कठिन हो गईं तो क्या उन्हें वो गिरवी रखकर काम चलातीं?
मुझे अपने दादा-दादी से विरासत में सिर्फ बालियां ही नहीं मिली हैं, मुझे उनके दर्द, नुकसान और उम्मीदों की कहानियां, पेड़ों और पड़ोसियों की यादें, और उनकी पंजाबी लफ्ज की कुछ बोलियां भी विरासत में मिली जो शायद ही कभी बड़े पर्दे पर सही ढंग से दिखाई-सुनाई दे.
जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई, मेरी नाना-नानी ने बंटवारे के बारे में मेरे सवालों को धैर्यपूर्वक सुना. तब मैं इस बारे में अपनी पाठ्यपुस्तकों में पढ़ रही थी. मैंने उन्हें पाकिस्तान में डेरा इस्माइल खान और भाकर जहां वो बड़े हुए थे ले जाने का वादा किया. एक बार मैंने उनसे कहा कि "जब हम आपका घर ढूंढ लेंगे," तो वहां आपको ले चलेंगे.
लेकिन मुझे साल 2021 में जब उनकी मौत के पांच बरस गुजर गए तब ही पता चला कि मेरे परिवार ने वास्तव में 1970 के दशक में मेरे नाना के घर की तलाश की थी.
आपको यहां जरा कुछ संदर्भ बता दें पूर्वी दिल्ली कॉलोनी में 1947 में सरहद के उस पार से आए कई लोग रहते थे. मेरे नाना की मां ने भी पाकिस्तान में अपने घर के बारे में जानकारी लेने के लिए गोंसाई साब से गुजारिश की थी. उन्होंने घर के बारे में साफ लोकेशन बताया था, घर का हुलिया, आसपास के पेड़ , आंगन सबके बारे में साफ-साफ उन्होंने बताया था. उन्होंने उस आंगन के बारे में भी बताया था कि जहां हड़बड़ी में 1947 में घर छोड़ते वक्त उन्होंने जमीन खोदकर सोना छिपाया था.
हफ्तों बाद जब गोंसाई साहब लौटे तो मेरी मां याद करते हुए बताती हैं कि सभी पड़ोसी गोंसाई साहब से अपने घर का हालचाल जानने के लिए बैठे थे. गोंसाई साहब ने उन्हें सीमा पार की कहानियां बताईं. वहां की गलियां, बाजार और घरों के बारे में.
और फिर उसने मेरे नाना की मां को कुछ ऐसा बताया कि जो शायद वो हमेशा से जानती थी कि उनका घर वहां से खत्म हो चुका है और कुछ और उसकी जगह बन गया है.
माहौल में तब तक उदासी से भर गई थी...फिर गोंसाई साहब ने वहां से एक बोतल में लेकर आए पानी को निकालकर सबके सामने रख दिया. यह था ‘घर का पानी’..डेरा इस्माइल खां में किसी के घर से पानी की बोतल भरकर वो पूर्वी दिल्ली के कृष्णा नगर तक लाए थे. सबने बहुत खुशी से पानी की कुछ घूंट पी. आखिरकार यह एक ऐसी जगह से आया था जिसे उन्होंने दशकों से अपना घर कहा और फिर से उसे देखने का सपना देखा करते थे. जब मेरी मां ने मुझे 2021 में यह कहानी सुनाई, तो मैं एक बोतल ‘घर का पानी’ की बात सुनकर काफी ज्यादा इमोशनल हो गई थी.
मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कहानी मुझे इतने देर से कैसे पता चली. जब मैंने पहली बार मैंने अपने परिवार के बारे में जानना चाहा तो उसके लगभग दो दशक बाद मुझे ये सब जानकारी मिली. हालांकि, यह एकमात्र कहानी नहीं है जो मैंने सुनी है.. बल्कि एक और है ..जो काफी दुखद है.
मेरी मां ने मुझे बताया कि मेरे नाना की मां जिन्होंने गोंसाई साब को डेरा इस्माइल खान के बारे में पता लगाने को कहा था, उनसे सबकोई घर में डरते थे. वो बहुत तुनकमिजाज थीं और उनकी बच्चे और पोते उनके आसपास बहुत सावधानी से रहते थे.
मैंने मां से पूछा कि क्या वो अपनी जवानी के दिनों में अलग थीं.. ये तभी की बात है जब 1947 के बारे में मुझे एक और भयानक कहानी पता चली. अगस्त 1947 में मेरे नाना की मां, उनके पति और उनके चार बच्चे पाकिस्तान से भारत के लिए ट्रेन में बैठे.. उनके साथ उनका 20 साल का एक भाई अर्जुन भी था..ट्रेन छूटने में चंद मिनट ही बाकी थे कि तभी अर्जुन को कुछ याद आया और उन्होंने वादा किया कि वो तुरंत लौटकर आते हैं .. लेकिन अर्जुन जी कभी वापस नहीं लौटे .. ये साल 1947 था..और मेरी नाना की मां 90 के दशक में गुजर गईं. करीब 45 साल तक उनकी निगाहें अपने भाई का इंतजार करती रहीं ...कभी तो वो लौटेगा..
लेकिन हमें वो कभी मिले नहीं....क्या उन्होंने पाकिस्तान में नई जिंदगी बसा ली? क्या उन्होंने अगली ट्रेन ली? क्या उस वक्त जो हिंसा भड़की उसमें वो मारे गए? क्या वो भी हिंसा में शामिल हो गए? ..इन सवालों का जवाब कोई नहीं जानता.
और हम जो जानते हैं वो है एक अंतहीन इंतजार की कहानी ..कभी जिसकी भरपाई ना की जा सके वो दर्द और कमी.. और ये भी मुझे विरासत में मिला है.
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