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जैसे ही रविवार (31 मार्च) का सूरज उगा है, भारत की राजधानी दिल्ली में विपक्षी दलों के लिए आशा की एक किरण दिखती है. इस शहर का रामलीला मैदान, एक ऐतिहासिक स्थल, एक भव्य रैली की मेजबानी करने के लिए तैयार था . इस रैली का नाम था 'लोकतंत्र बचाओ रैली'. यह रैली कथित शराब घोटाले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की गिरफ्तारी के बाद इंडिया गुट के बैनर तले एकजुट विपक्षी दलों की ओर से आह्वान था.
विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने के लिए बेताब होकर आम आदमी पार्टी ज्यादातर विपक्षी दलों को एकजुट करने में सफल रही. कांग्रेस, शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी, शिवसेना (यूबीटी), नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, लेफ्ट पार्टियां, डीएमके, टीएमसी, झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता इस रैली में जुटे.
रैली सिर्फ एक सभा नहीं थी बल्कि यह एक राजनीतिक संदेश था. विपक्ष ये संदेश 2024 के आम चुनावों से पहले सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ एकता प्रदर्शन के जरिए दे रहा था.
इस रैली में वही जानी-पहचानी बयानबाजी की गूंज सुनाई दी. जैसे, लोकतंत्र खतरे में होने के दावे, बीजेपी द्वारा संविधान बदलने के आरोप और सीबीआई और ईडी जैसे संस्थानों के दुरुपयोग के आरोप.
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले की रैली विविधता में एकता का उल्लेखनीय प्रदर्शन करती है. अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के खिलाफ यह रैली विपक्ष द्वारा अपनी सामूहिक आवाज को बढ़ाने और सत्ता को चुनौती देने के रणनीतिक कदम को दर्शाती है.
केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद रैली का समय न केवल संयोग था, बल्कि जनता की भावनाओं को भुनाने और व्यापक समर्थन हासिल करने के लिए एक सोचा-समझा फैसला था.
इससे स्पष्ट संदेश जाता है कि विपक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के अपने प्रयासों में न केवल सतर्क है बल्कि सक्रिय भी है.
इस रैली को जो बात विशेष रूप से महत्वपूर्ण बनाती है, वह है इतने बड़े पैमाने पर आयोजन में विपक्ष द्वारा अपनाया गया व्यावहारिक दृष्टिकोण. यह मतभेदों को अलग रखने, बीजेपी और उसके महत्वाकांक्षी चुनावी लक्ष्यों का मुकाबला करने के बड़े लक्ष्य को प्राथमिकता देने की विपक्ष की मंशा की ओर इशारा करता है.
पश्चिम बंगाल में अकेले चुनाव लड़ने के बावजूद रैली में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस की भागीदारी भी समान रूप से ध्यान देने योग्य है. रैली में उनकी उपस्थिति एक शानदार संदेश भेजती है कि वे बीजेपी के आधिपत्य के खिलाफ इस लड़ाई में कट्टर सहयोगी हैं.
इस रैली के माध्यम से बुनी गई रणनीतिक पटकथा भारतीय राजनीति की परिपक्वता के बारे में भी बहुत कुछ कहती है. वैचारिक मतभेदों और राज्य-स्तरीय प्रतिद्वंद्विता के बावजूद विपक्ष लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों की रक्षा करने और सत्तारूढ़ दल के प्रभुत्व का मुकाबला करने के लिए एक संयुक्त मोर्चे के तौर पर तैयार खड़े दिखते हैं.
रैली न केवल राजनीतिक ताकतों की एकजुटता का प्रतीक है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास और विविधता में एकता की भावना को बनाए रखने की प्रतिबद्धता भी है. यह 2024 के चुनावों के लिए एक मंच तैयार करता है, जहां लड़ाई की रेखाएं न केवल पार्टियों के बीच बल्कि भारत के भविष्य के लिए प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोणों के बीच खींची जा रही हैं.
इस मेगा रैली में राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं के बीच सहानुभूति को भुनाने का प्रयास किया गया है. दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन जैसे प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के बाद ये रैली इसलिए भी खास है क्योंकि इसके जरिए सहानुभूति फैक्टर का फायदा उठाने की कोशिश की गई है.
खास तौर से आम आदमी पार्टी ने अपने राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी को भुनाने के लिए बड़ी सोच-समझ से सिम्पैथी कार्ड चला है. इस रैली में विपक्ष ने खुद को बीजेपी के "फासीवादी शासन" से पीड़ित दिखाने की कोशिश की है. इसके लिए विपक्ष ने एक साझा मंच का इस्तेमाल किया है. रैली के इस मंच से जनता के सामने ये मैसेज दिया गया कि कैसे मौजूदा सरकार में भष्ट्राचार के आरोपों के तहत अलग-अलग नेताओं की गिरफ्तारी हुई और उन्हें कानूनी चुनौतियों से दो-चार होना पड़ा.
31 मार्च की रैली में केजरीवाल और सोरेन के लिए रिजर्व खाली कुर्सियां उनकी अनुपस्थिति का एहसास कराने के लिए की गई थी. इससे एक मैसेज जाता है कि वे पीड़ित हैं और उनका उत्पीड़न हुआ है. इस तरह की नाटकीय रणनीति यह भी उजागर करते हैं कि राजनीतिक दल किस हद तक जनता की भावना को प्रभावित करने के लिए तैयार हैं.
ऐसे दृश्यों से (कुर्सी खाली छोड़ने सरीखे घटना) वोटर्स पर असर तो पड़ता है लेकिन सहानूभूति के लिए इस तरह की अपील का गंभीर रूप से मूल्यांकन करना और अंतर्निहित राजनीतिक एजेंडा को समझना जरूरी हो जाता है.
सहानुभूति समर्थन जुटाने का एक शक्तिशाली हथियार है. लेकिन इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नीतियों, शासन और जवाबदेही पर ठोस बहस की आवश्यकता को कम नहीं करना चाहिए.
रैली में शीर्ष नेताओं के चिर-परिचित भाषण से 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से देश भर में गूंजने वाली भावनाओं को झलक मिलती है. हालांकि, खतरे में लोकतंत्र की बयानबाजी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विपक्ष के हमलों के बीच एक अहम सवाल है कि क्या ये संदेश जमीन पर जनता तक पहुंच रहे हैं?
अगर प्रतीकों के जरिए (यानी रैली में केजरीवाल, सोरेन की कुर्सी खाली रखने जैसी घटनाएं) लोगों का ध्यान खींचने की बात करें तो इसमें विपक्ष दमदार दिखता है लेकिन वह भारत के लिए एक ठोस वैकल्पिक नजरिए को देश के सामने रखने में नाकामयाब दिखता है.
लोकतंत्र और ईवीएम में हेरफेर से जुड़ी चिंताओं पर ध्यान आकर्षित किया जा सकता है, लेकिन यह उन मूलभूत मुद्दों को संबोधित करने के लिए बहुत कम है जो रोजमर्रा के नागरिकों की चिंता करते हैं – स्थिरता, आर्थिक समृद्धि, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, रोजगार और बढ़ती कीमतें वगैरह.
आम लोगों के साथ बातचीत में यह साफ हो जाता है कि खतरे में पड़े लोकतंत्र के नैरेटिव या हिंदुत्व विचारधारा की आलोचनाएं जरूरी नहीं हैं. लोग जो चाहते हैं वह सिर्फ आलोचना नहीं है बल्कि वे एक ऐसा विकल्प चाहते हैं जो उनका रोजमर्रा की चुनौतियों से निजात दिलाए और बेहतर भविष्य के लिए राह तैयार करे.
विपक्ष के लिए यह जरूरी है कि वह केवल आलोचना करने के बजाय रचनात्मक प्रस्तावों पर फोकस करें. विपक्ष को आर्थिक पुनरुद्धार, शिक्षा सुधार, स्वास्थ्य, रोजगार सृजन और मुद्रास्फीति पर नियंत्रण को लेकर स्पष्ट नीतियों की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए. एक ठोस एजेंडे के बिना, विपक्षी एकता और सरकार के कामों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने से असल तौर पर सार्वजनिक समर्थन कम हो सकते हैं.
आखिरकार विपक्ष की सफलता इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि वह खामियों को गिनाती रहे. बल्कि शासन और प्रगति के लिए एक विश्वसनीय रोडमैप तैयार करने से विपक्ष को काफी फायदा पहुंच सकता है. मतदाता इस तरह के कौतूहल के बजाय ठोस वादों पर जोर देता है. ये वक्त विपक्ष के लिए आगे आने और भारत के भविष्य की एक बड़ी तस्वीर पेश करने के लिए एकदम सही है.
सरकार के खिलाफ लड़ाई में एकता की झलक दिखाते हुए इस रैली ने विपक्ष के भीतर दरार और विरोधाभासों को भी साफ तौर से उजागर किया.
विपक्षी नेता एकजुटता की बात करते हैं, लेकिन वे बुनियादी सवाल का जवाब देने में नाकामयाब रहे हैं. सवाल है कि वे पंजाब, पश्चिम बंगाल, केरल और अन्य राज्यों में एक-दूसरे के खिलाफ क्यों लड़ रहे हैं?
विपक्ष का ये बंटा हुआ रुख वोटर्स के मन में संशय पैदा करता है. ये तो जगजाहिर है कि विपक्षी दलों के बीच आपस में काफी मतभेद हैं. इस रैली में आम आदमी पार्टी अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर फोकम की हुई थी और उनकी दुर्दशा के आसपास के नैरेटिव पर एकाधिकार हासिल करने की कोशिश कर रही थी.
हालांकि, कांग्रेस जैसी अन्य पार्टियों ने रणनीतिक रूप से केजरीवाल और हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी. इससे रैली के मकसद को लेकर आम सहमति की कमी का संकेत मिलता है.
इस रैली ने विपक्षी राजनीति की बंटी हुई प्रकृति को उजागर करने के बजाय एक एकजुट और एकीकृत मोर्चा देश के सामने रखने का अवसर गंवा दिया. लोग ठोस समाधान और भविष्य के लिए एक स्पष्ट रोडमैप चाहते हैं, जो इस रैली में नदारद था.
संक्षेप में कहें तो इस रैली का मकसद एकता को देश के सामने प्रोजेक्ट करना था, लेकिन रैली में अनजाने में विपक्ष के भीतर अव्यवस्था को सामने आ गया.
विपक्षी दलों के लिए अपने आंतरिक खेमेबाजी को पाटना और एक सुसंगत एजेंडा पेश करना काफी अहम है जो उन लोगों की चिंताओं और आकांक्षाओं को संबोधित करता है जिनका वे प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं. बिना किसी एकीकृत आवाज और ठोस योजना के बिना, विपक्ष मतदाताओं की नजर में विश्वसनीयता और प्रासंगिकता खोने का जोखिम उठाता दिखता है.
यह रैली विपक्षी दलों के लिए लोगों के सामने अपना दृष्टिकोण पेश करने का एक सुनहरा मौका था. वे एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम या एक साझा लक्ष्य का ऐलान कर सकते थे. वे मोदी की गारंटी पर वारंटी की कमी के बारे में बयानबाजी का सहारा लेने के बजाय, प्रधानमंत्री मोदी के वादों के जबाव में एक संयुक्त गारंटी की पेशकश कर सकते थे.
विपक्षी दलों के पास इस रैली के जरिए देश को एक मैसेज देने का मौका था कि उनके आपसी मतभेदों के बावजूद वे एक सामान्य संचार कार्यक्रम तैयार करेंगे. वे लोगों तक पहुंच सकते थे, उन्हें अपनी एकता के बारे में भरोसा कर सकते थे. लेकिन उन्होंने गैलरी में खेलना चुना.
इलेक्टोरल बॉन्ड और समान नागरिक संहिता, राम मंदिर और अनुच्छेद 370 को निरस्त करने जैसे अन्य प्रासंगिक मामलों के मुद्दे पर विपक्ष द्वारा एक भी एकजुट बयान नहीं दिए गए हैं. रैली उनके लिए इन मुद्दों पर अपना रुख स्पष्ट करने का एक मंच हो सकती थी, लेकिन यह अवसर भी चूक गया. सवाल यह है कि क्या विपक्षी दल अपने मतभेदों से ऊपर उठकर एक संयुक्त मोर्चा पेश कर सकते हैं, या सामंजस्य की कमी ही उनकी एकमात्र ताकत बन जाएगी?
[लेखक सेंट जेवियर्स कॉलेज (स्वायत्त), कोलकाता में पत्रकारिता पढ़ाते हैं, और एक स्तंभकार हैं (उनका एक्स @sayantan_gh पर ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर जाहिर किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.]
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