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लोकसभा चुनावों (Loksabha Election 2024) से कुछ महीने पहले, भारत का राजनीतिक विपक्ष, इंडिया ब्लॉक - पस्त, घायल और बिखरने के लिए तैयार दिखाई दे रहा था और इसके पास बीजेपी का मुकाबला करने के लिए एक स्पष्ट, एकजुट राष्ट्रीय स्तर की रणनीति का अभाव था.
INDIA ब्लॉक मतदाताओं के विभिन्न कमजोर वर्गों को लुभाने के लिए एक के बाद एक मिला जुला घोषणापत्र जारी किए जा रही थी, जबकि नरेन्द्र मोदी का मुकाबला करने के लिए उनके पास किसी राष्ट्रीय राजनेता का चेहरा ना दिख रहा था, ना ही उसकी आवाज सुनाई दे रही थी. विपक्ष के इसी कमजोर पहलू ने चुनाव को पूरी तरह से 'ब्रांड मोदी' बना दिया था.
लेकिन, जैसा कि जनादेश से पता चला, INDIA ब्लॉक यानी कांग्रेस पार्टी और उसके सहयोगियों ने तमाम बाधाओं के बावजूद 234 सीटों पर प्रभावशाली जीत हासिल की.
महाराष्ट्र में शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने 10 सीटों पर चुनाव लड़कर आठ पर जीत हासिल की (बीजेपी के मुकाबले 80 प्रतिशत का स्ट्राइक रेट), जबकि द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने सभी 22 सीटें जीत लीं. बीजेपी के खिलाफ 100 प्रतिशत स्ट्राइक रेट. हालांकि, वोट शेयर के मामले में बीजेपी ने दक्षिण में अच्छा प्रदर्शन किया.
यह स्ट्राइक रेट क्षेत्रीय स्तर पर बीजेपी के लिए जनता के गुस्से या उनके नाराजगी को दर्शाता है, इन क्षेत्रों के वोटर्स ने पिछले दशक में मोदी और अमित शाह की राजनीतिक जोड़ी को बहुत समर्थन दिया तो फिर, इन जगहों पर अचानक ऐसा परिणाम क्यों आ गया. कई विश्लेष्कों ने इसके विश्लेषण में हजारों कोरे कागजों को अपने विचार रूपी स्याही से भर दिया.
अब शायद यह समझने और इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि इंडिया गुट और विपक्ष को इस अवसर का लाभ कैसे उठाना चाहिए और भारत के लोकतांत्रिक भविष्य में संतुलन और विश्वास को बहाल करने के लिए इसका अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहिए.
विपक्ष अगर इस दिशा में काम करती है तो इसका मतलब होगा कि वह लोकतांत्रिक विरोध और जनता के नेतृत्व वाले आंदोलनों की चिंगारी को हवा देगी. पार्टी अगर इस इंतजार में अपना समय गंवाती है कि उचित समय आने पर उचित कदम उठाया जाएगा (जैसा की कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा था) तो वह बीजेपी को उसकी खोई जमीन फिर से हासिल करने का मौका दे रही है.
इसका मतलब यह हो सकता है कि अधिक लोकतांत्रिक विरोध और जनता के नेतृत्व वाले आंदोलन जल्दी ही, जो कि ठीक है, लेकिन स्पष्ट रणनीति के बिना "उचित समय पर उचित कदम" उठाने की आशा में (जैसा कि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है) बहुत लंबे समय तक प्रतीक्षा करने से भाजपा को खोई जमीन हासिल करने का मौका मिल जाएगा.
देश में होने वाले आगामी तीन विधानसभा बेहद महत्वपूर्ण हैं. महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा, यहां भाजपा पिछड़ रही है, क्षेत्रीय दलों (विपक्ष में) के लिए अच्छा प्रदर्शन करने और स्थानीय मुद्दों पर मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट चुनौती पेश करने का एक बेहतर मौका है जो उनके मुनाफे में भी तब्दील हो सकता है.
मंहगाई, बेरोजगारी,उच्च स्तरों पर असमानता, कम आर्थिक अवसर, और बढ़ते मोबिलिटी सेंटर्ड वीजन की कमी. ये सभी वह मुद्दे हैं जिन्होंने युवाओं, कम सुविधा प्राप्त लोगों, हाशिए पर पड़े लोगों और सामाजिक रूप से अनिश्चित वर्गों को निराश किया है. लेकिन विपक्ष ने इस गुस्से से लाभ उठाते हुए, बीजेपी के खिलाफ मजबूत वैचारिक मात देने के लिए कुछ खास नहीं किया है.
कांग्रेस के घोषणापत्र में चुनावी वादों के अनुसार अच्छे विचार पेश किए गए (जैसे अप्रेंटिसशिप का अधिकार) लेकिन चुनावी माहौल के नजरिए से इन वादों की बेहतर प्रस्तुति और जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत दिखाई दे रही थी. अब फिर से मौका है कि इन विचारों को अन्य क्षेत्रीय दलों के समर्थन और प्रभाव के साथ और संसद के जरिए से अधिक लोगों तक पहुंचाया जाए. यह करना बीजेपी पर अपने शासन मॉडल में कांग्रेस के कुछ विचारों को अपनाने के लिए दबाव डाल सकता है. एक लोकतांत्रिक गणराज्य में ऐसा होना लोगों के लिए यह एक जीत का मौका होगा.
INDIA गुट विपक्ष के सामने दूसरा सवाल यह है कि क्या इनमें से कुछ गठबंधन सहयोगी समय की कसौटी पर खरे उतरेंगे? क्योंकि हम कई राज्यों में विधानसभा चुनावों के करीब हैं. AAP ने 2025 के दिल्ली चुनावों में कांग्रेस पार्टी के साथ किसी भी चुनाव-पूर्व गठबंधन से इनकार किया है. ममता बनर्जी की TMC का बंगाल में कांग्रेस पार्टी के साथ न जुड़ने जैसा ही माहौल है.
यूपी में, कांग्रेस पार्टी ने 2024 में एसपी के साथ मिलकर काम किया और अपनी सीटों पर जीत में अच्छा प्रदर्शन किया (2019 के निराशाजनक प्रदर्शन की तुलना में). दोनों दलों को गठबंधन से लाभ हुआ, हालांकि, यह यूपी में विधानसभा चुनावों तक जारी रहेगा या नहीं, इसका अनुमान अभी लगाना जल्दबाजी होगी. इसके अलावा, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में फैले क्षेत्रीय गठबंधनों के मामले में अनिश्चितता बनी हुई है.
परिणामस्वरूप, चुनावी दृष्टि से निचले सदन में मजबूत और बेहतर संख्या वाली विपक्षी बेंच के पास मोदी-शाह के बुलडोजर राज से निपटने और भारतीय संविधान के पवित्र मूल सिद्धांतों की रक्षा करने के लिए अपने फायदे हैं, लेकिन इस प्रतीकात्मक 'जीत' को आगे ले जाने के लिए, एक अनिश्चत काल आगे उनकी राह देख रहा है.
( दीपांशु मोहन अर्थशास्त्र के प्रोफेसर, डीन, IDEAS, ऑफिस ऑफ इंटर-डिसिप्लिनरी स्टडीज और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (CNES), ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के निदेशक हैं. वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में विजिटिंग प्रोफेसर हैं और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एशियाई और मध्य पूर्वी अध्ययन संकाय के 2024 के फॉल एकेडमिक विजिटर हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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