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लद्दाख में लंबा संघर्ष तय दिख रहा,समझिए चीन क्यों नहीं हट रहा पीछे

ये बात अपने दिमाग से निकाल देनी चाहिए कि जिनपिंग ने घरेलू मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए इस घुसपैठ को अंजाम दिया

कुलदीप सिंह
नजरिया
Published:
भारी हथियारों के साथ PLA के 40 हजार सैनिक सरहद पर पिछले इलाके में मौजूद है
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भारी हथियारों के साथ PLA के 40 हजार सैनिक सरहद पर पिछले इलाके में मौजूद है
(फोटो: Quint) 

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मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक भारत और चीन के बीच 14 जुलाई, 2020 को हुई कोर कमांडर स्तर की चौथी बातचीत के बाद लद्दाख में सेना को पीछे हटाने की प्रक्रिया रुक गई है. इसके अलावा, LAC के पीछे के इलाकों में भी दोनों तरफ सुरक्षा बलों की तैनाती कम नहीं हुई है.

हालांकि दो विवादित जगहों पर टकराव घटने की खबर है. रिपोर्ट के मुताबिक PP-14 (गलवान में जहां 15 जून को झड़प हुई थी; अब बफर जोन) और PP-15 (गलवान के दक्षिण) पर मौजूद पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और भारत की सेना पीछे हट गई हैं. लेकिन PP-17A (हॉट स्प्रिंग्स) पर दोनों देशों के करीब 50-50 सैनिक एक दूसरे के आमने-सामने मौजूद हैं.

पैंगॉन्ग त्सो में, PLA फिंगर-5 से पीछे हट गया है, लेकिन अभी सिरिजाप में अपने स्थायी जगह पर नहीं लौटा है; इसके अलावा फिंगर-4 की रिज पर इसने अब भी कब्जा जमाया हुआ है. गौर करने की बात ये है कि डेप्सांग में PP-10 से लेकर PP-13 तक (राकी नाला/Y-जंक्शन का इलाका) भारतीय सेना की पेट्रोलिंग को PLA ने बाधित कर दिया है, जिससे करीब 700 वर्ग किमी का इलाका भारत की पहुंच से दूर हो गया है (पहले यहां दोनों तरफ से पेट्रोलिंग होती थी).

जहां तक तनाव घटाने की बात है, भारी हथियारों के साथ PLA के 40 हजार सैनिक सरहद पर पिछले इलाके में मौजूद है, और जिस तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर और फॉरवर्ड लॉजिस्टिक बेस तैयार किए गए हैं, लगता है वो लंबे समय तक यहां टिकने वाले हैं. इससे सवाल ये उठने लगा है कि – टकराव और तनाव घटाने की ये प्रक्रिया रुक क्यों गई है?

चीन के घुसपैठ से दो संदेश

सबसे पहले तो हमें ये बात अपने दिमाग से निकाल देनी चाहिए कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने घरेलू मुद्दों से लोगों को ध्यान भटकाने के लिए इस घुसपैठ को अंजाम दिया. सच्चाई इससे बिलकुल अलग है – शी जिनपिंग ना तो किसी लोकतंत्र की तरह लोगों द्वारा चुने गए नेता हैं और ना ही किसी चुनाव का सामना कर रहे हैं, ना ही उन्हें कोई अंदरूनी खतरा है. 2012 में सत्ता पर काबिज होने के बाद, राष्ट्रपति और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमैन दोनों पदों पर शी जिनपिंग ने अपना नियंत्रण मजबूत कर लिया है, और अहम सियासी और सैन्य पदों पर अपने भरोसेमंद लोगों को बिठा चुके हैं.

2017 में, CCP ने शी के दबदबे पर दोबारा मुहर लगा दी और 2018 के मार्च में, पार्टी कांग्रेस ने चीन के कानून में बदलाव कर राष्ट्रपति की कार्यावधि की सीमा को हटा दिया, जिससे शी के 2022 के आगे भी सत्ता में बने रहने का रास्ता साफ हो गया है. शी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रामक मुहिम छेड़ दी; विरोधियों का कुंद कर दिया; मीडिया पर और शिकंजा कस दिया; धार्मिक गुटों पर पाबंदियां लगाई; और चीनी समाज और अर्थव्यवस्था में CPC की पैठ और बढ़ा दी. इसलिए जानकार उन्हें ‘माओ जेडोंग के बाद सबसे ताकतवर चीनी नेता’ बताते हैं.

इसलिए इस घुसपैठ की वजह गहरी और भू-राजनीतिक है. जिससे चीन भारत को दो संदेश देना चाहता है, पहला जमीन को लेकर और दूसरा कूटनीति पर.

जमीन से जुड़ा संदेश ये कि अगर भारत लद्दाख की यथास्थिति बदल सकता है, तो चीन भी ऐसा कर सकता है. यहां गौर करने की बात ये है कि घुसपैठ सिर्फ लद्दाख में हुई, इतनी लंबी भारत-चीन सीमा पर किसी दूसरी जगह ऐसा नहीं हुआ.

कूटनीतिक संदेश ये कि अंतरराष्ट्रीय मोर्चे में भारत के कद में बढ़ोतरी और रणनीतिक विस्तार के बाद भी चीन इसे अपना प्रतिद्वंदी नहीं मानता.

भारत के साथ गैर-चिन्हित सीमा होने की वजह से चीन को ऐसे संदेश भेजने का प्लेटफॉर्म भी मिल जाता है – जिसका फायदा कर घुसपैठ के जरिए वो भारतीय नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश करता है. इस प्रक्रिया में चीन ने एक पैटर्न तैयार कर लिया है – जैसे ही भारत कोई ऐसा कदम उठाता है जो चीन को पसंद नहीं; PLA घुसपैठ को अंजाम दे देता है; भारत और चीन फिर बात करते हैं; हम चीन को निजी तौर पर शांत करने की कोशिश करते हैं; सार्वजनिक तौर इसे जीत बताते हैं, और वो पीछे हट जाते हैं.

इस बार की घुसपैठ, हालांकि, पिछली घटनाओं से अलग है – इसे सबसे ऊपरी स्तर से हरी झंडी मिली थी, जिसके बाद बाकायदा योजना बनाकर पूरे आक्रामक तरीके से इसे सामरिक स्तर पर अंजाम दिया गया. 15 जून की हिंसा अप्रत्याशित थी (मार्शल आर्ट्स के एक्सपर्ट्स बुलाए गए थे; कील और नोंकदार भालों का इस्तेमाल किया गया) और चीन ने इसे एक रौंद देने वाले संदेश के तौर पर पेश किया.

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जम्मू-कश्मीर में चीन की दिलचस्पी

जरूरत है कि इस टकराव की क्रॉनोलॉजी को ठीक से समझा जाए – और ये कहानी शुरू होती है पुलवामा हमले से.

  • 14 फरवरी 2019 को जैश-ए-मोहम्मद के एक आत्मघाती हमलावर ने IED से लैस एक गाड़ी के जरिए CRPF के 40 जवानों की जान ले ली. क्योंकि ये हमला भारत में आम चुनाव से कुछ ही महीने पहले हुआ, चुनी हुई सरकार के पास विकल्पों की कमी थी – और जैसा कि आम तौर पर लोग समझते हैं कि भारत ने इस बार ‘कूटनीतिक संयम’ को तोड़ दिया, ऐसा लगता है कि असल में भारत इस बार एक जाल में फंस गया. कायरतापूर्ण हमले को नजरअंदाज ना करते हुए, भारत ने बालाकोट (26 फरवरी) पर हवाई हमला कर दिया और पाकिस्तानी एयर फोर्स ने एक दिन बाद पलटवार किया. इस संकट ने दुनिया के दो परमाणु शक्तियों के बीच जंग की आशंका को मजबूत कर दिया. 28 फरवरी 2019 को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच इस टकराव को अमेरिका जल्द ही सुलझा लेगा. बाद में 22 जुलाई 2019 को व्हाइट हाउस में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ बैठक कर उन्होंने कश्मीर के मसले पर मध्यस्थता का ऑफर दे दिया. साफ तौर पर, राष्ट्रपति ट्रंप एक बार फिर इस मामले में दखलअंदाजी कर रहे थे, जिसे भारत हमेशा से द्वि-पक्षीय मसला बताता है.
  • 26 जुलाई 2019 को बीजिंग ने भारत और पाकिस्तान से बातचीत के जरिए कश्मीर का मसला सुलझा लेने के लिए कहा, और दोनों देशों के बीच रिश्ते बेहतर करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय, जिसमें अमेरिका भी शामिल था, की ‘रचनात्मक भूमिका’ को पूरा समर्थन दिया.
  • 5 अगस्त 2019 को भारत ने आर्टिकल 370 हटाकर जम्मू-कश्मीर को दो केन्द्र शासित प्रदेशों में तब्दील कर दिया. यूएस कांग्रेस रिसर्च सर्विस की रिपोर्ट ‘कश्मीर: पृष्ठभूमि, ताजा बदलाव, और अमेरिकी नीति’, 16 अगस्त 2019, में लिखा है कि राष्ट्रपति ट्रंप के बार-बार मध्यस्थता की बात करने के बाद भारत ने आर्टिकल 370 को हटा दिया, साथ ही ये भी लिखा था कि ट्रंप का पाकिस्तानी नेता का गर्मजोशी से स्वागत करना, अफगानिस्तान से अमेरिका के निकलने में पाकिस्तान से मदद की इच्छा रखना, और पाकिस्तान को IMF की मदद को अमेरिकी समर्थन ने परेशान भारतीय नीतिकारों को खासा प्रभावित किया. आपको याद होगा कि 1999 के करगिल युद्ध के पीछे पाकिस्तान का भू-राजनीतिक मकसद सिर्फ इतना था कि ‘कश्मीर के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण’ कर दिया जाए. और अमेरिकी दखल और मध्यस्थता से साफ था कि वो इसमें कामयाब हुआ.
  • जम्मू-कश्मीर में चीन की रुचि है – वो शक्सगाम घाटी पर अपना अवैध कब्जा बनाए रखना चाहता है (जो कि 1963 में पाकिस्तान ने उसे सौंप दिया था), और पीओके के उत्तरी इलाके से काराकोरम हाईवे और चीन-पाकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर गुजरता है. इसलिए चीन ने भारत से आह्वान किया कि वो ‘एकतरफा तरीके से यथास्थिति को बदलना बंद करे’, उसने चीन के जमीनी संप्रभुता को कमतर आंकने का आरोप लगाया और ‘पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर न्याय दिलाने’ की कसम खाई. 16 अगस्त 2019 को चीन ने इस मसले पर बातचीत के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ‘Closed-door’ अनौपचारिक बैठक बुलाई
  • पाकिस्तान ने 2019 के नवंबर तक कश्मीर पर अपना हंगामा जारी रखा, जिसके बाद, आश्चर्यजनक तौर पर, वो चुप हो गया, माना जा रहा है ऐसा चीन के साथ बातचीत के बाद हुआ.
  • जनवरी 2020 में, राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी सेना को वास्तविक युद्ध के हालात की ट्रेनिंग देने और ‘उच्च स्तर की तैयारी रखने के लिए’ एक ट्रेनिंग मोबिलाइजेशन ऑर्डर (TMO) पर हस्ताक्षर किया, और PLA ने इसके बाद भारत की सीमा से सटे तिब्बत के पठारी इलाके में सालाना सैन्य अभ्यास शुरू कर दिया. 5 मई को PLA, बेहद हैरानगी भरे अंदाज में, लद्दाख के उत्तरी इलाके में 5 जगहों पर सीमा पार कर अंदर घुस आया.
अब चीन के कब्जे वाले इलाकों को खाली कराने के लिए या तो भारत को बातचीत में चीन की ‘चिंताओं’ को दूर करना होगा या सैन्य कार्रवाई करनी होगी.

बातचीत में चीन हर हाल में अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते सहयोग पर अपनी ‘चिंता’ जाहिर करेगा, QUAD के सक्रिय होने और चीनी कारोबार पर भारत की कार्रवाई पर सवाल उठाएगा.

जहां तक सैन्य कार्रवाई के विकल्प की बात है, सफल नतीजे के लिए भारत को अभी वहां जितनी सेना मौजूद है उससे कहीं ज्यादा तैनाती करनी होगी. रक्षा, खासकर पहाड़ों में, कहीं ज्यादा खतरनाक युद्धकला होती है, जबकि PLA ने वहां अपने पैर जमा लिए हैं और पूरे समन्यवय के साथ सुरक्षा मुस्तैदी कर ली है. जहां भारत ने लद्दाख में तेजी से अपनी सैन्य परिसंपत्तियों को तैनात कर अपना इरादा दिखा दिया है, कमजोर इंफ्रास्ट्रक्चर और पाकिस्तानी खतरे ने भारतीय सेना के लिए LAC पर ध्यान केन्द्रित करना मुश्किल कर दिया है.

इसके अलावा, सियाचिन के पूर्व में सेना की बड़ी मुस्तैदी, जहां कि रहने के हालात नहीं होते, आर्थिक बोझ साबित हो सकती है जिससे कि सेना की संख्या घटाने और सैलरी बिल कम (जो कि सालाना राजस्व बजट का 70% होता है) करने की योजना को झटका लग सकता है. नतीजतन, अर्थव्यवस्था की हालत देखते हुए, भारतीय फौज के आधुनिकरण का लंबे समय से टाला जा रहा प्लान भी बाधित हो सकता है.

इसलिए चीनी भारत के सामने तीन विकल्प छोड़ते दिख रहे हैं, (i) अब तक अपनाई गई सामने-से-दोस्ती-वाली मुद्रा में लौटें (ii) लंबे समय तक फौज की तैनाती रखकर आर्थिक कष्ट झेलें; या, (iii) सेना की तैनाती कम करने का विकल्प आजमा लें. कुल मिलाकर: यह गतिरोध बने रहने की संभावना है और ‘भारतीय सशस्त्र बल एक लंबे संघर्ष के लिए तैयार हैं’ जैसे बयान से यही लगता है कि सत्ताधारी समझ रहे हैं कि क्या हो रहा है.

(कुलदीप सिंह भारतीय सेना के रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं. ये एक ओपिनियन लेख है और ये लेखक के विचार हैं. क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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