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भारत और चीन की सोच उल्टी क्यों? इधर शांति और उधर खूनी सदियां

चीन विस्तारवादी क्यों है? और भारत के अपेक्षाकृत शांतिप्रिय होने की क्या वजह है?

राघव बहल
नजरिया
Updated:
क्विंट के एडिटर-इन-चीफ राघव बहल का भारत चीन के इतिहास पर नजरिया
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क्विंट के एडिटर-इन-चीफ राघव बहल का भारत चीन के इतिहास पर नजरिया
(Photo: Altered by Quint Hindi)

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चीन विस्तारवादी क्यों है? और भारत के अपेक्षाकृत शांतिप्रिय होने की क्या वजह है? इसका जवाब उन मुख्तलिफ उपनिवेशीय यातनाओं में है जो दोनों देशों ने झेलीं. लेख के पहले हिस्से में हमने बात की उपनिवेशीय इतिहास की शुरुआत से मध्य-उन्नीसवीं शताब्दी की. दूसरे हिस्से में हम भारत और चीन की आजादी तक उपनिवेशीय इतिहास के आखिरी 100 सालों की बात करेंगे.

1833 में ब्रिटिश संसद के सामने एक युवा वकील, थॉमस बबिंगटन मैकॉले, बोलने के लिए खड़े हुए. संसद में एक जोरदार अपील करते हुए उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासकों की जिम्मेदारी ‘उन लोगों को अच्छी सरकार देना है, जिन्हें हम स्वतंत्र सरकार नहीं दे सकते’. उस साल बाद में वो भारत के लिए निकले, जहां उनके पास दो बड़ी जिम्मेदारियां थी:

  • कानून को संहिताबद्ध करना और
  • शिक्षा पद्धति में सुधार लाना.
ब्रिटिश इतिहासकार औ राजनेता मैकॉले की तस्वीर(Photo: Wikimedia Commons)
मैकॉले अगर चीन का रुख करते तो इतिहास आज कुछ और होता, लेकिन वहां ब्रिटिश सिर्फ नफे की चिंता करते थे, उनमें जंग से बेहाल चुके देश को ‘सभ्य’ बनाने की कोई भावना नहीं थी.

मैकॉले ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए नया चार्टर बनाया जिसने भारत के कानूनी ढांचे को पूरी तरह बदल दिया. क्षेत्रीय विधानसभाओं की जगह एक अखिल भारतीय विधान परिषद बनाया गया. बंगाल, बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी में मौजूद प्रांतीय सरकारों से कानून बनाने की शक्तियां छीन ली गई. सबके लिए एक समान कानून और कोर्ट बनाए गए.

अपनी दूसरी जिम्मेदारी निभाते हुए, मैकॉले ने प्रसिद्ध शिक्षा विवरण पत्र (1835) के जरिए अंग्रेजी को शाही आलमारी से बाहर निकाला; और अपनी शक्तिशाली कलम से एक स्ट्रोक में उन्होंने अंग्रेजी को भारत की आधिकारिक भाषा और सभी शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षा का माध्यम बना दिया. उनका उद्देश्य था ‘हमारे और उन लाखों लोगों के बीच दुभाषियों का निर्माण करना जिन पर हम शासन करते हैं - व्यक्तियों का एक वर्ग जो रंग और रक्त से भारतीय हैं, लेकिन स्वाद, विचार, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज हैं’.

1882 तक 60 फीसदी से ज्यादा प्राथमिक स्कूलों महारानी की भाषा सिखाई जा रही थी

तब अंग्रेजी को 'बाघिन का दूध' कहा जाता था, जिसे मूल निवासियों के लिए नई ऊर्जा और अवसर पैदा करने वाला बताया जाता था. पाठकों की तादाद तेजी से बढ़ी तो उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए द इंग्लिशमैन, द फ्रेंड ऑफ इंडिया, द एशियाटिक मिरर, द कैलकता ऐडवर्टाइजर, द बंगाल गजट और द मद्रास कूरियर जैसे कई प्रकाशन वजूद में आए. 1947 में आजादी के समय भारत में 60 लाख से ज्यादा लोग अंग्रेजी जानते थे.

डाइनिंग टेबल और जिमखाना के ‘बड़े साहब’

लेकिन 1857 में आजादी की पहली लड़ाई (जिसे ब्रिटिश इतिहासकार 'सिपाही', या सैनिक विद्रोह कहते हैं) इतिहास का वो खूनी जख्म था जिसने ब्रिटिश राज के चरित्र को बदल दिया. 2 अगस्त 1858 को, ब्रिटिश संसद ने रानी विक्टोरिया को भारत की शाही शासक घोषित कर दिया; ‘वैचारिक तौर पर, ब्रिटिश जिन्होंने “आउटसाइडर” के रूप में यहां शासन शुरू किया “इनसाइडर” बन गए थे. अब उन्होंने उसे मजबूत किया जिसे ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का स्टील फ्रेम कहा जाता था: भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस), पुलिस और सेना.

भारत में 1857 के सैनिक विद्रोह का नजारा (बंगाल आर्मी)(Photo: Wikimedia Commons)

इससे पहले, भारत पर शासन करने वाले प्रशासनिक अधिकारियों में लगभग सभी पचास से साठ ब्रिटिश परिवारों से ही आते थे. उदाहरण के लिए, जॉन कॉटन के परिवार में छह पीढ़ियों से पुरुष आईसीएस में शामिल हो रहे थे. लेकिन जल्द ही नियम बदलते हुए लंदन में एक प्रतियोगी प्रवेश परीक्षा शुरू की गई. सत्येन्द्रनाथ टैगोर (नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर के बड़े भाई) 1863 में यह परीक्षा पास करने वाले पहले भारतीय बने.

1871 तक तीन और भारतीय ICS में शामिल हो चुके थे, लेकिन उन सभी को परीक्षा देने के लिए लंदन जाना पड़ा था. लगभग आधी सदी के संघर्ष के बाद, फरवरी 1922 में ब्रिटिश सरकार ने इलाहाबाद में एक अलग स्थानीय भर्ती परीक्षा शुरू की. 1941 तक यूरोपीय अधिकारियों की तुलना में भारतीय ICS अधिकारियों की तादाद ज्यादा हो गई. ब्रिटिश भारतीय सेना, जिसमें पंजाब, नेपाल और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांतों से भर्ती होने वाले लोगों का वर्चस्व था, अपने मूल देश की कई परंपराओं का क्लोन बन गई थी. क्लब और जिमखाना ने अंग्रेजी बोलने वाले उच्च-वर्गीय भारतीयों के बीच ब्रिटिश सामाजिक तहजीब का एक वातावरण पैदा कर दिया था.

मद्रास जिमखाने की आर्काइवल तस्वीर, इसकी स्थापना 1884 में हुई थी(Photo: Facebook / Venkataraman Prabhakar / Madras Local History Group)

मिड्ल-क्लास घरों में खाने की मेज ने फर्श की जगह ले ली; लोग प्लेट में खाना निकालने के लिए हाथों के बजाय चम्मच, चाकू और कांटे का इस्तेमाल करने लगे. खाने-पीने के यूरोपीय रिवाजों पर स्थानीय रंग चढ़ गया, पोर्क चॉप अभी भी ग्रिल तो होते थे, लेकिन मिर्च और मसालों में मैरीनेट किए जाने लगे. सूप और सलाद भारतीय मेनू के हिस्सा बन गए – उदाहरण के लिए मुलिगाटॉनी सूप तमिल शब्दों से बना है, 'मलगु तुन्नी' का अर्थ है 'काली मिर्च का पानी', या इसे 'रसम’ का पश्चिमी रूप समझ लीजिए. कटलेट, केक, सॉसेज, क्रोकेट, पुडिंग, जैम और बिस्किट बिलकुल करी और चावल जैसे भारतीय बन गए. फुटबॉल, टेनिस और क्रिकेट स्थानीय लोगों के चहेता खेल बन गए.

लेकिन चीन में यह क्रांति का वक्त था

हिमालय के पार, 1869 में स्वेज नहर के खुलने से अमेरिका के जहाज आसानी से छोटे रास्ते से सैन्य सामग्री लेकर जापान पहुंचने लगे, जिससे जापान की ताकत बढ़ी और उसने 1895 की जंग में चीन को पछाड़ दिया. चीन-जापानी संधि अब कारोबार से आगे बढ़ गई, और विदेशी लोगों के लिए चीन में उद्योग धंधा स्थापित करना आसान हो गया. दो साल के भीतर, चीन के कई प्रांतों में 30 कपास और रेशम की मिलें शुरू हो गईं. उपनिवेशीय शक्तियां बेझिझक होकर ‘चीनी तरबूज’ का स्वाद लेने लगीं; रूस को आर्थर बंदरगाह मिला, अंग्रेजों को हांगकांग के आसपास की नई जमीनें मिलीं, जर्मनों को शान्तुंग मिला, और अमेरिकियों ने 1899 में 'ओपन डोर पॉलिसी' के लिए पूरी ताकत लगा दी.

अंत में, किंग शासकों के लिए अपमानों का बढ़ता बोझ झेलना मुश्किल हो गया; सुन यात-सेन के नेतृत्व में 1911 की चीनी क्रांति ने राजशाही को पूरी तरह खत्म कर दिया.

डॉ सुन यात सेन की आर्काइव की हुई तस्वीर(Photo: Wikimedia Commons)
1911 की चीनी क्रांति में शांधाई-नानजिंग रोड की तस्वीर(Photo: Wikimedia Commons)
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यह शायद एक संयोग की बात थी, लेकिन भारत में महात्मा गांधी ने लगभग उसी समय ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ अपने हाथों में ले लिया था, जब 1911 में सुन यात-सेन ने चीनी क्रांति का नेतृत्व किया था. यह इतिहास में बहुत बड़े बदलाव का वक्त था: जहां च्यांग काई-शेक के राष्ट्रवादियों, माओत्से तुंग के साम्यवादियों और जापानी हमलावरों के बीच चीन भयंकर कलह में फंसा था, भारत का राजनीतिक आंदोलन इसे धीरे-धीरे वेस्टमिंस्टर-शैली के लोकतंत्र के करीब ले जा रहा था.

भारत में ‘लोकतंत्र’ का प्रयोग; चीन में गृह युद्ध

भारत में जैसे ही स्वराज के आदर्श को हवा मिली, गांधी ने कांग्रेस को एक 'समानांतर सरकार' की संरचना दे दी (सच के कल्पना से भी ज्यादा हैरतअंगेज होने की मिसाल की तरह गांधी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में एक अंग्रेज एलन ऑक्टेवियन ह्यूम ने की थी; ह्यूम को क्या पता था कि उनका संगठन भारत में ब्रिटिश शासन का अंत करने वाले आंदोलन का आगाज करेगा).

केंद्रीय कार्य समिति ने हकीकत में किसी ‘राष्ट्रीय कैबिनेट’ की तरह काम करना शुरू कर दिया, और इसके बाद भाषाई तौर पर प्रांतीय कांग्रेस समितियों का भी पुनर्गठन किया गया.

इसमें आम मतदाताओं के साथ धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए सीटों के आरक्षण की बात की गई थी. लोगों को मौलिक अधिकार दिया गया था. अंग्रेजों ने इन प्रस्तावों को नजरअंदाज कर दिया, लेकिन ये तब कांग्रेस के काम आए जब 1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत पार्टी चुनाव लड़ने को राजी हो गई. देश में व्यापक चुनावी लोकतंत्र का ये पहला अनुभव था.

चीन में वर्साय की संधि और 1919 के प्रथम विश्व युद्ध के अंत पर देश की कमजोर प्रतिक्रिया से नाराज छात्रों ने पूरे देश में आंदोलन छेड़ दिया. ‘4 मई आंदोलन’ बहुत जल्द राष्ट्रवादी आंदोलन में तब्दील हो गया. आखिरकार, 1927 में चीन की राष्ट्रवादी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच गृह युद्ध छिड़ गया. चियांग काई-शेक के कुओमिनतांग राष्ट्रवादियों के खिलाफ माओत्से तुंग ने Long March का ऐलान कर सैन्य विद्रोह छेड़ दिया.

नेशनल रेवोल्यूशन आर्मी के कमांडर-इन-चीफ चियांग काई-शेक (Photo: Wikimedia Commons)

1937 में जापानी सेना भी इस जंग में कूद गई; दूसरा चीन-जापान युद्ध 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक चला. माओ ने जापानी हमले के जवाब में भयानक गुरिल्ला वॉर छेड़ दिया. लेकिन जापानी सेना के चीनी जमीन से खदेड़े जाने के बाद भी माओ और चियांग की सेनाओं के बीच गृह युद्ध जारी रहा. आखिरकार 1949 में, च्यांग के कुओमितांग राष्ट्रवादी हार गए; च्यांग आधुनिक ताइवान भाग गए, और राजनीतिक तौर पर इसे चीन से अलग कर दिया. (बाद में, 1954 में, माओ ने ताइवान पर हमला कर उसे ‘आजाद’ करने की योजना बनाई. लेकिन सोवियत संघ ने पूरे दिल से इसका समर्थन नहीं किया और अमेरिका ने माओ की सेना के खिलाफ परमाणु हथियारों के उपयोग की धमकी दे दी; अंत में, माओ ने इस सैन्य कार्रवाई को बीच में ही छोड़ दिया.)

आखिरकार आजादी मिली !

आखिरकार, 1940 के दशक के अंत में, इतिहास में बेहद छोटे पल के लिए सही, चीन और भारत की नियति एक समान हो गई. ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947, को पारित कर दिया, और 15 अगस्त 1947 को भारत को उपनिवेशीय शासन से मुक्त करने की शाही मुहर लग गई. सिर्फ दो साल बाद, 1 अक्टूबर 1949 को, माओ ने बीजिंग में एक विशाल रैली कर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना कर दी.

ऊपरी तौर पर इतिहास का ये क्षण बहुत संक्षिप्त था. चीन एकदलीय राष्ट्र बन गया. भारत एक लोकतांत्रिक देश बन गया.

एक बार फिर, ये प्राचीन सभ्यताएं पूरी तरह अलग हो गईं. ब्रिटिश अक्सर पूरे गर्व से ये दावा करते हैं कि उनके शासन ने भारत को 'सभ्य' बनाया. दूसरी ओर चीन का उपनिवेशीय इतिहास, संस्थागत प्रभाव के अभाव में, कई क्रूर शासकों के अधीन कहीं अधिक अशांत था.

क्या सदियों के युद्ध और संघर्ष ने चीन के नेताओं (और इसकी कुछ आबादी) को प्रतिशोधी और विस्तारवादी बना दिया? और इसके विपरीत, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के ज्यादातर अहिंसक चरित्र ने यहां शांतिवाद को मजबूत बनाया? इस पर विचार करना चाहिए, आप क्या कहते हैं?

(सोर्स - 2010 में पेंग्विन एलेन लेन से छपी राघव बहल की किताब -Superpower? The Amazing Race Between China’s Hare and India’s Tortoise)

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Published: 17 Jul 2020,09:09 PM IST

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