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चीन के खिलाफ आज भी काम आ रहा बीजू पटनायक और नेहरू का ‘SFF प्लान’  

शायद ही कोई इस बात को माने लेकिन मोदी में नेहरू जैसा बहुत कुछ है. मिसाल के तौर पर एसएफएफ  

निष्ठा गौतम
नजरिया
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शायद ही कोई इस बात को माने लेकिन मोदी में नेहरू जैसा बहुत कुछ है. मिसाल के तौर पर एसएफएफ  
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शायद ही कोई इस बात को माने लेकिन मोदी में नेहरू जैसा बहुत कुछ है. मिसाल के तौर पर एसएफएफ  
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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सवाल- प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के खिलाफ स्पेशल फ्रंटियर फोर्स को तैनात किया?

जवाब- उसी वजह से जिसके कारण प्रधानमंत्री नेहरू ने 1962 में इस ‘सीक्रेट’ फोर्स को बनाया था.

आप भरोसा करें या न करें, मोदी और नेहरू में बहुत कुछ एक जैसा है. यह बात और है कि भाजपा और कांग्रेस में कोई इस बात को नहीं मानेगा. चलिए, एसएफएफ की ही मिसाल लेते हैं.

नवंबर 1962 में नेहरू ने स्पेशल फ्रंटियर फोर्स बनाई थी जोकि तिब्बत को लेकर चीन की चिंता का फायदा उठाने की एक कोशिश थी. दूसरे विश्वयुद्ध के पुराने योद्धा बीजू पटनायक और इंटेलिजेंस ब्यूरो के तब के चीफ भोला नाथ मल्लिक ने इस सिलसिले में नेहरू को सलाह दी और नेहरू ने इस फोर्स में तिब्बती शरणार्थियों की भर्ती को हरी झंडी दे दी. मल्लिक के पास तिब्बती आंदोलन के नेताओं का समर्थन था.

बीजू पटनायक(फोटो: Wikimedia Commons) 

सीक्रेसी- इस्टैबलिशमेंट 22 पर कैच 22 की स्थिति

एसएफएफ को अनौपचारिक रूप से इस्टैबिशमेंट 22 कहा जाता था. दूसरे विश्वयुद्ध में मेजर जनरल सुजान सिंह उबान ने 22 माउंटेन रेजिमेंट की कमान संभाली थी. वही एसएफएफ के भारतीय कमांडर थे. शुरुआत में इसमें कोई हाई रैंकिंग अधिकारी नहीं थे, बल्कि तिब्बत के वे नेशनलिस्ट शामिल थे जो तिब्बत की स्वायत्तता के लिए चीन से भिड़ना चाहते थे.

दलाई लामा के साथ मेजर जनरल जनरल सुजान सिंह उबान (फोटो: Odisha government archives)
आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि नेहरू चीन के मंसूबों को भांप नहीं पाए थे, लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेज साबित करते हैं कि किस तरह एसएफएफ का गठन भारत की चीन नीति का अहम हिस्सा था. उस दौर में भारत खुद उस नीति को आकार दे रहा था.

स्कॉलर राजू जीसी थॉमस ने अपनी किताब इंडियन सिक्योरिटी पॉलिसी में 1950 की संसदीय कार्यवाहियों का जिक्र किया है. वह लिखते हैं, ‘उन दिनों संसद में विदेशी नीति के संबंध में सिर्फ इसी बात पर बहस होती थी कि तिब्बत पर चीन और भारत ने संधि पर हस्ताक्षर किए हैं और पाकिस्तान ने पश्चिमी सीटो (दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन) और सेंटो (केंद्रीय संधि संगठन) की रक्षा संधियों का हिस्सा बनने का फैसला किया है.’

अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता माओ जदोंग के साथ (फोटो: US National Archives and Records Administration)

1963 से भारत ने संयुक्त राष्ट्र में स्वायत्तता के मुद्दे पर तिब्बत का समर्थन करना शुरू किया. इस मुद्दे पर अमेरिका ने भारत का साथ दिया था जो दरअसल चीन से अपना हिसाब बराबर करना चाहता था. जैसा कि स्कॉलर कैरोल मैकग्रानहन ने अपनी किताब एरेस्टेड हिस्टरीज़: तिब्बत, द सीआईए एंड मेमोरीज़ ऑफ अ फॉरगॉटन वॉर में कहा है, ‘तिब्बत पर अमेरिका की नीति शीद्ध युद्ध की राजनीति, ताइवान (द रिपब्लिक ऑफ चाइना) और चीन (द पीआरसी) के साथ खास और आंतरिक रूप से विवादित संबंधों तथा तिब्बत पर पूर्व ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीतियों से प्रेरित थी.’

1962 की शिकस्त के बाद भारत को चीन का मुकाबला करने के लिए अमेरिका की जरूरत थी क्योंकि सोवियत संघ अपने सैद्धांतिक मित्र और पड़ोसी चीन के खिलाफ जाने वाला नहीं था. ऐसे में एसएफएफ के सिपाहियों को प्रशिक्षित करने के लिए सीआईए की मदद ली गई. हालांकि इस बारे में कोई लिखित समझौता नहीं हुआ था. अमेरिका के लिए यह मुफीद था क्योंकि इस भागीदारी से तिब्बत में उसका अपना मनोरथ पूरा होने वाला था.

क्या यह संभव है कि भारत चीन को इस बात का पता चलने देता कि विपरीत परिस्थितियों में तिब्बत के राष्ट्रवाद को पीएलए के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है या कभी किया जाएगा.

और एसएफएफ ऐसा कोई सीक्रेट नहीं था, जैसा उसे बताया जा रहा था. तिब्बती मामलों के एक्सपर्ट और लेखक क्लॉडे अर्पी इस संभावना से इनकार नहीं करते.

तिब्बत के राष्ट्रवादियों के साथ भारत के परस्पर रिश्ते

तिब्बत में चीन ने कई बौद्ध विहारों यानी मॉनेस्ट्रीज़ को नुकसान पहुंचाया और भिक्षुओं की हत्या की. इसके बाद खम और अमडो क्षेत्रों में चीन के खिलाफ बड़े पैमाने पर विद्रोह हुए. हजारों शरणार्थी मध्य तिब्बत पहुंचे. बहुत से भारत आ गए और 1959 में दलाई लामा का भारत आगमन इसका चरम था.

दलाई लामा(फोटो: File/Altered by Erum Gour/The Quint) 

यह याद रखना चाहिए कि मैकमोहन लाइन को लेकर भारत और चीन के संबंधों को बड़ा झ़टका लगा था. यह तिब्बत और भारत के बीच की सीमा है. नेहरू का मैकमोहन लाइन को वैध सीमा मानना इस बात की पुष्टि करता था कि भारत तिब्बत को 1950 से पहले स्वतंत्र देश मानता था. सैम वैन शेक ने तिब्बत नामक अपनी किताब में लिखा है कि 1962 का भारत चीन युद्ध ‘एक तरह से तिब्बत को लेकर लड़ी गई लड़ाई थी.’

इसी से यह आसानी से समझा जा सकता है कि तिब्बती शरणार्थी, खास तौर से खम क्षेत्र के लोग अपने फायदे के लिए एसएफएफ का हिस्सा बनने के लिए तैयार थे. बेशक इसकी एक वजह यह भी थी कि भारत सरकार ने तिब्बत के लिए दलाई लामा के नए संविधान की घोषणा पर ऐतराज नहीं जताया था.

एसएफएफ सैनिकों के तौर पर तिब्बती खंपास (फोटो:Odisha government archives)

1965 में एक और बात ने भारत में तिब्बती शरणार्थियों के मनोबल को बढ़ाया. नई दिल्ली में तिब्बत का नया ऑफिस और कल्चलर सेंटर खोला गया. उसका उद्घाटन करते हुए भारत के तत्कालीन गृह मंत्री एम सी छागला ने स्पष्ट किया कि भारत तिब्बत के मामले में चीन से समर्थन वापस लेने को तैयार है. छागला ने कहा था कि तिब्बत ‘की संस्कृति को व्यवस्थित तरीके से खदेड़ दिया गया है’ और ‘जिन स्थितियों में हमने चीन के आधिपत्य को मान्यता दी थी, वह अब मौजूद नहीं हैं’.

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सीआईए ने किस तरह एसएफएफ को ग्रूम किया

नेहरू इस बात के लिए तैयार थे कि सीआईए धर्मशाला में अपनी गुप्त गतिविधियां चलाए- यानी इस तरह उन्होंने तिब्बती विद्रोहियों को समर्थन दिया. इसने भी चीन के खिलाफ एसएफएफ के सिपाहियों को तैयार करने में अहम भूमिका निभाई. अपने भरोसेमंद इंटेलिजेंस चीफ मल्लिक की मदद से नेहरू ‘उस दिन की तैयार कर रहे थे जब भारत के लिए तिब्बत को स्वतंत्र नहीं तो, अर्धस्वतंत्र दर्जा देना संभव हो.’

वैसे भारत का ऐसा इरादा था या नहीं, यह तो बहस का विषय है लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भारत, तिब्बत और अमेरिका की तिकड़ी ने उस समय सभी को फायदा पहुंचाया. दूसरी तरफ इसके चलते चीन की झुंझलाहट बढ़ रही थी.

सीआईए ने ओड़िशा (तब उड़ीसा) के चारबतिया में कम्यूनिकेशन बेस बनाया और उसे वहां लाने में बीजू पटनायक ने बड़ी भूमिका निभाई. इस बेस के जरिए सीआईए, भारतीय इंटेलिजेंस अधिकारियों और तिब्बत के विद्रोही नेताओं के लिए एक दूसरे के संपर्क में रहना आसान हुआ.

एसएफएफ ऑपरेशंस का महत्व

सीआईए, भारतीय इंटेलिजेंस और तिब्बती विद्रोहियों का गठजोड़ एसएफएफ का पहला बड़े पैमाने का गुप्त अभियान था. एसएफएफ, जिसे अक्सर स्पाई इंटरप्राइज कहा जाता है, ने कैप्टन मोहन सिंह कोहली के नेतृत्व में 1964 से हिमालयी क्षेत्र में अपनी मुहिम शुरू की. यूं इसे पर्वतारोहण अभियान कहा गया जिसकी अगुवाई कैप्टन कोहली कर रहे थे. एसएफएफ ने नंदा देवी में स्पाइंग अपरेटस लगाया ताकि वहां से सीआईए चीन की परमाणु क्षमताओं पर नजर रख सके. 1969 तक अमेरिका इस अपरेटस पर बहुत हद तक निर्भर था.

1969 में एक तरफ तिब्बत में सांस्कृतिक क्रांति हो रही थी, तो दूसरी तरफ चीन सोवियत संघ से भिड़ा हुआ था. तिब्बत के ‘आत्मनिर्णय’ के प्रति सोवियत प्रोपेगैंडा के चलते तिब्बती विद्रोहियों की बांछें खिली हुई थीं और एसएफएफ का हौसला बढ़ गया था. तिब्बत की ‘आजादी’ के मसले पर सोवियत संघ भारत का समर्थन कर रहा था और चीन यह सब देखकर पगला सा गया था. उसी उन्माद का चरम 1971 में देखने को मिला. इस पूरे मसले को देखते हुए 1971 में भारत-पाक युद्ध में एसएफएफ की भूमिका की समीक्षा की जानी चाहिए. कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने खास तौर से पूर्वी पाकिस्तान में एसएफएफ को तैनात करने के लिए कहा था.

स्पेशल फ्रंटीयर फोर्स के तिब्बती जवान(फोटो:Odisha government archives)

कूटनीतिक मामलों के एक्सपर्ट और लेखक प्रवीण स्वामी ने 1971 में एसएफएफ के बारे में कुछ इस तरह लिखा है:

“चटगांव पहाड़ी क्षेत्र में ब्रिगेडियर उबान ने भारतीय सैनिकों, या अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो सीआईए प्रशिक्षित, भारतीय फंडेड तिब्बतियों को भेजा जोकि जल्दीबाजी में आयातित बुलगारियाई असॉल्ट राइफल्स और अमेरिका में बनी कार्बाइन्स से लैस थे और इस तरह भारत से अपने रिश्तों को छिपा रहे थे. रॉ के मशहूर स्पाइमास्टर रामेश्वर काओ से सीधे निर्देश लेकर बिग्रेडियर उबान के लड़ाके कई छोटी झड़पों में शामिल थे...

... इन झड़पों में सिर्फ 56 लोग मारे गए थे और 190 घायल हुए थे, इस तरह एसएफएफ ने कई मुख्य पुलों को नष्ट कर दिया था और यह पक्का किया था कि पाकिस्तान की 97 ब्रिगेड और क्रैक 2 कमांडो बटालियन चटगांव पहाड़ी क्षेत्र में कमजोर पड़ जाए. ब्रिगेडियर उबान के 580 लड़ाकों को नकद, मेडल और भारत सरकार से ईनाम मिले थे.”

एसएफएफ के सैनिक ढाका के मुक्ति संग्राम के दौरान शायद ल्हासा की तैयारी कर रहे थे. इस बल ने आम तौर पर गुप्त तरीके से ही काम किया था और ईस्टर्न कमांड के कुछ ही कमांडरों को उनकी गतिविधियों की जानकारी थी. इंदिरा गांधी ने अमृतसर के हरमिंदर साहिब में ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के दौरान एसएफएफ को तैनात किया था और 1 पैरा एसएफ के लेफ्टिनेंट जनरल प्रकाश कटोच जैसे कई भारतीय सैन्य अधिकारी एसएफएफ के पेशेवर तौर-तरीकों की पुष्टि करते हैं.

एसएफएफ ने कारगिल युद्ध के दौरान भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यह कहा जाता है कि टाइगर हिल पर कब्जा एसएफएफ की तैनाती की वजह से ही हो पाया था. लेकिन भारत की कूटनीतिक कार्रवाइयों में बड़ा योगदान देने के बावजूद एसएफएफ के सैनिकों को सार्वजनिक स्तर पर मान्यता कम ही मिल पाती है.

क्या मोदी नेहरू के नक्शेकदम पर चल रहे हैं

एक तुनकमिजाज प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ किसी खुफिया बल की कार्रवाई की मुनादी क्यों की जाएगी? जवाब साफ है, अपना पक्ष रखने के लिए. भारत अब भी तिब्बत के सिलसिले में चीन की दुखती रग पर हाथ रख रहा है. मोदी सरकार बार-बार इस बात का संकेत दे रही है. तिब्बत और दलाई लामा पर एक सुस्पष्ट चुप्पी के बाद भाजपा सरकार सीमा पर चीन की कार्रवाई को देखते हुए ‘तिब्बत कार्ड’ खेलना चाहती है.

नीइमा तेंजिन ने भारत-चीन सीमा पर 31 अगस्त को हुई झड़प के दौरान अपनी जान गंवाई(फोटो: Dawa Dolma)

नईमा तेनजिंग की अंतिम क्रिया और भारतीय सैनिकों पर आशीर्वाद बरसाते तिब्बतियों से चीन को एक संदेश जरूर मिला होगा. यह याद रखने की जरूरत है कि शी जिनपिंग ने हाल ही में (अगस्त के आखिरी हफ्ते में) पोलित ब्यूरो के सदस्यों और पीएलए के शीर्ष अधिकारियों के साथ उच्च स्तरीय बैठक की है औऱ इसमें तिब्बत पर चीन की अगले पांच साल की नीति पर चर्चा की है.

शी जिनपिंग (फोटो:The Conversation/Andre Coelho/EPA)

इससे क्या हासिल होगा, इस पर सिर्फ कयास लगाए जा सकते हैं. न तो भारत और न ही चीन वैसे हैं जैसे साठ के दशक में थे. तिब्बत से जुड़े हर प्रस्ताव के बाद अरुणाचल प्रदेश में कोई न कोई कांड होता है. चीन के हाल के बयानों से भी यही स्पष्ट होता है. चूंकि दोनों देश 1962 को दोहराना नहीं चाहेंगे, इसलिए उम्मीद है कि मोदी का एसएफएफ वाला दांव अपना असर दिखाएगा और सिर्फ इसी संकेत से काम चल जाएगा.

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