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बीजिंग ने कश्मीर विवाद को हल करने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका से दूर रहने का फैसला किया है. ये फैसला मामल्लपुरम में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच अनौपचारिक सम्मेलन की गर्मजोशी बढ़ा सकता है. अप्रैल 2018 में वुहान में पहला अनौपचारिक सम्मेलन आयोजित किया गया था. बीजिंग का फैसला दोनों देशों के रिश्तों को मजबूती प्रदान करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है.
पर्यवेक्षकों को मामल्लपुरम सम्मेलन की औपचारिक तारीख के ऐलान का बेसब्री से इंतजार था. ये सम्मेलन इसी हफ्ते होना था. आखिरकार मंगलवार को चीन के प्रवक्ता ने अपने देश का फैसला सुनाया. फैसले के मुताबिक कश्मीर मुद्दे को दोनों पक्षों की आपसी सहमति से ही सुलझाया जा सकता है.
स्पष्ट है कि एक साल बाद वुहान सम्मेलन में शुरु हुई प्रक्रिया मजबूत होने की दिशा में बढ़ रही है.
वुहान सम्मेलन को भारतीय प्रेस रिलीज ने “मौजूदा वैश्विक अनिश्चितताओं के बीच सकारात्मक स्थायित्व कदम” बताया था. सम्मेलन में “रणनीतिक संचार” को बढ़ावा देने की जरूरत पर जोर दिया गया था. डोकलाम घटना को देखते हुए आपसी अविश्वास और गलत समीकरणों के खतरों को दूर करने के लिए उच्च स्तरीय संवाद पर सहमति बनी थी. बैठक से पहले और उसके बाद भारत और चीन के उच्च स्तरीय मंत्रियों और अधिकारियों के बैठकों और आपसी दौरों में तेजी आई.
बैठकों के महत्त्वपूर्ण नतीजों में सीमा पर शांति स्थापना के लिए रणनीतिक फैसले किए गए. इन फैसलों में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति स्थापित करना और दोनों देशों के बीच सामरिक आदान-प्रदान पर सहमति बनी. हालांकि अफगानिस्तान में भारत और चीन साथ मिलकर काम नहीं कर सके, लेकिन अफगान कूटनीतिज्ञों के लिए संयुक्त प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने में सफल रहे. मई में चीन ने संयुक्त राष्ट्र की 1267 कमेटी के मुताबिक मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने पर अपना विरोध वापस ले लिया.
पिछले साल दोनों के बीच छठी आर्थिक रणनीतिक वार्ता और नौवीं वित्तीय वार्ता हुई. दोनों विभिन्न बहुपक्षीय प्रणालियों, जैसे रूस-भारत-चीन त्रिपक्षीय मुद्दे, BRICS, SCO और G20 मुद्दों पर आपसी सहयोग जारी रखने पर सहमत हुए.
प्रधानमंत्री मोदी 2014 की तुलना में भारी बहुमत के साथ इस बैठक में शामिल होने जा रहे हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर हो सकती है, लेकिन अप्रैल 2018 की तुलना में चीन के प्रति वैश्विक रुख ज्यादा कड़ा हुआ है.
हालांकि ये कैसे होगा, ये देखना अभी बाकी है. पहला कदम जम्मू और कश्मीर में हुई कार्रवाई के प्रति चीन का विरोध है. चीन ने इस मुद्दे पर 1971 के बाद पहली बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक आयोजित करने की पहल की थी. इस्लामाबाद यात्रा पर गए चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने संयुक्त बयान और UNGA भाषण में अपना विरोध प्रकट किया था और संयुक्त राष्ट्र को इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था.
नतीजा ये निकला कि अपने भारतीय समकक्ष NSA अजीत डोभाल के साथ भारतीय पक्ष के लिए उनके “तय मुद्दों” पर विशेष वार्ता के कारण 9-10 सितम्बर को वांग यी की नई दिल्ली यात्रा रद्द हो गई. वांग-डोभाल बैठक का मकसद मामल्लपुरम बैठक की भूमिका तैयार करना भी था.
इस बीच भारत ने दो सैन्य अभ्यास किए. पहला अभ्यास 17 सितम्बर को पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ लगी सीमा पर हुआ और दूसरा 3 अक्टूबर को अरुणाचल प्रदेश में लामबंदी और हमले की रणनीतिक जांच के लिए किया गया. दोनों सैनिक अभ्यास भारत के कड़े रुख के परिचायक थे.
न्यूयॉर्क में UNGA बैठक के दौरान भारत, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और जापान के विदेश मंत्रियों ने चारों देशों के बीच बातचीत की रूपरेखा तैयार करने के लिए मुलाकात की. पहले चारों देशों के बीच संचुक्त सचिव स्तर पर बातचीत होनी थी. मंत्री स्तर पर बातचीत से ये मसला अहम हो गया. चार में से तीन देश अमेरिका के सामरिक दोस्त हैं और माना जा रहा है कि ये लामबंदी चीन पर लगाम कसने के लिए की गई है.
मामल्लपुरम में दोनों देश व्यापारिक और आर्थिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं. लेकिन दोनों के राजनीतिक रिश्तों में कड़वाहट को नजरंदाज नहीं किया जा सकता और न किया जाना चाहिए.
दोनों देश बैठक में अपनी-अपनी मांगों की सूची के साथ शामिल हो सकते हैं. उनकी मांगें बड़ी और छोटी दोनों हो सकती हैं. जैसा वुहान में हुआ था, व्यापारिक बंधनों से जुड़े कुछ छोटे-मोटे मुद्दों का समाधान हो सकता है. भारत पर RCEP को समर्थन देने का भारी दबाव है, जबकि नई दिल्ली 60 बिलियन अमेरिकी डॉलर के व्यापारिक घाटे को चीन के पक्ष में करना चाह रहा है.
लेकिन राजनीतिक मुद्दे ज्यादा पेचीदा हैं. हो सकता है कि विकासशील देशों में संयुक्त गतिविधियां जोर पकड़ें. पिछले साल चीन और जापान के बीच 50 संयुक्त ढांचागत परियोजनाओं पर सहमति बनी थी. इनमें Belt and Road Initiative शामिल नहीं थे. अफगानिस्तान, म्यांमार, नेपाल और यहां तक कि श्रीलंका में दोनों देशों के बीच इसी प्रकार का सहयोग स्थापित हो सकता है.
BRICS हो या SCO स्तर, चीन के साथ सहयोग वॉशिंगटन में भारत की कूटनीतिक लामबंदी मजबूत करेगी. इसी प्रकार अमेरिका और भारत के बीच अच्छे रिश्ते चीन पर लगाम कसने में मददगार होंगे. लेकिन दोनों में किसी भी मुद्दे पर ज्यादा जोर देने पर दूसरे सहयोगी को आपसी खुशनुमा रिश्ते रास नहीं आने का खतरा है. इस हालत में भारत का पलड़ा हल्का होगा. कई मामलों में दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है और आपसी सहयोग से काफी कुछ हासिल किया जा सकता है.
(लेखक Observer Research Foundation, New Delhi में एक Distinguished Fellow हैं. आर्टिकल में दिए गए विचार उनके निजी विचार हैं और इनसे द क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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Published: 10 Oct 2019,07:47 AM IST