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संविधान सभा (Constituent Assembly) के सदस्यों ने जैसे ही अपना भारी भरकम टास्क को पूरा किया, दिल्ली में सर्दियां आ गई. उन्होंने कई सत्रों में विचार-विमर्श किया. यहां तक कि उप-समितियों और कॉकस में सबने विचार किया. ये सभी मुलाकातें कभी कुछ सदस्यों के घरों पर होती थी तो कुछ कुछ तो होटल इंपीरियल में भी हुईं. सदस्यों ने संविधान के मसौदे में 7635 संशोधन पेश किए थे, जिनमें से 2473 पर वोटिंग हुई उन्हें पास किया गया.
26 नवंबर 1949 को जब समापन सत्र में ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष ने अच्छी तरह से किए गए काम के लिए पीठ थपथपाने के बजाय सचेत किया, तो निश्चित रूप से उनकी भौहें तन उठी. डॉ बी आर अंबेडकर ने सभा को सचेत किया और उनके जरिए भारत के मूल कानून के उन सभी भावी संरक्षकों को चेताते हुए कहा-
महात्मा गांधी ने उन तरीकों की शुद्धता पर जोर दिया, जिन्हें अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपनाया जाना था. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस शिक्षा का शाश्वत मूल्य है. यह केवल मुश्किल वक्त और संघर्ष के लिए बताया गया मार्ग नहीं था, बल्कि आज भी उतना ही महत्वपूर्ण मूल्य है जितना पहले था. हमारी प्रवृत्ति होती है कि जो कुछ भी गलत होता है उसके लिए हम दूसरों को दोष देते हैं और आत्मनिरीक्षण नहीं करते. यह देखने की कोशिश नहीं करते हैं कि इसमें हमारी कोई गलती या हिस्सेदारी है या नहीं.
दूसरों के कामकाज और इरादों का सही मूल्यांकन करने की जगह अगर कोई अपने लिए ऐसा करने लगे तो फिर सभी कामकाज को स्कैन करना आसान हो जाएगा. मैं सिर्फ यह उम्मीद करुंगा कि भविष्य में इस संविधान को लागू करने का सौभाग्य पाने वाले सभी लोग यह याद रखेंगे कि यह एक अनोखी जीत थी जिसे हमने राष्ट्रपिता की सिखाई गई अनूठी पद्धति से हासिल की थी. अब यह हम पर निर्भर है कि हमने जो आजादी हासिल की है उसे बनाए और बचाए रखें.. और गणतंत्र के आखिरी पायदान तक इसका मीठा फल पहुंचे. आइए हम अपने स्वतंत्र गणराज्य को विश्वास के साथ, सत्य और अहिंसा के साथ और सबसे ऊपर दिल के साथ और भगवान को मानते हुए अपने इस कार्य की शुरुआत करें.
इस प्रकार, हमारे पहले राष्ट्रपति ने भारत के भावी शासन के लिए तीन शासनादेश बताए: सत्य, अहिंसा और करुणा. हालांकि वे अस्पष्ट और गूढ़ लग सकते हैं, लेकिन ये तीन शब्द वास्तव में हमारी संवैधानिक दृष्टि को सबसे सुंदर तरीके से बताते हैं. यह एक बुनियादी कानून है जो सत्य, अहिंसा और करुणा की पवित्र गांधीवादी आदर्शों की अवधारणाओं पर आधारित है.
कोई चाहे तो इसे विशेष रूप से संविधान के भाग III और IV में देख सकता है , जो मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों से संबंधित है. एक क्रूर, रक्तरंजित और अभूतपूर्व विभाजन के हजारों जख्मों से खून बहने के बावजूद, भारत के संविधान निर्माताओं ने सत्य की गांधीवादी समझ को स्वीकार किया. यह माना गया कि भगवान ने सभी को एक समान बनाया है.
भारत में ‘समानता’ का क्रांतिकारी अधिकार तुंरत मिल गया जिसे हासिल करने में अमेरिका में लोगों को एक सदी से भी ज्यादा लंबा वक्त लगा. इसके लिए एक सिविल वॉर उन्हें करना पड़ा. भारत में इसी तरह महिलाओं को भी सार्वभौमिक मताधिकार मिला जबकि इसके लिए ही ब्रिटेन में महिलाओं को जेल, प्रताड़ना से गुजरना पड़ा. जाति और छुआछूत को संवैधानिक रूप से समाप्त कर दिया गया था क्योंकि उपाधि और विशेषाधिकार ही मनुष्य को मनुष्य से अलग करते थे और इन्हें खत्म कर दिया गया.
यदि कोई संविधान को ध्यानपूर्वक पढ़ता है तो जो बात उभरकर सामने आती है वह यह है कि हमारे निर्माताओं ने केंद्र में नागरिक के साथ एक करुणामय "मैटरनल स्टेट" मातृ सत्तात्मक राज्य की स्थापना का सपना देखा था. इसलिए हमें खुद से यह पूछने की जरूरत है कि क्या हम वास्तव में संविधान बनाने वाले के भविष्य के भारत के सपने को पूरा कर पाए हैं? क्या राज्य के तीन अंग - विशेष रूप से कार्यपालिका और न्यायपालिका –करुणा और स्त्री केंद्रित बना पाए हैं.
जवाब सबको मालूम और यह हमारे अपने चेहरों पर ही लिखे हैं. जिस गति से भारत ने अपने प्रशासनिक सुधार किए, वह उनके संविधान-निर्माण में किए गए आश्चर्यजनक कदमों से मेल नहीं खाता था. नतीजन, संविधान की व्याख्या और प्रशासन का कार्य एक औपनिवेशिक न्यायपालिका, नौकरशाही और पुलिस बल के हाथों में आ गया. इन संस्थानों को बनाया इसलिए गया था कि एक शाही शासन के लिए जनता को दास की तरह रखा जा सके और राजा के अमन चैन में खलल ना पड़े. आजादी के बाद भी और ' संविधान लागू होने की तिथि यानि 26 जनवरी, 1950 के बाद भी ये सब राज्य के अंग ऐसे ही चलते रहे मानो संविधान ने कोई क्रांतिकारी अधिकारों और सामाजिक न्याय शासन प्रणाली ही नहीं बनाया.
चयन, ट्रेनिंग और ओरिएंटेशन में नौकरशाहों, न्यायाधीशों और पुलिस-औपनिवेशिक तंत्र की तरह ही कामकाज करते रहे. खेल के नियम वही बने रहे, उदाहरण के लिए-उन्नीसवीं सदी का वो कानून जो बिना किसी जवाबदेही के कलेक्टर को विशाल और व्यापक अधिकार देता है वो चलता रहा. इसलिए दया –करुणा और नागरिक को ध्यान में रखने की बात तो भूल ही जाइए.. वही माई-बाप संस्कृति जो औपनिवेशिक काल में थी वो चलती रही..और आखिर में ये ऐसा हो गया कि कुछ लोग तो अब ये मानने लगे कि शायद गोरा साहब लोग कुछ मायने में इन ‘भूरे साहबों’ से ज्यादा भले थे.
दुखद सच्चाई यह है कि निहित स्वार्थों ने यह सुनिश्चित किया है कि सच्चा प्रशासनिक सुधार- जो हमारे शासन के अंगों को हमारे क्रांतिकारी संविधान के साथ जोड़ता, वो हमेशा के लिए एक सपना बनकर रह गया.
यदि हम वास्तव में अपने फाउंडर्स यानि संविधान निर्माताओं के सपनों को पूरा करने के लिए ईमानदार हैं, जैसा कि संविधान सभा के अध्यक्ष ने उस दिन पर कहा था, जिसे हम आज संविधान दिवस के रूप में मनाते हैं तो हमें जुबानी बात करना छोड़कर सच में कुछ कदम आगे बढ़ाना होगा.
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