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COVID वैक्सीन ड्राइव को रेलवे की तत्काल स्कीम ऐसे कर सकती है गाइड

रेगुलर इम्युनाइजेशन को प्रभावित किए बिना कोविड को मात कैसे दें?

राघव बहल
नजरिया
Published:
 रेगुलर इम्युनाइजेशन को प्रभावित किए बिना कोविड को मात कैसे दें?
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रेगुलर इम्युनाइजेशन को प्रभावित किए बिना कोविड को मात कैसे दें?
(फोटो: अरूप मिश्रा/क्विंट)

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तत्काल (यानी ऑन डिमांड) एक साधारण हिंदी शब्द था जब तक कि रेलवे ने यात्रा के लिए जद्दोजहद कर रहे लाखों भारतीयों के लिए इसको विशेष आर्थिक अर्थ नहीं दिया क्योंकि ट्रेन में कंफर्म टिकट मिलना असंभव था. अब रेलवे की तत्काल स्कीम के तहत लोग 30 फीसदी तक प्रीमियम दे कर तुरंत रेल में रिजर्वेशन पा सकते हैं.

लोगों को ये योजना इतनी पसंद आई और इसको लेकर प्रतिक्रिया इतनी जबर्दस्त थी कि रेलवे अक्टूबर 2014 में प्रीमियम तत्काल योजना लेकर आई जिसमें एक डायनैमिक प्राइस मॉडल के तहत अतिरिक्त कीमत को दोगुना तक बढ़ा दिया गया. भारत सरकार जो कि ‘गरीबों के हित में कीमत सीमा’ और ‘कीमत बढ़ाने के खिलाफ सुरक्षा’ की बात करती है उसके लिए ये पूरी तरह से गंदी मुनाफाखोरी को बढ़ावा देना था.

मैं भारतीय रेलवे की बात क्यों कर रहा हूं जब हर कोई इस वक्त ‘बिग वी’ की बात कर रहा है? सौभाग्य से वी से वायरस नहीं बल्कि वी से वैक्सीन. 

नौ महीने की शमशान जैसी शांति के बाद हमारी पृथ्वी अब बच्चों की किलकारी जैसी आवाज के साथ फिर से गुलजार होने वाली है. ये तत्काल खुशी है.

गंभीरता से कहें तो, निराशा से उम्मीद की ओर बातों को बदलते देखना रोमांचक है.

  • हमारी पूरी आबादी को वैक्सीन लगने में कितना समय लगेगा?
  • यहां किस वैक्सीन को सफलता मिलेगी?
  • हम बुनियादी ढांचे को कैसे बढ़ा सकते हैं?
  • वैक्सीन सबसे पहले किन लोगों को लगनी चाहिए?
  • क्या हमें अपने यहां तैयार सारी वैक्सीन का इस्तेमाल अपने देश के लोगों के लिए करना चाहिए या मानवीय/कमर्शियल दोनों उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए बड़ी मात्रा में निर्यात भी करना चाहिए?
  • वैक्सीन की कीमत कैसे तय की जानी चाहिए?

भारत की COVID इम्युनाइजेशन स्ट्रेटेजी

बराबरी के कई विकल्पों में से सबसे अच्छे को चुनने के लिए हमें संचालन व्यवस्था बनाम अर्थशास्त्र बनाम नैतिकता के मुद्दे और विकल्पों को ध्यान में रखना होगा. चलिए एक-एक कर देखते हैं.

संचालन व्यवस्था: रेगुलर इम्युनाइजेशन को प्रभावित किए बिना कोविड को मात कैसे दें?

  • कोविड 19 की मार के पहले, भारत ने हर पैमाने पर दुनिया का नेतृत्व किया- हम हर साल करीब 2.3 अरब वैक्सीन के डोज का उत्पादन कर रहे थे यानी कोविड 19 से पहले दुनिया की जरूरत का करीब 40 फीसदी. इनमें से तीन-चौथाई का निर्यात किया गया था
  • भारत ने हर साल करीब पांच करोड़ साठ लाख बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए करीब 39 करोड़ की खुराक वाला सबसे बड़ा टीकाकरण कार्यक्रम भी चलाया, हालांकि इस लक्ष्य का 70 फीसदी भी पूरा करने में हम संघर्ष कर रहे हैं.
  • और यही सबसे बड़ी, कष्टदायक दुविधा है. अगर हम अपनी पूरी ऊर्जा 30 करोड़ लोगों को 2021 के मध्य तक कोविड 19 का टीका लगाने में लगा दें, तो हमारे नियमित टीकाकरण अभियान को ऐसा नुकसान हो सकता जिसे सुधारा न जा सके.
तो, हमारे बच्चों और गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य से समझौता किए बिना हम कैसे कोविड 19 के खिलाफ टीकाकरण अभियान को बढ़ा सकते हैं?

अर्थशास्त्र: क्या भारत के पास सबसे ज्यादा प्रभावित हो सकने वाले लोगों को वैक्सीन देने का बजट है?

  • कोविड 19 के संक्रमण में आने का जिन्हें सबसे ज्यादा खतरा है, उनके टीकाकरण में भारत को करीब 60,000 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ सकते हैं. लेकिन केंद्र सरकार का वास्तविक स्वास्थ्य बजट ही 69,000 करोड़ का है. तो आप मुश्किल समझे?
  • वैक्सीन का निर्यात, हमारी विदेश से कमाई का एक बड़ा हिस्सा है. कुछ अनुमानों के मुताबिक ये 13 अरब अमेरिकी डॉलर से ज्यादा के कीमत की करीब एक अरब खुराक हो सकती है. ये पूरे मामले में एक अहम कमर्शियल दृष्टिकोण को लेकर आती है. हमारी निर्यात क्षमता को तबाह करने की कीमत पर अपने देश में वैक्सीन की मुफ्त खुराक बांटना एक समझदारी भरा फैसला नहीं होगा.
तो, वैक्सीन उत्पादन और निर्यात में एक प्रभावशाली कार्यक्षमता के निर्माण में दशकों की कड़ी मेहनत को बचाते हुए हमारे गरीब वर्ग और सबसे असुरक्षित को सब्सिडी देने के बीच नैतिक संतुलन कैसे बना सकते हैं? 
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नैतिकता: क्या कोरोना वैक्सीन 'निजी सामान' है या 'सार्वजानिक सामान' है?

क्या कोविड 19 वैक्सीन एक निजी वस्तु है, यानी हमें इसके लिए कमर्शियल मार्केट की अनुमति देनी चाहिए जहां कई दूसरी दवाओं की तरह इसकी भी कीमत मांग और आपूर्ति के आधार पर तय की जा सके? बेशक, एक समानांतर ‘कल्याणकारी वितरण चैनल’ भी होना चाहिए जहां सरकार दखल दे और गरीब/जरूरतमंदों के लिए सब्सिडी पर वैक्सीन उपलब्ध कराए, लेकिन जो वैक्सीन अलग से खरीदना चाहें उनके लिए भी उपलब्ध हो.

या वैक्सीन एक सरकारी वस्तु है, यानी सरकार इस आइटम पर पूरा नियंत्रण रखे, सिर्फ सामाजिक-कल्याणकारी पैमाने पर ही इसका वितरण करे? वैक्सीन के किसी निजी, स्वैच्छिक व्यापार पर कड़ा प्रतिबंध लगाया जाए.

मौजूदा बहस इन्हीं दो चरम सीमाओं के बीच झूल रही है.

जब हर चीज को पैसे के चश्मे से देखते हैं तो क्या होता है?

लेकिन मुझे फरीद जकारिया की नई किताब ‘टेन लेसंस फॉर एक पोस्ट पैनडेमिक वर्ल्ड’ में नैतिकता का तीसरा सिद्धांत मिला. वो लिखते हैं कि कैसे हमने बाजार अर्थव्यवस्था की कार्यक्षमता को एक मार्केट सोसाइटी की असमानता में बदल दिया है, जिसमें हर एक चीज को कीमत के नजरिए से देखा जाता है. यहां किताब का एक प्रभावशाली अंश है.

'अपने डॉक्टर का मोबाइल फोन नंबर चाहते हैं? कुछ डॉक्टर एक साल के लिए 1500 डॉलर लेकर नंबर दे देंगे. अपने बच्चे के लिए और बढ़िया हॉस्टल चाहिए जहां से सीधे बढ़िया कैफेटेरिया तक पहुंचा जा सके? कुछ हजार डॉलर देने पर आसानी से हो जाएगा. कई ऐसे जेल भी हैं जहां एक कैदी एक रात के लिए 90 डॉलर चुका कर अपने सेल को अपग्रेड कर सकता है.'

'जब सबकुछ खरीदा जा सकता है, तो जीवन का हर पहलू असमान हो जाता है.. अगर पैसे से एक बेहतर घर या कार या यहां तक की यॉट भी खरीदा जा सकता है तो ये एक बात है. लेकिन अगर आप नागरिकता, सार्वजनिक जगहों पर विशेष पहुंच, कॉलेजों में बेहतर व्यवहार और नेताओं से मदद खरीद सकते हैं तो ये एक भ्रष्ट और बरबाद करने वाली शक्ति बन जाती है.'

तो अब, क्या अब कुछ लोगों को एक खास कीमत पर वैक्सीन खरीदने की अनुमति मिलनी चाहिए? क्या इससे समाज में भ्रष्टाचार और विनाशन तो नहीं बढ़ेगा?

अमीरों के लिए वैक्सीन तक आसान पहुंच सबके लिए फायदेमंद कैसे?

मैं साफ तौर पर प्रीमियम तत्काल स्कीम (भारतीय रेल याद है?) के पक्ष में हूं जो अमीर लोगों को ‘लाइन से बचने’ और ज्यादा कीमत पर वैक्सीन खरीदने की अनुमति देता है खासकर इससे फायदा ये होगा कि अतिरिक्त पैसों का इस्तेमाल उन लोगों को वैक्सीन पर सब्सिडी देने के लिए किया जा सकता है जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है. यहां, इसे देखें:

  • 2021 में भारत जो 100 करोड़ (एक बिलियन) वैक्सीन की डोज व्यवस्था करेगा उनमें से 10 फीसदी या 10 करोड़ (100 मिलियन) को तत्काल श्रेणी के तहत 10,000 रुपये प्रति वैक्सीन की कीमत से बेची जाएंगी, ये महंगी फाइजर या मॉडेर्ना वैक्सीन हो सकती हैं जिन्हें इसी उद्देश्य के लिए आयात किया जा सकता है.
  • हमारे बहुत ही प्रभावशाली ई- गवर्नेंस टूल्स का इस्तेमाल करते हुए पूरे तत्काल स्कीम को आसानी से पारदर्शिता के साथ चलाया जा सकता है.
  • अगर 10,000 रुपये प्रति वैक्सीन की दर से अमीर, वैक्सीन लगाने को उत्सुक लोग 10 करोड़ वैक्सीन के पूरे कोटा को खत्म कर देते हैं तो सरकार को एक लाख करोड़ रुपये मिल जाएंगे, जिससे सरकार बाकी की जनता को पूरी तरह से मुफ्त वैक्सीन देने के लिए सब्सिडी दे सकेगी.
  • अंत में, फिलहाल कोविड से अलग जारी टीकाकरण कार्यक्रम को भी फंड की कमी नहीं होगी, दूसरे स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम भी बिना बाधा के चलते रहेंगे और हमारे वैक्सीन निर्माताओं के हित को सुरक्षित रखते हुए 100 करोड़ से ज्यादा वैक्सीन के डोज भी निर्यात किए जा सकेंगे.

विरोध करने वालों से मैं पूछूंगा: क्या आपने सोचा है कि अगर हमने कोविड 19 वैक्सीन में प्रीमियम तत्काल स्कीम लागू नहीं किया तो क्या होगा?

  • हजारों भारतीय परिवार वैक्सीन लगवाने के लिए विदेश चले जाएंगे जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था में निवेश करने के बजाए हमारे संसाधन कम हो जाएंगे.
  • एक फलता-फूलता काला बाजार उभरेगा जो लोगों से ज्यादा पैसे लेकर टीका दिलवाएगा या चोरी किए गए वैक्सीन तक जिनकी पहुंच होगी- ऐसे में फिर से अंडरवर्ल्ड को वैध नकदी चली जाएगी.

सच कहूं तो, ये पूरी तरह से हार-हार-हार की स्थिति होगी. तो क्या हमारे स्वास्थ्य नीति निर्माता अपने परिवार, भारतीय रेल की ओर से बेचे जाने वाले तत्काल टिकटों की सफलता से सीखेंगे?

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